"रंगरेज मौसम !"
फिर याद आई मुझे
अपने शहर की
चिलकती धूप और बारिश
जब मोती सी झरती थीं
आकाशी थाल से
रेशमी चमकती बूंदें
तो अंजुली में बटोर कर
जलधार को थपथपाता
नंगे पैर दौड़ जाता था
बेलगाम घोड़े सा
मेरा बचपन
पीछे पीछे भागती
नटखट यायावर हवायें
तब थक जाती थीं
मुझे ढूँढ़ती हुई
मैं भी मावठ की धूप सी
कभी छिप जाती थी तो
कभी उग जाती थी
मानो कोई बीज हूँ और
सच में हरितिमा की
गंध सोख कर
पुष्पित- पल्लवित हो
प्रभात की
पहली किरणों सा
मेरा बंजारा मन
रंग- बिरंगा सा
फूल हो जाता था
जिसकी महक
बारिश की
हवाओं में घुल
आज भी बचपन में देखे
उन हसीं सपनो में
ले जाती हैं
जहाँ होती थी बस
उल्लास की परियाँ
कोमल एहसास की
सखियाँ और
आशाओं के हिंडोले जो
आज भी जब
याद आते हैं
मन मौसम को रंग जाते हैं
सच कितने मनभावन थे
वो मखमली पंखों पर
उड़ते खट्टे मीठे दिन और
बुलबुल से चह्कते वो
रंगरेज मौसम !
डॉ सरस्वती माथुर
फिर याद आई मुझे
अपने शहर की
चिलकती धूप और बारिश
जब मोती सी झरती थीं
आकाशी थाल से
रेशमी चमकती बूंदें
तो अंजुली में बटोर कर
जलधार को थपथपाता
नंगे पैर दौड़ जाता था
बेलगाम घोड़े सा
मेरा बचपन
पीछे पीछे भागती
नटखट यायावर हवायें
तब थक जाती थीं
मुझे ढूँढ़ती हुई
मैं भी मावठ की धूप सी
कभी छिप जाती थी तो
कभी उग जाती थी
मानो कोई बीज हूँ और
सच में हरितिमा की
गंध सोख कर
पुष्पित- पल्लवित हो
प्रभात की
पहली किरणों सा
मेरा बंजारा मन
रंग- बिरंगा सा
फूल हो जाता था
जिसकी महक
बारिश की
हवाओं में घुल
आज भी बचपन में देखे
उन हसीं सपनो में
ले जाती हैं
जहाँ होती थी बस
उल्लास की परियाँ
कोमल एहसास की
सखियाँ और
आशाओं के हिंडोले जो
आज भी जब
याद आते हैं
मन मौसम को रंग जाते हैं
सच कितने मनभावन थे
वो मखमली पंखों पर
उड़ते खट्टे मीठे दिन और
बुलबुल से चह्कते वो
रंगरेज मौसम !
डॉ सरस्वती माथुर
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