राम
तुम आवाज़ हो
इतिहास की
लहरों से टकरा
बार बार लौटते हो
रावण के
अधर्म को मार
फिर दूर
बहा ले जाते हो
राम तुम शक्ति हो
हर विजयदशमी पे
बुराई पर अच्छाई का
सन्देश ले आते हो
रावण के अस्तित्व को
राख करके
अँधेरा मिटाते हो
उजाला ले आते हो
राम तुम बस
राम हो
तुम्ही से सीखा
मर्यादा रखना
मन में शक्ति -भक्ति भर
अन्याय के खिलाफ
लड़ना मरना और
सच का सामना करना
डॉ सरस्वती माथुर
इतिहास की
लहरों से टकरा
बार बार लौटते हो
रावण के
अधर्म को मार
फिर दूर
बहा ले जाते हो
राम तुम शक्ति हो
हर विजयदशमी पे
बुराई पर अच्छाई का
सन्देश ले आते हो
रावण के अस्तित्व को
राख करके
अँधेरा मिटाते हो
उजाला ले आते हो
राम तुम बस
राम हो
तुम्ही से सीखा
मर्यादा रखना
मन में शक्ति -भक्ति भर
अन्याय के खिलाफ
लड़ना मरना और
सच का सामना करना
डॉ सरस्वती माथुर
16 0ct .12
.......................
"घोटालों
का रावण !"
घोटालों का रावण
कब तक हरता रहेगा
सदाचार की सीता
ब्रह्म खो कर कब तक
छलेगा भ्रम का
स्वर्ण मृग
कहाँ खो गया
गाँधी जी का
सच्चाई का पाठ्यक्रम -
कौन पढ़ा रहा है
झूंठ की पोथियाँ
कौन उगा रहा है फल
जिसमे स्वाद नहीं
बस है कसैलापन
अब तो जागो
बदलो देशवासियों
वक्त आ गया है
पहनो चोला
इमानदारी का
खोलो अपनी
तीसरी आँख
बंद करवाओ
घोटालों का यह
वीभत्स आचरण !
डॉ सरस्वती माथुर
घोटालों का रावण
कब तक हरता रहेगा
सदाचार की सीता
ब्रह्म खो कर कब तक
छलेगा भ्रम का
स्वर्ण मृग
कहाँ खो गया
गाँधी जी का
सच्चाई का पाठ्यक्रम -
कौन पढ़ा रहा है
झूंठ की पोथियाँ
कौन उगा रहा है फल
जिसमे स्वाद नहीं
बस है कसैलापन
अब तो जागो
बदलो देशवासियों
वक्त आ गया है
पहनो चोला
इमानदारी का
खोलो अपनी
तीसरी आँख
बंद करवाओ
घोटालों का यह
वीभत्स आचरण !
डॉ सरस्वती माथुर
"घोटाला
!"
घोटालों की पिटारी
खोल कर दिखा रहें हैं
सपेरों से
फन खोले साँपों को कुछ लोग
और निकाल कर
जहर उनका बेच रहे हैं
कोई पूछे उनसे कि
मानव होकर
क्यों खेल रहे हैं
दानवता का खेल
बढा रहे हैं भुखमरी
कुम्हला रहा है
हमारा देश
यह बुद्ध गांधी
रवीन्द्र के देश में
कैसा धर लिया है वेश?
न किसी का डर इन्हें
न कोई शर्म
जमाखोरी - घूसखोरी का
माया जाल फैला कर
देश को विश्व में
गिरा रहें हैं
फूटपाथ पर गरीबों की
भीड़ बढ़ा रहे हैं
अपना जमीर बेच कर
देश को पाताल में
ले जा रहें हैं !
डॉ सरस्वती माथुर
घोटालों की पिटारी
खोल कर दिखा रहें हैं
सपेरों से
फन खोले साँपों को कुछ लोग
और निकाल कर
जहर उनका बेच रहे हैं
कोई पूछे उनसे कि
मानव होकर
क्यों खेल रहे हैं
दानवता का खेल
बढा रहे हैं भुखमरी
कुम्हला रहा है
हमारा देश
यह बुद्ध गांधी
रवीन्द्र के देश में
कैसा धर लिया है वेश?
न किसी का डर इन्हें
न कोई शर्म
जमाखोरी - घूसखोरी का
माया जाल फैला कर
देश को विश्व में
गिरा रहें हैं
फूटपाथ पर गरीबों की
भीड़ बढ़ा रहे हैं
अपना जमीर बेच कर
देश को पाताल में
ले जा रहें हैं !
डॉ सरस्वती माथुर
October 9 at
....................
"सपने सजाना है !"
जीवन नदी
मन मंदिर
बजते हैं जिसमे
घंटे यादों के
एक चहकती
श्याम गौरैया से
फूल पे महकती
हवा जुगनू से
मन रोशन हैं
ख्वाब हैं मुरादों के
कुछ पाना है
सब भूल जाना है
मासूम नींद में
प्रेम रुपी ताजमहल के
मनभावन से
सपने सजाना है
कुछ बन दिखाना है
साथ वादों के
शीशे से जीवन को
पत्थर करना है
समय हाशियों पे
संग इरादों के
डॉ सरस्वती माथुर
जीवन नदी
मन मंदिर
बजते हैं जिसमे
घंटे यादों के
एक चहकती
श्याम गौरैया से
फूल पे महकती
हवा जुगनू से
मन रोशन हैं
ख्वाब हैं मुरादों के
कुछ पाना है
सब भूल जाना है
मासूम नींद में
प्रेम रुपी ताजमहल के
मनभावन से
सपने सजाना है
कुछ बन दिखाना है
साथ वादों के
शीशे से जीवन को
पत्थर करना है
समय हाशियों पे
संग इरादों के
डॉ सरस्वती माथुर
"मेरे सपनो के ताजमहल !"
महत्वाकांक्षाओं के
कंगूरों पर बैठे हैं
समय के पाखी
उड़ने को
आसमान में
हम पर पंखहीन
आसमान को
देख रहे हैं
पाखी से
जरुर कुछ पाना है
अकेला मन है
बाधाओं की धूल है
घर बहुत दूर है
संघर्षों की आंधी हैं
चक्करघिनी सी
डोल रही है कश्ती
नज़र नहीं आती
कोई भी बस्ती
फिर भी नए
घर सजाने हैं
आँखों में सपनो की
इंटों से जगमगाते
ताजमहल बनाने हैं
इसलिए ढूंढ रहे हैं
पारस खान
डॉ सरस्वती माथुर
महत्वाकांक्षाओं के
कंगूरों पर बैठे हैं
समय के पाखी
उड़ने को
आसमान में
हम पर पंखहीन
आसमान को
देख रहे हैं
पाखी से
जरुर कुछ पाना है
अकेला मन है
बाधाओं की धूल है
घर बहुत दूर है
संघर्षों की आंधी हैं
चक्करघिनी सी
डोल रही है कश्ती
नज़र नहीं आती
कोई भी बस्ती
फिर भी नए
घर सजाने हैं
आँखों में सपनो की
इंटों से जगमगाते
ताजमहल बनाने हैं
इसलिए ढूंढ रहे हैं
पारस खान
डॉ सरस्वती माथुर
"मेरे सपनो के ताजमहल !"
सपने जब बोती हूँ
बिखरी नींद समेटती हूँ
दूर बादलों छुपी धूप में
एक छाया बनाती हूँ
देर तक बारिश के संग
गीत मल्हार गाती हूँ
खामोश मौसम में
पंछी बन उड़ जाती हूँ
स्वाति बूँद सी जब
सीपी में गिर जाती हूँ
मोती बन चमकती हूँ
और जब अकेली होती हूँ
खुद से बतियाती हूँ
अँधेरा होते ही रोज मेरे
सपनो के ताजमहल पर
एक रूह सी मंडराती हूँ
डॉ सरस्वती माथुर
सपने जब बोती हूँ
बिखरी नींद समेटती हूँ
दूर बादलों छुपी धूप में
एक छाया बनाती हूँ
देर तक बारिश के संग
गीत मल्हार गाती हूँ
खामोश मौसम में
पंछी बन उड़ जाती हूँ
स्वाति बूँद सी जब
सीपी में गिर जाती हूँ
मोती बन चमकती हूँ
और जब अकेली होती हूँ
खुद से बतियाती हूँ
अँधेरा होते ही रोज मेरे
सपनो के ताजमहल पर
एक रूह सी मंडराती हूँ
डॉ सरस्वती माथुर
तुम कहाँ हो ?"
सूरज की धूप सी
आई थी याद तुम्हारी
सुबह की ऊँगली थाम
हवा की मुंडेर पे
देर तक मुझ से
बतियाती रही
घुंघरू से बजते रहे थे
वो संवाद जो
एक नृत्यांगना की तरह
थिरकते थे
हमारे जीवन मंच पर
आज भी मन फूल पर
उड़ उड़ बटोरते हैं वो
मकरंद से दिन
पूछते हुए कि
तुम कहाँ हो ?
दिखते नहीं ,पर फिर भी
रहते हो आस पास
खुशबू की तरह
मन बगिया में
डॉ सरस्वती माथुर
सूरज की धूप सी
आई थी याद तुम्हारी
सुबह की ऊँगली थाम
हवा की मुंडेर पे
देर तक मुझ से
बतियाती रही
घुंघरू से बजते रहे थे
वो संवाद जो
एक नृत्यांगना की तरह
थिरकते थे
हमारे जीवन मंच पर
आज भी मन फूल पर
उड़ उड़ बटोरते हैं वो
मकरंद से दिन
पूछते हुए कि
तुम कहाँ हो ?
दिखते नहीं ,पर फिर भी
रहते हो आस पास
खुशबू की तरह
मन बगिया में
डॉ सरस्वती माथुर
"तुम
कहाँ हो ?"
नदी की कलकल सी
बहती हुई उतरती हूँ
पहाड़ों से
ढूंढती हूँ तुम्हे
हवाओं में
पूछती हूँ
राह में मिले
हर मौसम से कि
तुम कहाँ हो?
ओस में नहाते फूलों पे
कभी जब छलक आते हो
तो दिखते हो तुम
कभी कोयल की
गूँज में कूकते हो
कभी अमराई में भी
पंछी से चह्कते, डोलते हो
कभी मेरे मन क़ी
यादों में आ महकते हो
जाने क्यूँ
यह तुम्हारी याद
आज भी मेरे जीवन से
वैसे ही लिपटी है
जैसे सांप
लिपट जाता है
रातरानी से और
लहरें उमड़ आती है
हिचकोले खाती
मन पानी पे !
डॉ सरस्वती माथुर
नदी की कलकल सी
बहती हुई उतरती हूँ
पहाड़ों से
ढूंढती हूँ तुम्हे
हवाओं में
पूछती हूँ
राह में मिले
हर मौसम से कि
तुम कहाँ हो?
ओस में नहाते फूलों पे
कभी जब छलक आते हो
तो दिखते हो तुम
कभी कोयल की
गूँज में कूकते हो
कभी अमराई में भी
पंछी से चह्कते, डोलते हो
कभी मेरे मन क़ी
यादों में आ महकते हो
जाने क्यूँ
यह तुम्हारी याद
आज भी मेरे जीवन से
वैसे ही लिपटी है
जैसे सांप
लिपट जाता है
रातरानी से और
लहरें उमड़ आती है
हिचकोले खाती
मन पानी पे !
डॉ सरस्वती माथुर
तलाश कर
प्रेम के बीज
एक गुलशन
उगाना चाहती हूँ
बंज़र भूमि को
उर्वर बनाना चाहती हूँ
सृज़न के हर क्रम में
'जागृति लाना चाहती हूँ
रिश्तों की
अनुभूतियों को
आस्था विश्वास के
प्रस्तरों से पुख्ता
बनाना चाहती हूँ
जग से मिटाने को
भ्रष्टाचार -आतंक
भुखमरी -गरीबी
मैं नया परचम
फैलाना चाहती हूँ
सदभाव भरे मैं
नए गीत गाना
चाहती हूँ ....
मैं नए गीत
गाना चाहती हूँ...
मैं नए गीत
गाना चाहती हूँ ....!
डॉ सरस्वती माथुर
प्रेम के बीज
एक गुलशन
उगाना चाहती हूँ
बंज़र भूमि को
उर्वर बनाना चाहती हूँ
सृज़न के हर क्रम में
'जागृति लाना चाहती हूँ
रिश्तों की
अनुभूतियों को
आस्था विश्वास के
प्रस्तरों से पुख्ता
बनाना चाहती हूँ
जग से मिटाने को
भ्रष्टाचार -आतंक
भुखमरी -गरीबी
मैं नया परचम
फैलाना चाहती हूँ
सदभाव भरे मैं
नए गीत गाना
चाहती हूँ ....
मैं नए गीत
गाना चाहती हूँ...
मैं नए गीत
गाना चाहती हूँ ....!
डॉ सरस्वती माथुर
"एक बीज की तलाश !"
मन बगिया में
तलाश किया
रोपने को
एक बीज
जो नींद माटी में
उगाते हैं ख्वाब
जो फूल से
उगते हैं
जो गान हैं
कोयल के
जो बहते हैं
कलकल
सरिता से
जो जल कर
अगरबती से
मन मह्कातें हैं
फिर पंछी की तरह
आकाश पर
उड़ जाते हैं और
भोर की
जादुई ताजगी तक
बन सितारे
जीवन में
जग्मागाते हैं
डॉ सरस्वती माथुर
मन बगिया में
तलाश किया
रोपने को
एक बीज
जो नींद माटी में
उगाते हैं ख्वाब
जो फूल से
उगते हैं
जो गान हैं
कोयल के
जो बहते हैं
कलकल
सरिता से
जो जल कर
अगरबती से
मन मह्कातें हैं
फिर पंछी की तरह
आकाश पर
उड़ जाते हैं और
भोर की
जादुई ताजगी तक
बन सितारे
जीवन में
जग्मागाते हैं
डॉ सरस्वती माथुर
"एक बीज की तलाश !"
रिश्तों के
बीज लगा
आज तलाशे
तरु आशाओं के
तृण तृण जोड़
नीड बनायेँ
नवजीवन के
फूल खिलायें
फिर बोयें
ढाई आखर के बीज
फैंक धूप की धाराएँ
नया आकाश बनाये और
एक सूरज बन
किरणों से
बिखर धरा पर
छा जाएँ !
डॉ सरस्वती माथुर
रिश्तों के
बीज लगा
आज तलाशे
तरु आशाओं के
तृण तृण जोड़
नीड बनायेँ
नवजीवन के
फूल खिलायें
फिर बोयें
ढाई आखर के बीज
फैंक धूप की धाराएँ
नया आकाश बनाये और
एक सूरज बन
किरणों से
बिखर धरा पर
छा जाएँ !
डॉ सरस्वती माथुर
"जीवन चक्र का अभिमन्यु !"
चक्रव्यूह सा
जीवन चक्र था
सुख दुःख के
पहरेदार खड़े थे
अंदर की
खामोशियों में
दांव पेच बहुत बड़े थे
मन का अभिमन्यु
चुप शांत खड़ा था
रहस्य में लिपटी
पतझर सी बिखरी
पत्तों सी विकलता
चहुँ ओर पड़ी थी
बंधक से
संवाद जड़े थे
अंधी बहरी व्यस्थाएं थी
पर घुसना था उस
वीहड़ पड़े
मौन वर्तमान में
तोड़ना था मन के
अभिमन्यू को
अनबोली चट्टानों के
रेगिस्तान में
ढूँढना था
चक्रव्यूह का द्वार ताकि
पी सकें कालिख सा
अंधियारा
और उगा सकें
डाल डाल पर मन की
दुनिया में खिले
सुमन सा उजियारा
बना जीवन को
एक मधुबन !
डॉ सरस्वती माथुर
चक्रव्यूह सा
जीवन चक्र था
सुख दुःख के
पहरेदार खड़े थे
अंदर की
खामोशियों में
दांव पेच बहुत बड़े थे
मन का अभिमन्यु
चुप शांत खड़ा था
रहस्य में लिपटी
पतझर सी बिखरी
पत्तों सी विकलता
चहुँ ओर पड़ी थी
बंधक से
संवाद जड़े थे
अंधी बहरी व्यस्थाएं थी
पर घुसना था उस
वीहड़ पड़े
मौन वर्तमान में
तोड़ना था मन के
अभिमन्यू को
अनबोली चट्टानों के
रेगिस्तान में
ढूँढना था
चक्रव्यूह का द्वार ताकि
पी सकें कालिख सा
अंधियारा
और उगा सकें
डाल डाल पर मन की
दुनिया में खिले
सुमन सा उजियारा
बना जीवन को
एक मधुबन !
डॉ सरस्वती माथुर
जीवन चक्र!"
जीवन चक्र
एक लम्बे साये सा
आगे की तरफ था
पीछे पीछे भागी उसे
पकड़ कर बाँधने को
लेकिन धूप की तरह
हाथ न आया और
अंत में में मेरे मन के
अभिमन्यु ने सुझाया
तुम इसे छोड़ दो
मान मृगतृष्णा
क्योंकि साया नहीं देता
किसी का साथ
यह तो ओढाता है
आपको नकाब
बात समझ आई तो
साये को मैंने
पीठ दिखाई
पीछे देखा
चकित हुई थी
देख कर कि
वो परछाई मेरे
पीछे पीछे आ रही थी
मेरे साथ चल रही थी
पर मैं अब उसकी
पकड़ से दूर थी बस
थोड़ी सी हैरान थी!
डॉ सरस्वती माथुर "
"जीवन चक्र का अभिमन्यु !"
चक्रव्यूह सा
जीवन चक्र था
सुख दुःख के
पहरेदार खड़े थे
अंदर की
खामोशियों में
दांव पेच बहुत बड़े थे
मन का अभिमन्यु
चुप शांत खड़ा था
रहस्य में लिपटी
पतझर सी बिखरी
पत्तों सी विकलता
चहुँ ओर पड़ी थी
बंधक से
संवाद जड़े थे
अंधी बहरी व्यस्थाएं थी
पर घुसना था उस
वीहड़ पड़े
मौन वर्तमान में
तोड़ना था मन के
अभिमन्यू को
अनबोली चट्टानों के
रेगिस्तान में
ढूँढना था
चक्रव्यूह का द्वार ताकि
पी सकें कालिख सा
अंधियारा
और उगा सकें
डाल डाल पर मन की
दुनिया में खिले
सुमन सा उजियारा
बना जीवन को
एक मधुबन !
डॉ सरस्वती माथुर
जीवन चक्र
एक लम्बे साये सा
आगे की तरफ था
पीछे पीछे भागी उसे
पकड़ कर बाँधने को
लेकिन धूप की तरह
हाथ न आया और
अंत में में मेरे मन के
अभिमन्यु ने सुझाया
तुम इसे छोड़ दो
मान मृगतृष्णा
क्योंकि साया नहीं देता
किसी का साथ
यह तो ओढाता है
आपको नकाब
बात समझ आई तो
साये को मैंने
पीठ दिखाई
पीछे देखा
चकित हुई थी
देख कर कि
वो परछाई मेरे
पीछे पीछे आ रही थी
मेरे साथ चल रही थी
पर मैं अब उसकी
पकड़ से दूर थी बस
थोड़ी सी हैरान थी!
डॉ सरस्वती माथुर "
"जीवन चक्र का अभिमन्यु !"
चक्रव्यूह सा
जीवन चक्र था
सुख दुःख के
पहरेदार खड़े थे
अंदर की
खामोशियों में
दांव पेच बहुत बड़े थे
मन का अभिमन्यु
चुप शांत खड़ा था
रहस्य में लिपटी
पतझर सी बिखरी
पत्तों सी विकलता
चहुँ ओर पड़ी थी
बंधक से
संवाद जड़े थे
अंधी बहरी व्यस्थाएं थी
पर घुसना था उस
वीहड़ पड़े
मौन वर्तमान में
तोड़ना था मन के
अभिमन्यू को
अनबोली चट्टानों के
रेगिस्तान में
ढूँढना था
चक्रव्यूह का द्वार ताकि
पी सकें कालिख सा
अंधियारा
और उगा सकें
डाल डाल पर मन की
दुनिया में खिले
सुमन सा उजियारा
बना जीवन को
एक मधुबन !
डॉ सरस्वती माथुर
जीवन चक्र में !"
दुःख सुख से
डरती नहीं
नदी की धार हूँ
तेल डूबी बाती हूँ
बस अँधेरा
करने को दूर
दीपक का आधार हूँ
नाव् सी हूँ
जर्जर होकर भी
दरिया पार हूँ
गूंगी हूँ पर
शब्दों को जो पिरो दे
रिश्तों में ऐसा
मैं तार हूँ
जीवन चक्र में
अभिमन्यु का
एक अवतार हूँ
!डॉ सरस्वती माथुर
दुःख सुख से
डरती नहीं
नदी की धार हूँ
तेल डूबी बाती हूँ
बस अँधेरा
करने को दूर
दीपक का आधार हूँ
नाव् सी हूँ
जर्जर होकर भी
दरिया पार हूँ
गूंगी हूँ पर
शब्दों को जो पिरो दे
रिश्तों में ऐसा
मैं तार हूँ
जीवन चक्र में
अभिमन्यु का
एक अवतार हूँ
!डॉ सरस्वती माथुर
"जीवन चक्र!"
जीवन चक्र
एक लम्बे साये सा
आगे की तरफ था
पीछे पीछे भागी उसे
पकड़ कर बाँधने को
लेकिन धूप की तरह
हाथ न आया और
अंत में में मेरे मन के
अभिमन्यु ने सुझाया
तुम इसे छोड़ दो
मान मृगतृष्णा
क्योंकि साया नहीं देता
किसी का साथ
यह तो ओढाता है
आपको नकाब
बात समझ आई तो
साये को मैंने
पीठ दिखाई
पीछे देखा
चकित हुई थी
देख कर कि
वो परछाई मेरे
पीछे पीछे आ रही थी
मेरे साथ चल रही थी
पर मैं अब उसकी
पकड़ से दूर थी बस
थोड़ी सी हैरान थी!
डॉ सरस्वती माथुर
जीवन चक्र
एक लम्बे साये सा
आगे की तरफ था
पीछे पीछे भागी उसे
पकड़ कर बाँधने को
लेकिन धूप की तरह
हाथ न आया और
अंत में में मेरे मन के
अभिमन्यु ने सुझाया
तुम इसे छोड़ दो
मान मृगतृष्णा
क्योंकि साया नहीं देता
किसी का साथ
यह तो ओढाता है
आपको नकाब
बात समझ आई तो
साये को मैंने
पीठ दिखाई
पीछे देखा
चकित हुई थी
देख कर कि
वो परछाई मेरे
पीछे पीछे आ रही थी
मेरे साथ चल रही थी
पर मैं अब उसकी
पकड़ से दूर थी बस
थोड़ी सी हैरान थी!
डॉ सरस्वती माथुर
Mathur
"मेरी
उड़ान!"
तन की भूख तो
मिट जाएगी रोटी से
मन की भूख के लिए
माँ भेजो न
मुझे भी तो
पढने पाठशाला
भाई तो गया स्कूल
मुझे सोंपें तुमने
घर के काम
यह है तुम्हारी
भारी भूल
मैं भी तो हूँ माई
तुम्हारी जाई फिर यह
असमानता क्यूँ ?
मुझे भी दो न तुम
जीने का हक़
क्यों है तुम्हे
मेरी क्षमताओं पे शक
मुझे नहीं रहना
बन कर अबला
बनने दो न मुझे
तुम एक सबला
मेरी आँखों की
चमक तो देखो
मेरे मन की
उमंग भी देखो
जरा तो समझो की
मेरी निगाहें
भविष्य पे हैं
तुम मेरा साथ तो दो
मेरे हाथों में
हाथ तो दो
फिर देखना
मेरी उड़ान
बन जाएगी
तुम्हारी भी पहचान
और मैं ही करुँगी पूरे
तुम्हारे सपने
तुम्हारे दबे
सारे अरमान
उसी इंतज़ार में
टकटकी लगाये हूँ
इस आस के साथ की
वो समय भी जल्द आएगा
जब लिंग भेद
जड़ से मिट जाएगा !
डॉ सरस्वती माथुर
तन की भूख तो
मिट जाएगी रोटी से
मन की भूख के लिए
माँ भेजो न
मुझे भी तो
पढने पाठशाला
भाई तो गया स्कूल
मुझे सोंपें तुमने
घर के काम
यह है तुम्हारी
भारी भूल
मैं भी तो हूँ माई
तुम्हारी जाई फिर यह
असमानता क्यूँ ?
मुझे भी दो न तुम
जीने का हक़
क्यों है तुम्हे
मेरी क्षमताओं पे शक
मुझे नहीं रहना
बन कर अबला
बनने दो न मुझे
तुम एक सबला
मेरी आँखों की
चमक तो देखो
मेरे मन की
उमंग भी देखो
जरा तो समझो की
मेरी निगाहें
भविष्य पे हैं
तुम मेरा साथ तो दो
मेरे हाथों में
हाथ तो दो
फिर देखना
मेरी उड़ान
बन जाएगी
तुम्हारी भी पहचान
और मैं ही करुँगी पूरे
तुम्हारे सपने
तुम्हारे दबे
सारे अरमान
उसी इंतज़ार में
टकटकी लगाये हूँ
इस आस के साथ की
वो समय भी जल्द आएगा
जब लिंग भेद
जड़ से मिट जाएगा !
डॉ सरस्वती माथुर
पाखी सी उड़ना !"
बच्ची तुम वरदान हो
भारत की पहचान हो
तुम्हारी आँखों की चमक
और होठों की खिली मुस्कान
सभी मजहबों से बड़ी है
तुम्ही गीता, गुरुग्रंथ, बाईबल
और हमारी कुरआन हो
जल्दी वो घडी आएगी
भूख प्यास सब मिट जाएगी
एक नया युग लेके आएगी
आने वाली पीढ़ी की आँखों में
यह सपना उगाना होगा अब
एक नया सूर्य उदित कर
ओ पाखी सी बिटिया
भूख प्यास ही नहीं बल्कि
देखना इस भारत को फिर से
सोने की चिड़िया बनाना होगा
फिर परी के जैसे तुम लगा
सपनो के पंख
उन्मुक्त होकर
देश की मुख्यधारा से जुड़ कर
खुले आसमान में पाखी सी उड़ना
पाखी सी उड़ना
पाखी सी उड़ना ......!
डॉ सरस्वती माथुर
बच्ची तुम वरदान हो
भारत की पहचान हो
तुम्हारी आँखों की चमक
और होठों की खिली मुस्कान
सभी मजहबों से बड़ी है
तुम्ही गीता, गुरुग्रंथ, बाईबल
और हमारी कुरआन हो
जल्दी वो घडी आएगी
भूख प्यास सब मिट जाएगी
एक नया युग लेके आएगी
आने वाली पीढ़ी की आँखों में
यह सपना उगाना होगा अब
एक नया सूर्य उदित कर
ओ पाखी सी बिटिया
भूख प्यास ही नहीं बल्कि
देखना इस भारत को फिर से
सोने की चिड़िया बनाना होगा
फिर परी के जैसे तुम लगा
सपनो के पंख
उन्मुक्त होकर
देश की मुख्यधारा से जुड़ कर
खुले आसमान में पाखी सी उड़ना
पाखी सी उड़ना
पाखी सी उड़ना ......!
डॉ सरस्वती माथुर
"हिंदुस्तान
सी खड़ी थी !"
तू देश आँगन की फुलवारी
मुझे लगी बहुत प्यारी
मैं जा रही थी मंदिर
जाना हुआ भारी
बीच सड़क पर
तू हिन्दुस्तान सी खड़ी थी
तुझे देख मेरी आँखें थीं भरी
मैंने पकडाया अपना लंच पैकेट तुझे
तब भी तू भोंचक्की थी
पेट की भूख तेरी आँखों में
चमक रही थी लेकिन तेरी निगाहें
उस पथ पर जड़ी थी जहाँ से
लौट के आती है रोज तेरी माँ
तेरे भूखे भाई बहिन के साथ
तेरे बाल मन को इंतज़ार था
तुझे सच अपनों से कितना प्यार था
तू औचक सी खड़ी थी
लिए हाथ में मेरा दिया खाना
मुझे याद आ रहीं थी कुछ पंक्तियाँ
" फिर किसी रोज चलेंगे ए दोस्त
मस्जिद-मंदिर में पहले भूखा जो ये
बच्चा है उसे कुछ खिला लें हम "
मेरा मन उदास था पर
बच्ची तेरे चेहरे पे गजब
आत्मविश्वास भरा था
तेरी आँखें बोल रही थी कि
एक दिन जरूर आएगा
जब इस हिन्दुस्तान की
तस्वीर भी बदलेगी !
डॉ सरस्वती माथुर
तू देश आँगन की फुलवारी
मुझे लगी बहुत प्यारी
मैं जा रही थी मंदिर
जाना हुआ भारी
बीच सड़क पर
तू हिन्दुस्तान सी खड़ी थी
तुझे देख मेरी आँखें थीं भरी
मैंने पकडाया अपना लंच पैकेट तुझे
तब भी तू भोंचक्की थी
पेट की भूख तेरी आँखों में
चमक रही थी लेकिन तेरी निगाहें
उस पथ पर जड़ी थी जहाँ से
लौट के आती है रोज तेरी माँ
तेरे भूखे भाई बहिन के साथ
तेरे बाल मन को इंतज़ार था
तुझे सच अपनों से कितना प्यार था
तू औचक सी खड़ी थी
लिए हाथ में मेरा दिया खाना
मुझे याद आ रहीं थी कुछ पंक्तियाँ
" फिर किसी रोज चलेंगे ए दोस्त
मस्जिद-मंदिर में पहले भूखा जो ये
बच्चा है उसे कुछ खिला लें हम "
मेरा मन उदास था पर
बच्ची तेरे चेहरे पे गजब
आत्मविश्वास भरा था
तेरी आँखें बोल रही थी कि
एक दिन जरूर आएगा
जब इस हिन्दुस्तान की
तस्वीर भी बदलेगी !
डॉ सरस्वती माथुर
एक अधूरी हसरत के परींडे !"
मन के इतिहास में
जीवन का हर क्षण
नियंता हैं और विरासत में
सौंप गया है प्रारब्ध
जो एक अधूरी
हसरत के परींडे पर
कच्ची मिट्टी के
कुम्भ की तरह रखा है
जीवन के आँगन में
जिसमे अस्मिता की
अलगनी पर
कपड़ों की तरह टंके हैं
भ्रमित आवरण
प्रश्नों के कंगन और
कालखंड की परिधि के
साथ घूमते हैं
आस्था विश्वास और
संवेदना के
दिग्भ्रमित
तदन्तर बंधन !
डॉ सरस्वती माथुर
मन के इतिहास में
जीवन का हर क्षण
नियंता हैं और विरासत में
सौंप गया है प्रारब्ध
जो एक अधूरी
हसरत के परींडे पर
कच्ची मिट्टी के
कुम्भ की तरह रखा है
जीवन के आँगन में
जिसमे अस्मिता की
अलगनी पर
कपड़ों की तरह टंके हैं
भ्रमित आवरण
प्रश्नों के कंगन और
कालखंड की परिधि के
साथ घूमते हैं
आस्था विश्वास और
संवेदना के
दिग्भ्रमित
तदन्तर बंधन !
डॉ सरस्वती माथुर
अधूरी हसरतों को!"
हम कभी कभी
अपनी अधूरी हसरतों को
मन के उड़नखटोले पर
बिठा कर उड़ने देते हैं
भावनाओं के पार
बहती हवाओं के साथ
हसरतें बहती रहती हैं
चाँद तारों वाले
आसमान तक पहुँच
वो बादल बन जातीं हैं,
बूंदों को समेट
वो भारी हो जातीं हैं और
एक दिन एक पाखी बन
धरा पर उतर आती हैं
एक नया नीड बनाने ..
.तभी .समय का लकडहारा
वहां से गुजरता है और
उस तरु का तना
काट कर ले जाता है
हसरतों की रूह उसी में
अटकी रह जाती है ...
लकडहारा बढ़ई को सौंप कर
सिक्के खनखनाता
लौट जाता है ..
बढ़ई बड़ी तन्यमयता से
उस तने पर नक्काशी कर
एक सुंदर राजमहल में
रहने वाली राजकुमारी के लिए
एक साज़ तैयार करता है और
हसरत की रूह
उस साज़ के तारों में
दफ़न हो जाती है
जब भी कभी उदासी से
घिर जाती है
उस साज़ के तारों को
राजकुमारी छेड़ देती है और
कुछ देर तक रूह के आसपास भी
सुकून का संगीत
बज़ एक लोक कथा की तरह
घर आँगन में दोहराया जाता है
कि राजकुमारी के अंदर
एक रूह रहती है जो
उसकी हर इच्छा पूरी करती है ...
अगर सुबह सुबह कोई
दर्शन कर ले राजकुमारी के
मासूम चेहरे के तो
सभी मन्नत पूरी होंगी
बस तभी से
राजमहल के बाहर
भीड़ लगी रहती है .....
कौन है यह रूह
,कहाँ से आई
इस पर वैज्ञानिकों के
शोध चल रहें हैं और
पिंजरे में बंद तोते से
सवाल पूछ जा रहें हैं ..
.कहानी का अंत जाने
कब पूरा होगा यह केवल
वैज्ञानिक ही बता सकेंगे...
तब तक इंतज़ार करें
बस अपनी हसरतों और
खवाबों को पूरा करने की
कोशिश हमेशा जारी रखें !
डॉ सरस्वती माथुर
हम कभी कभी
अपनी अधूरी हसरतों को
मन के उड़नखटोले पर
बिठा कर उड़ने देते हैं
भावनाओं के पार
बहती हवाओं के साथ
हसरतें बहती रहती हैं
चाँद तारों वाले
आसमान तक पहुँच
वो बादल बन जातीं हैं,
बूंदों को समेट
वो भारी हो जातीं हैं और
एक दिन एक पाखी बन
धरा पर उतर आती हैं
एक नया नीड बनाने ..
.तभी .समय का लकडहारा
वहां से गुजरता है और
उस तरु का तना
काट कर ले जाता है
हसरतों की रूह उसी में
अटकी रह जाती है ...
लकडहारा बढ़ई को सौंप कर
सिक्के खनखनाता
लौट जाता है ..
बढ़ई बड़ी तन्यमयता से
उस तने पर नक्काशी कर
एक सुंदर राजमहल में
रहने वाली राजकुमारी के लिए
एक साज़ तैयार करता है और
हसरत की रूह
उस साज़ के तारों में
दफ़न हो जाती है
जब भी कभी उदासी से
घिर जाती है
उस साज़ के तारों को
राजकुमारी छेड़ देती है और
कुछ देर तक रूह के आसपास भी
सुकून का संगीत
बज़ एक लोक कथा की तरह
घर आँगन में दोहराया जाता है
कि राजकुमारी के अंदर
एक रूह रहती है जो
उसकी हर इच्छा पूरी करती है ...
अगर सुबह सुबह कोई
दर्शन कर ले राजकुमारी के
मासूम चेहरे के तो
सभी मन्नत पूरी होंगी
बस तभी से
राजमहल के बाहर
भीड़ लगी रहती है .....
कौन है यह रूह
,कहाँ से आई
इस पर वैज्ञानिकों के
शोध चल रहें हैं और
पिंजरे में बंद तोते से
सवाल पूछ जा रहें हैं ..
.कहानी का अंत जाने
कब पूरा होगा यह केवल
वैज्ञानिक ही बता सकेंगे...
तब तक इंतज़ार करें
बस अपनी हसरतों और
खवाबों को पूरा करने की
कोशिश हमेशा जारी रखें !
डॉ सरस्वती माथुर
Saraswati
Mathur
"अधूरी
हसरतें !"
घुमक्कड़ हो गई
मन की अधूरी हसरतें
खानाबदोश सी घूम रही है
रेगिस्तान की रेत पर
जल ढूंढ़ रही है
सूखती बेल सी
लिपट सपनो के वृक्ष पर
बहती तेज हवा संग
इंतज़ार कर रही है
समय माली का
जो सींच कर फिर
हरा भरा कर देगा उसे
कभी कभी मुझे
नुरानी रूह सी लगती है
यह अधूरी हसरत जो
उड़ती रहती है
मन आसमान पर
पाखी सी बिना
आस छोड़े
ढूंढ़ती रहती है
आशाओं का शरीर
जिसमे प्रवेश पाकर
शायद कर पायेगी
पूरी अपनी
अधूरी हसरतें
तब तक यूँ ही
यायावरी हवा सी
डोलने दो उसे
जीवन के जंगल में
डॉ सरस्वती माथुर
घुमक्कड़ हो गई
मन की अधूरी हसरतें
खानाबदोश सी घूम रही है
रेगिस्तान की रेत पर
जल ढूंढ़ रही है
सूखती बेल सी
लिपट सपनो के वृक्ष पर
बहती तेज हवा संग
इंतज़ार कर रही है
समय माली का
जो सींच कर फिर
हरा भरा कर देगा उसे
कभी कभी मुझे
नुरानी रूह सी लगती है
यह अधूरी हसरत जो
उड़ती रहती है
मन आसमान पर
पाखी सी बिना
आस छोड़े
ढूंढ़ती रहती है
आशाओं का शरीर
जिसमे प्रवेश पाकर
शायद कर पायेगी
पूरी अपनी
अधूरी हसरतें
तब तक यूँ ही
यायावरी हवा सी
डोलने दो उसे
जीवन के जंगल में
डॉ सरस्वती माथुर
Saraswati
Mathur
वे
हसरतें हैं
मेरे सम्मुख
अधूरी हैं अभी पर
जोंक सी मेरे मन पर
चिपक कर पी रहीं हैं
अनुभूतियाँ मेरी
एक तैलया सी
रुक गयी हैं
अधूरी हसरतें
अलबत्ता नदी सी
कलकल अब भी
गाहे बगाहे
मन के एक कोने में
बह रहीं हैं
मेरे अस्तित्व का सागर
एक जलपाखी सा
अब तक तैर रहा है
हसरतों की नाव पर
एक दिन वो परी
सी मेरे उनींदे
सपने में आकर बोली
देखना एक दिन मैं
तुम्हारे लिए सुंदर
स्वर्ग सा संसार रचूँगी
तब तक अपनी अनुभूतियाँ
सीपी में बंद मोती सी रखो
रोज सुबह लहरों की
मुरकियां गिनो जो
बहती है हवा में
मैं जल्द लौटूंगी
उस दिन जब
सूर्य नहीं उगेगा
अजीब लगा मुझे भी
देख रहीं हूँ सूर्य
रोज आ रहा है और
रोज मेरी हसरतों की
रसधार किरणे पीकर
जगमगाता है
मैं फेन की तलछट सी
अब भी बिखरी हूँ
इंतज़ार के
खामोश तट पर
मोती निकली खाली
सीपियों के
खोलों के साथ !
डॉ सरस्वती माथुर
मेरे सम्मुख
अधूरी हैं अभी पर
जोंक सी मेरे मन पर
चिपक कर पी रहीं हैं
अनुभूतियाँ मेरी
एक तैलया सी
रुक गयी हैं
अधूरी हसरतें
अलबत्ता नदी सी
कलकल अब भी
गाहे बगाहे
मन के एक कोने में
बह रहीं हैं
मेरे अस्तित्व का सागर
एक जलपाखी सा
अब तक तैर रहा है
हसरतों की नाव पर
एक दिन वो परी
सी मेरे उनींदे
सपने में आकर बोली
देखना एक दिन मैं
तुम्हारे लिए सुंदर
स्वर्ग सा संसार रचूँगी
तब तक अपनी अनुभूतियाँ
सीपी में बंद मोती सी रखो
रोज सुबह लहरों की
मुरकियां गिनो जो
बहती है हवा में
मैं जल्द लौटूंगी
उस दिन जब
सूर्य नहीं उगेगा
अजीब लगा मुझे भी
देख रहीं हूँ सूर्य
रोज आ रहा है और
रोज मेरी हसरतों की
रसधार किरणे पीकर
जगमगाता है
मैं फेन की तलछट सी
अब भी बिखरी हूँ
इंतज़ार के
खामोश तट पर
मोती निकली खाली
सीपियों के
खोलों के साथ !
डॉ सरस्वती माथुर
तांका :अमन हमें प्यारा
1
सत्य- अहिंसा
प्रेम सुधा बरसा
मातृभूमि में
लहराया है झंडा
अमन हमें प्यारा
2
विश्व भर में
तिरंगा- एकता का
देता सन्देश
सदभाव सिखाये
प्रेम के पथ पर
३
शांत धरा सा
भारत देश प्यारा
शहीद हुए
कुर्बान देश पर
दिला आजादी
४
पुष्प चढ़ाऊँ
आजादी पर्व पर
एकता पिरो
गूंथ मोती की माला
मेरा देश निराला
५
कोशिश करें
प्यार की सुगंध से
मिलजुल के
देश को महकाए
सदभाव सिखाएं
डॉ सरस्वती माथुर
1
सत्य- अहिंसा
प्रेम सुधा बरसा
मातृभूमि में
लहराया है झंडा
अमन हमें प्यारा
2
विश्व भर में
तिरंगा- एकता का
देता सन्देश
सदभाव सिखाये
प्रेम के पथ पर
३
शांत धरा सा
भारत देश प्यारा
शहीद हुए
कुर्बान देश पर
दिला आजादी
४
पुष्प चढ़ाऊँ
आजादी पर्व पर
एकता पिरो
गूंथ मोती की माला
मेरा देश निराला
५
कोशिश करें
प्यार की सुगंध से
मिलजुल के
देश को महकाए
सदभाव सिखाएं
डॉ सरस्वती माथुर
देश के साथ यात्रा
आओ मेरे देश
एक दीप की तरह
ज्योतित होकर
साथ चलो मेरे क्योंकि
कोई इंतज़ार नहीं करता
तारीखों के ठहर जाने का
हम साथ होंगे तो
देश के लिए
इतिहास बनायेंगे
जहर का प्याला पीकर
देश के लिए
अमृत जुटाएँगे
फिर मूक हो जाएँगे
ताकि देश गा सके
विश्वास के गीत
आस्था और
सदभाव के गीत
हम चलते चले जायेंगे
दूर की यात्राओं में
साफ़ सुथरी
सुबह की तरह
गुजर जायेंगे
अंधी सुरंग से
रोशनी की हवा लेकर
जरुरत हुई तो
अंधे हो जायेंगे ताकि
देश को नेत्र मिलें
प्रतीक्षा करेंगे
मौत की
देश को जिलाने में
आओ मेरे देश
साथ चलें
एक दीप की तरह
ज्योतित होकर !
डॉ सरस्वती माथुर
16 अगस्त 2012
आओ मेरे देश
एक दीप की तरह
ज्योतित होकर
साथ चलो मेरे क्योंकि
कोई इंतज़ार नहीं करता
तारीखों के ठहर जाने का
हम साथ होंगे तो
देश के लिए
इतिहास बनायेंगे
जहर का प्याला पीकर
देश के लिए
अमृत जुटाएँगे
फिर मूक हो जाएँगे
ताकि देश गा सके
विश्वास के गीत
आस्था और
सदभाव के गीत
हम चलते चले जायेंगे
दूर की यात्राओं में
साफ़ सुथरी
सुबह की तरह
गुजर जायेंगे
अंधी सुरंग से
रोशनी की हवा लेकर
जरुरत हुई तो
अंधे हो जायेंगे ताकि
देश को नेत्र मिलें
प्रतीक्षा करेंगे
मौत की
देश को जिलाने में
आओ मेरे देश
साथ चलें
एक दीप की तरह
ज्योतित होकर !
डॉ सरस्वती माथुर
16 अगस्त 2012
यह देश हमारा!"
भारत है मधुमय प्यारा
मनभावन यह देश हमारा
रंजिस इसकी ख्वाइश नहीं
ईद दिवाली इसकी पहचान
अपनी करे नुमाइश नहीं
एकता समता का यह धाम
घृणा इसकी है रीत नहीं
सद्भावना का है रखवारा
दंगे फसाद से प्रीत नहीं
प्रेमदीप का यह अंगारा
विभिन्नता में एकता का
गाँधी सुभाष नेहरु का देश
करुणा- बंधुता समता का
देता है यह प्रेरक सन्देश
अहिंसा इसकी विचारधारा
देश का पसंद नहीं बंटवारा
डॉ सरस्वती माथुर
\
भारत है मधुमय प्यारा
मनभावन यह देश हमारा
रंजिस इसकी ख्वाइश नहीं
ईद दिवाली इसकी पहचान
अपनी करे नुमाइश नहीं
एकता समता का यह धाम
घृणा इसकी है रीत नहीं
सद्भावना का है रखवारा
दंगे फसाद से प्रीत नहीं
प्रेमदीप का यह अंगारा
विभिन्नता में एकता का
गाँधी सुभाष नेहरु का देश
करुणा- बंधुता समता का
देता है यह प्रेरक सन्देश
अहिंसा इसकी विचारधारा
देश का पसंद नहीं बंटवारा
डॉ सरस्वती माथुर
\
Saraswati
Mathur
"शहीद
की बीबी "
तुम ऐसे गए बीत
जैसे हो इतिहास
सोचा था मैंने कि
हवा की तरह तान लूंगी तुम्हे
लेकिन तुम लौट कर नहीं आये
मैं भी भूल गयी थी कि
तुम तो स्वप्न हो गए हो
अब यथार्थ नहीं रहे
ओ मेरे- सुनो ,
तुम आज भी मेरे लिए अंदाज हो ,
अहसास हो ,मधुमास हो
एक शहीद की बीबी होने का
तुमने दिया है मुझे मान
मुझे नहीं है गम अब
तुम्हे खोने का क्यूंकि
जो मैंने पाया है
वह मेरे लिए एक नियति है
धूप की तरह जिसे बांध कर मैं
आँचल में नही रख रख सकती
पर प्रिय आज मैं
तुमसे कहती हूँ कि
कल सिर्फ तुम मेरे प्राण थे
आज सारे भारत की शान हो
सच प्रिय तुम
कितने महान हो
अमर ज्योति नभ के
चमकते तारे हो
हमारे भारत की
शान हो...
शान हो ....
शान हो ........!
डॉ सरस्वती माथुर
तुम ऐसे गए बीत
जैसे हो इतिहास
सोचा था मैंने कि
हवा की तरह तान लूंगी तुम्हे
लेकिन तुम लौट कर नहीं आये
मैं भी भूल गयी थी कि
तुम तो स्वप्न हो गए हो
अब यथार्थ नहीं रहे
ओ मेरे- सुनो ,
तुम आज भी मेरे लिए अंदाज हो ,
अहसास हो ,मधुमास हो
एक शहीद की बीबी होने का
तुमने दिया है मुझे मान
मुझे नहीं है गम अब
तुम्हे खोने का क्यूंकि
जो मैंने पाया है
वह मेरे लिए एक नियति है
धूप की तरह जिसे बांध कर मैं
आँचल में नही रख रख सकती
पर प्रिय आज मैं
तुमसे कहती हूँ कि
कल सिर्फ तुम मेरे प्राण थे
आज सारे भारत की शान हो
सच प्रिय तुम
कितने महान हो
अमर ज्योति नभ के
चमकते तारे हो
हमारे भारत की
शान हो...
शान हो ....
शान हो ........!
डॉ सरस्वती माथुर
"मधुमय देश !"
देश में सच्चाई का परिवेश रहे
विश्व पटल पे मधुमय देश रहे
विभिन्नता में एकता का यहाँ
तिरंग झंडे में हमेशा सन्देश रहे
...
सद्भावना-समता के रखवारे की
पहचान- अनूठी ऊँची विशेष रहे
देश के बागियों से निपटने का
जन जन में एक सा आवेश रहे
अहिंसा-करुणा की शांत धरा में
वसुधेव कुटुम्बकम का परिवेश रहे
डॉ सरस्वती माथुर
देश में सच्चाई का परिवेश रहे
विश्व पटल पे मधुमय देश रहे
विभिन्नता में एकता का यहाँ
तिरंग झंडे में हमेशा सन्देश रहे
...
सद्भावना-समता के रखवारे की
पहचान- अनूठी ऊँची विशेष रहे
देश के बागियों से निपटने का
जन जन में एक सा आवेश रहे
अहिंसा-करुणा की शांत धरा में
वसुधेव कुटुम्बकम का परिवेश रहे
डॉ सरस्वती माथुर
राष्ट्र ने देखे कुछ सपने
अहिंसा से हों सब अपने
होंसलों की उड़ान भरें तो
नव आकाश लगे दिखने
विश्व भर में रहे न्यारा
एक चमकता यह तारा
द्वेष छोड़ सदभाव् से रहें
प्रेम पथ पर लगें चलने
सद्भावना की चौखट पर
सन्देश लगेगा यही मिलने
डॉ सरस्वती माथुर
"
एक बुजुर्ग !"
अकेलेपन के सूरज को
रुक कर देखता
एक बुजुर्ग
क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं
समय की आराम कुर्सी पर
किताबों को पलटते हुए
रुक कर देखता है
एक बुजुर्ग
उस दरवाजे की ओर
जहाँ से शायद आये
उसका बेटा या बहू ,
बेटी या पोता और
हाथ में हो चश्मा
जिसकी डंडी
बदलवाने के लिए
पिछले महीने वो
जब आये थे तो
यह कह कर ले गए थे कि
कल पहुंचा देंगे
हर आहट पर
चौंकता है एक बुजुर्ग
दरवाजा तो दीखता है पर
बिना चश्मे किताब के अक्षर
देख नहीं पाता
हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित
समय सारिणी के बीच
समय निकाल कर
पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का
हाथ पकड कर
उस इंतज़ार का
हिस्सा जरुर बनता है
डॉ सरस्वती माथुर
अकेलेपन के सूरज को
रुक कर देखता
एक बुजुर्ग
क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं
समय की आराम कुर्सी पर
किताबों को पलटते हुए
रुक कर देखता है
एक बुजुर्ग
उस दरवाजे की ओर
जहाँ से शायद आये
उसका बेटा या बहू ,
बेटी या पोता और
हाथ में हो चश्मा
जिसकी डंडी
बदलवाने के लिए
पिछले महीने वो
जब आये थे तो
यह कह कर ले गए थे कि
कल पहुंचा देंगे
हर आहट पर
चौंकता है एक बुजुर्ग
दरवाजा तो दीखता है पर
बिना चश्मे किताब के अक्षर
देख नहीं पाता
हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित
समय सारिणी के बीच
समय निकाल कर
पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का
हाथ पकड कर
उस इंतज़ार का
हिस्सा जरुर बनता है
डॉ सरस्वती माथुर
"उनकी
मुस्कान !"
और अब वे अपने
अंतिम चरण में थी
,बुजुर्ग जो थीं
उन्हें मालूम था कि
यह नियति है और
वे इंतज़ार में थी
अब देर तक बगीचे में
काम करती हैं
स्कूल से लौटे
पोते पोतियाँ के जूतों से
मिटटी हटा कर खुश होती हैं
उनके धन्यवाद को पूरे दिन
साथ लिए, मुड़े शरीर के साथ
लंगडाते हुए, इधर- उधर घूमती हैं
याद करती हैं ,तालियों की
उन गूंजों को
जो समारोह में उनकी
कविताओं के बाद
देर तक बजती थीं
अपने हमउम्र दोस्तों के साथ
सत्संग में बैठ कर
भजन सुनते हुए सोचती थीं
उन दिनों को
जब घडी की सुइयां
तेज दौडती थीं और
वे उसे रोक लेना चाहती थीं
अब वे अपने कमरे की
खिड़की से दिखते
समुन्द्र को देर तक
निहारते सोचतीं थीं कि
वक्त कहाँ बाढ़ की तरह
बह गया और
यह सूरज भी
कितना कर्मठ है
रोज थक कर
डूबता है और
तरोताजा होकर
उगता है
यह सोचते ही
उनके पूरे शरीर में
सूरज की प्रथम
किरणों की तरह
जीने की उमंग
कसमसाने लगती है और
पूरे दिन एक
मुस्कान की तरह
उनके होंठों पर
तैरती रहतीं है !
डॉ सरस्वती माथुर
और अब वे अपने
अंतिम चरण में थी
,बुजुर्ग जो थीं
उन्हें मालूम था कि
यह नियति है और
वे इंतज़ार में थी
अब देर तक बगीचे में
काम करती हैं
स्कूल से लौटे
पोते पोतियाँ के जूतों से
मिटटी हटा कर खुश होती हैं
उनके धन्यवाद को पूरे दिन
साथ लिए, मुड़े शरीर के साथ
लंगडाते हुए, इधर- उधर घूमती हैं
याद करती हैं ,तालियों की
उन गूंजों को
जो समारोह में उनकी
कविताओं के बाद
देर तक बजती थीं
अपने हमउम्र दोस्तों के साथ
सत्संग में बैठ कर
भजन सुनते हुए सोचती थीं
उन दिनों को
जब घडी की सुइयां
तेज दौडती थीं और
वे उसे रोक लेना चाहती थीं
अब वे अपने कमरे की
खिड़की से दिखते
समुन्द्र को देर तक
निहारते सोचतीं थीं कि
वक्त कहाँ बाढ़ की तरह
बह गया और
यह सूरज भी
कितना कर्मठ है
रोज थक कर
डूबता है और
तरोताजा होकर
उगता है
यह सोचते ही
उनके पूरे शरीर में
सूरज की प्रथम
किरणों की तरह
जीने की उमंग
कसमसाने लगती है और
पूरे दिन एक
मुस्कान की तरह
उनके होंठों पर
तैरती रहतीं है !
डॉ सरस्वती माथुर
एक बुजुर्ग !"
अकेलेपन के सूरज को
रुक कर देखता
एक बुजुर्ग
क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं
समय की आराम कुर्सी पर
किताबों को पलटते हुए
रुक कर देखता है
एक बुजुर्ग
उस दरवाजे की ओर
जहाँ से शायद आये
उसका बेटा या बहू ,
बेटी या पोता और
हाथ में हो चश्मा
जिसकी डंडी
बदलवाने के लिए
पिछले महीने वो
जब आये थे तो
यह कह कर ले गए थे कि
कल पहुंचा देंगे
हर आहट पर
चौंकता है एक बुजुर्ग
दरवाजा तो दीखता है पर
बिना चश्मे किताब के अक्षर
देख नहीं पाता
हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित
समय सारिणी के बीच
समय निकाल कर
पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का
हाथ पकड कर
उस इंतज़ार का
हिस्सा जरुर बनता है
डॉ सरस्वती माथुर
अकेलेपन के सूरज को
रुक कर देखता
एक बुजुर्ग
क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं
समय की आराम कुर्सी पर
किताबों को पलटते हुए
रुक कर देखता है
एक बुजुर्ग
उस दरवाजे की ओर
जहाँ से शायद आये
उसका बेटा या बहू ,
बेटी या पोता और
हाथ में हो चश्मा
जिसकी डंडी
बदलवाने के लिए
पिछले महीने वो
जब आये थे तो
यह कह कर ले गए थे कि
कल पहुंचा देंगे
हर आहट पर
चौंकता है एक बुजुर्ग
दरवाजा तो दीखता है पर
बिना चश्मे किताब के अक्षर
देख नहीं पाता
हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित
समय सारिणी के बीच
समय निकाल कर
पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का
हाथ पकड कर
उस इंतज़ार का
हिस्सा जरुर बनता है
डॉ सरस्वती माथुर
"जीना इसी का नाम है !"
वो इतने बूढ़े थे कि
उनकी हड्डियाँ
उनकी त्वचा में
तैरती थीं
मैं उनमे अपने आपको
डूबता सा महसूस करती थी
वो इतने कमजोर थे
जितने नवजात शिशु के पैर
पर उनकी मुस्कान
इतनी गहरी थी कि
उसमे मैं नदी की सी
कलकल सुनती थी
जो उनके होठों के चारों तरफ
सांसों से गुजरती थी और
वो इतने तैयार थे कि
मुझे समुन्द्र से भी गहरे
गंभीर और अथाह दिखते थे,
सच- मुझे लगता था कि
जीना इसी का नाम है !
डॉ सरस्वती माथुर
वो इतने बूढ़े थे कि
उनकी हड्डियाँ
उनकी त्वचा में
तैरती थीं
मैं उनमे अपने आपको
डूबता सा महसूस करती थी
वो इतने कमजोर थे
जितने नवजात शिशु के पैर
पर उनकी मुस्कान
इतनी गहरी थी कि
उसमे मैं नदी की सी
कलकल सुनती थी
जो उनके होठों के चारों तरफ
सांसों से गुजरती थी और
वो इतने तैयार थे कि
मुझे समुन्द्र से भी गहरे
गंभीर और अथाह दिखते थे,
सच- मुझे लगता था कि
जीना इसी का नाम है !
डॉ सरस्वती माथुर
मन को जोड़ा
घोल के मधुरस
राखी आई
आशीष देता भैया
बहिन ले बलैया ! डॉ सरस्वती माथुर
घोल के मधुरस
राखी आई
आशीष देता भैया
बहिन ले बलैया ! डॉ सरस्वती माथुर
Saraswati
Mathur
"
रेशम की डोर !"
राखी पर्व पे
भाई करें मनुहार
आ री बहना
खींचें हैं बहिन को
भाई का प्यार
मखमली से धागे
बहिन बांधे
भाई की कलाई पे
तो बंधें मन
आशीर्वाद दे भाई
भीगी आँखों से
खुश रह बहना
बहिन कहे
आ तिलक लगा दूं
लेके बलैया भैया !
डॉ सरस्वती माथुर........................
राखी पर्व पे
भाई करें मनुहार
आ री बहना
खींचें हैं बहिन को
भाई का प्यार
मखमली से धागे
बहिन बांधे
भाई की कलाई पे
तो बंधें मन
आशीर्वाद दे भाई
भीगी आँखों से
खुश रह बहना
बहिन कहे
आ तिलक लगा दूं
लेके बलैया भैया !
डॉ सरस्वती माथुर........................
बन चिड़िया
मन मुंडेर
उतर आई बहना
बांधा हाथ में
रक्षा का धागा
भाई का तो
वो है गहना
भाई बहिन के बीच
सेतु सी यह
डोर भुला देती है
सारे अनबन
मन हो जाता
है मधुबन
स्नेह का होता है
बंधन ख़ास
मन को देता यह आभास
कभी नहीं होती बहना भार
पर्व का सन्देश भी यही
राखी तो होता
मिश्री मिठास भरा
भाई बहिन का त्यौहार
डॉ सरस्वती माथुर
मन मुंडेर
उतर आई बहना
बांधा हाथ में
रक्षा का धागा
भाई का तो
वो है गहना
भाई बहिन के बीच
सेतु सी यह
डोर भुला देती है
सारे अनबन
मन हो जाता
है मधुबन
स्नेह का होता है
बंधन ख़ास
मन को देता यह आभास
कभी नहीं होती बहना भार
पर्व का सन्देश भी यही
राखी तो होता
मिश्री मिठास भरा
भाई बहिन का त्यौहार
डॉ सरस्वती माथुर
Saraswati
Mathur
"मन
राखी पर!"
भरा भरा हो ज़ाता है
बहिन का मन राखी पर
भाई भी भावों में बह ज़ाता है
इस मिठास भरे पर्व पर
सावन आते ह़ी नदिया सी
बहने लगती हैं बहने
भाई भी लहरों सा
कलकल करता है
रेशम डोर पहन कर
दोनों का दिल
मचलता है मिलने को
यह होता है स्नेहिल
प्यारा बंधन
भाई गाता है गीत तो
बहने होती हैं सरगम
भाई खिलता है फूल सा
बहिन हो जाती है
इन्द्रधनुषी रँग
दोनों ह़ी स्नेह का यह
उत्सव मनाना
चाहते हैं संग- संग
डॉ सरस्वती माथुर
भरा भरा हो ज़ाता है
बहिन का मन राखी पर
भाई भी भावों में बह ज़ाता है
इस मिठास भरे पर्व पर
सावन आते ह़ी नदिया सी
बहने लगती हैं बहने
भाई भी लहरों सा
कलकल करता है
रेशम डोर पहन कर
दोनों का दिल
मचलता है मिलने को
यह होता है स्नेहिल
प्यारा बंधन
भाई गाता है गीत तो
बहने होती हैं सरगम
भाई खिलता है फूल सा
बहिन हो जाती है
इन्द्रधनुषी रँग
दोनों ह़ी स्नेह का यह
उत्सव मनाना
चाहते हैं संग- संग
डॉ सरस्वती माथुर
Saraswati
Mathur
चौका
" रेशम की डोर !"
राखी पर्व पे
भाई करें मनुहार
आ री बहना
खींचें हैं बहिन को
भाई का प्यार
मखमली से धागे
बहिन बांधे
भाई की कलाई पे
तो बंधें मन
आशीर्वाद दे भाई
भीगी आँखों से
खुश रह बहना
बहिन कहे
आ तिलक लगा दूं
लेके बलैया भैया !
डॉ सरस्वती माथुर
दिल जुड़ेगा
राखी के स्नेह तार
निरखे भैया
बाँधती बहिन तो
रसपगे तारों से
3
भाव पावन
रसपगा सावन
बँधेगा मन
स्नेह बरसा कर
राखी के पर्व पर
4
अनुभूति से
आस्था के पर्व पर
भाई- बहिन
रसधार में भीगे
डॉ सरस्वती माथुर
दिल जुड़ेगा
राखी के स्नेह तार
निरखे भैया
बाँधती बहिन तो
रसपगे तारों से
3
भाव पावन
रसपगा सावन
बँधेगा मन
स्नेह बरसा कर
राखी के पर्व पर
4
अनुभूति से
आस्था के पर्व पर
भाई- बहिन
रसधार में भीगे
राखी त्योहार पर
5
भाई के नैन
सात सागर पार
राखी पर्व पे
भर- नीर बहाए
बहना याद आये...............................
" रेशम की डोर !"
राखी पर्व पे
भाई करें मनुहार
आ री बहना
खींचें हैं बहिन को
भाई का प्यार
मखमली से धागे
बहिन बांधे
भाई की कलाई पे
तो बंधें मन
आशीर्वाद दे भाई
भीगी आँखों से
खुश रह बहना
बहिन कहे
आ तिलक लगा दूं
लेके बलैया भैया !
डॉ सरस्वती माथुर
दिल जुड़ेगा
राखी के स्नेह तार
निरखे भैया
बाँधती बहिन तो
रसपगे तारों से
3
भाव पावन
रसपगा सावन
बँधेगा मन
स्नेह बरसा कर
राखी के पर्व पर
4
अनुभूति से
आस्था के पर्व पर
भाई- बहिन
रसधार में भीगे
डॉ सरस्वती माथुर
दिल जुड़ेगा
राखी के स्नेह तार
निरखे भैया
बाँधती बहिन तो
रसपगे तारों से
3
भाव पावन
रसपगा सावन
बँधेगा मन
स्नेह बरसा कर
राखी के पर्व पर
4
अनुभूति से
आस्था के पर्व पर
भाई- बहिन
रसधार में भीगे
राखी त्योहार पर
5
भाई के नैन
सात सागर पार
राखी पर्व पे
भर- नीर बहाए
बहना याद आये...............................
.. "ओ
शाम !"
ओ बासंती शाम
बहुत दिनों से
देख रही हूँ
ठंडी हवा के झोंके
तुम्हे उदास कर जाते हैं
और तुम पाखी सी
दिशाओं के आर पार
डोलती हो मौसम की
कतरने बिनती हो
अतीत की तरह
फैले संसार में
मेह ,शरद
.हेमंत ,बसंत की
ज्यामिती में
भीगी ऋतुओं से
रेखाएं खींचती हो
ऐसा लगता है मानों
पूछ रही हों
श्वेतपांखी सुबह से कि
जीवन की इस
अनोखी राह पर
यह कैसा लम्बा सफ़र है
दोस्तों ,कभी चहचहाता
दिन आता है
कभी मौन रात
ओ शाम
बासंती शाम
हाशियों में पड़ा
तुम्हारा सवाल
अनुतरित सा
मुझे कह जाता है कि
किनारा समझ कर
मौसम ने
बांधी है कश्ती
जहाँ वे सब तो
मझधारे हैं
और हम तुम तो
सुनो मौसम
घर बसा कर भी
बंजारे हैं !
डॉ सरस्वती माथुर
ओ बासंती शाम
बहुत दिनों से
देख रही हूँ
ठंडी हवा के झोंके
तुम्हे उदास कर जाते हैं
और तुम पाखी सी
दिशाओं के आर पार
डोलती हो मौसम की
कतरने बिनती हो
अतीत की तरह
फैले संसार में
मेह ,शरद
.हेमंत ,बसंत की
ज्यामिती में
भीगी ऋतुओं से
रेखाएं खींचती हो
ऐसा लगता है मानों
पूछ रही हों
श्वेतपांखी सुबह से कि
जीवन की इस
अनोखी राह पर
यह कैसा लम्बा सफ़र है
दोस्तों ,कभी चहचहाता
दिन आता है
कभी मौन रात
ओ शाम
बासंती शाम
हाशियों में पड़ा
तुम्हारा सवाल
अनुतरित सा
मुझे कह जाता है कि
किनारा समझ कर
मौसम ने
बांधी है कश्ती
जहाँ वे सब तो
मझधारे हैं
और हम तुम तो
सुनो मौसम
घर बसा कर भी
बंजारे हैं !
डॉ सरस्वती माथुर
"श्यामल परी सी शाम
!"
घिर आई हो
झुरमुटी शाम तुम
चह्चहाती
पाखी बन
विहंसती सी
उतरी हो
मेरे मन की
मुंडेर पर तो देखो न
सिन्दूरी यादों के साथ
फिर अंकुरित हो गएँ हैं
वो भीगे भीगे से दिन
जब मैं अपने
घर की छत पर बैठ कर
तुम्हे देखा करती थी
तुम चंचल हिरनी सी
डोलती थीं, देखती थी मैं
तुम्हारे रंग बदलते साए
देखा करती थी
तुम्हे कभी
पहाड़ों से उतरते
कभी दरख्तों पर सोते
कभी नीड़ में दुबके
परिंदों से बतियाते
कभी झील में उतरते
कभी समुन्द्र की
लहरों संग टहलते तो
कभी नदी की
गति के संग
तेज दौड़ते
तुम्हारी वो
रंग बदलती
ढली धूप के साए भी
पवन झोंकों पर चढ़
आसमान पर
चढ़ जाते थे और
सूर्य के नारंगी
सात घोड़े वाले रथ को
धकियाते समुन्द्र तक
छोड़ने जाते थे
मैं भी आकंठ
डूब जाती थी
मुझे तुम्हारी किरणों की
आदत थी और
अब मैं जहाँ हूँ
वहां से भी देखती हूँ तुम्हे
लेकिन अब तुम
बदली सी लगती हो
जाने क्यूँ थकी सी
उतरती हो
मेरी मन मुंडेर पर
बिखरी रुपहली
रश्मियों से लिपटी
धरती आकाश के बीच
श्यामल परी सी !
डॉ सरस्वती माथुर
घिर आई हो
झुरमुटी शाम तुम
चह्चहाती
पाखी बन
विहंसती सी
उतरी हो
मेरे मन की
मुंडेर पर तो देखो न
सिन्दूरी यादों के साथ
फिर अंकुरित हो गएँ हैं
वो भीगे भीगे से दिन
जब मैं अपने
घर की छत पर बैठ कर
तुम्हे देखा करती थी
तुम चंचल हिरनी सी
डोलती थीं, देखती थी मैं
तुम्हारे रंग बदलते साए
देखा करती थी
तुम्हे कभी
पहाड़ों से उतरते
कभी दरख्तों पर सोते
कभी नीड़ में दुबके
परिंदों से बतियाते
कभी झील में उतरते
कभी समुन्द्र की
लहरों संग टहलते तो
कभी नदी की
गति के संग
तेज दौड़ते
तुम्हारी वो
रंग बदलती
ढली धूप के साए भी
पवन झोंकों पर चढ़
आसमान पर
चढ़ जाते थे और
सूर्य के नारंगी
सात घोड़े वाले रथ को
धकियाते समुन्द्र तक
छोड़ने जाते थे
मैं भी आकंठ
डूब जाती थी
मुझे तुम्हारी किरणों की
आदत थी और
अब मैं जहाँ हूँ
वहां से भी देखती हूँ तुम्हे
लेकिन अब तुम
बदली सी लगती हो
जाने क्यूँ थकी सी
उतरती हो
मेरी मन मुंडेर पर
बिखरी रुपहली
रश्मियों से लिपटी
धरती आकाश के बीच
श्यामल परी सी !
डॉ सरस्वती माथुर
........
मेघ पाखी संग
देर तक उडूँगी
सजा कर
सावन भीगी शाम
लहरों सी उठूंगी
फिर यादों के तटों पर
फेन सी बिखरूंगी
ओक भर रेत
जब मुझे पी लेगी
तब रिमझिम
बरसते जल के साथ
वापस सागर में
जा मिलूंगी
फिर बैठ कर
शाम के साथ
खारा जाम
तुम्हारी याद की
मिठास भर पिऊँगी और
तुम्हारे नाम कर दूँगी
ये खुबसूरत शाम
फिर डूब जाउंगी
सूर्य सी
बीती यादों संग
हाँ, जलपाखी से
तुम- यहीं रहना
शाम के सायों में
मेरे संग -बस मेरे संग !
डॉ सरस्वती माथुर
देर तक उडूँगी
सजा कर
सावन भीगी शाम
लहरों सी उठूंगी
फिर यादों के तटों पर
फेन सी बिखरूंगी
ओक भर रेत
जब मुझे पी लेगी
तब रिमझिम
बरसते जल के साथ
वापस सागर में
जा मिलूंगी
फिर बैठ कर
शाम के साथ
खारा जाम
तुम्हारी याद की
मिठास भर पिऊँगी और
तुम्हारे नाम कर दूँगी
ये खुबसूरत शाम
फिर डूब जाउंगी
सूर्य सी
बीती यादों संग
हाँ, जलपाखी से
तुम- यहीं रहना
शाम के सायों में
मेरे संग -बस मेरे संग !
डॉ सरस्वती माथुर
"सवेरे की चौखट पर!
"आज भी
शाम को रोक कर
सूरज को मैंने
छिपा लिया था
मन के सागर में और
घुले सूरज से
लाल हुए पानी में
देर तक पैर डुबो
बैठी- देखती रही
घर लौटते
पाखियों को
यह देखना भी
अपने आप में एक
अहसास था
अपने आप से
संवाद करते हुए
मैंने देखा कि
उदास सा चाँद
चांदनी संग
नभ कंगूरे पर
जुगनू सा
चमक रहा था
सितारों वाली
चुन्नी ओढ़
चांदनी भी
ठोड़ी पे हाथ रखे
टिमटिमाती ढिबरी सी
नभ चौरे पर खड़ी
कुछ सोच रही थी
तभी सागर के ठहाके से
चौंक उठी थी मैं
भौंचक औचक सी
जागी, अरे ...
पांखियों के कलरव को
एक दिशा दिखाता
श्वेत परिधान पहने
किरणों से
घिरा सूर्य
सवेरे की चौखट पर
मुस्कराता खड़ा था
मानो मुझ से
पूछ रहा हो
क्या कोई
सुंदर सपना
देख रही थीं ?
डॉ सरस्वती माथुर
"आज भी
शाम को रोक कर
सूरज को मैंने
छिपा लिया था
मन के सागर में और
घुले सूरज से
लाल हुए पानी में
देर तक पैर डुबो
बैठी- देखती रही
घर लौटते
पाखियों को
यह देखना भी
अपने आप में एक
अहसास था
अपने आप से
संवाद करते हुए
मैंने देखा कि
उदास सा चाँद
चांदनी संग
नभ कंगूरे पर
जुगनू सा
चमक रहा था
सितारों वाली
चुन्नी ओढ़
चांदनी भी
ठोड़ी पे हाथ रखे
टिमटिमाती ढिबरी सी
नभ चौरे पर खड़ी
कुछ सोच रही थी
तभी सागर के ठहाके से
चौंक उठी थी मैं
भौंचक औचक सी
जागी, अरे ...
पांखियों के कलरव को
एक दिशा दिखाता
श्वेत परिधान पहने
किरणों से
घिरा सूर्य
सवेरे की चौखट पर
मुस्कराता खड़ा था
मानो मुझ से
पूछ रहा हो
क्या कोई
सुंदर सपना
देख रही थीं ?
डॉ सरस्वती माथुर
.....................................................................
इन्द्र की स्तुति करते
थक गए हैं लोग और
कुछ उगा रहे हैं चंदे
...
अकाल के नाम पर
विकास का पहिया
खेतों की खुशहाली के
पास अटका है
पपड़ाई जमीन पर
गड़ी है पथराई आँखें
प्यासी फसलें लिख रही हैं
भूख और
लाचारी का इतिहास
बादलों की गरज पर
चमक उठती है
सूखी आँखे
फडफड़ा उठती हैं
स्वाति बूँद की
आस में
चातक की पांखें
चौपाल पर
हुक्का गुडगुडाते
बुजुर्ग निहारते हैं
इधर से उधर दौडती
राहत कार्य करती
जीपों को और
दोहराते हैं पुराने
किस्से बावडियों के
तड़की जमीन पर
सतोलिया खेलते
बच्चों के समूह
माँ की आवाज़ पर
रुक जाते हैं
हवा दूर से
खंखारती आती है
बन्नो की माँ
रोज गाती है
" काले मेघा पानी दे
पानी दे गुडधानी दे
"अकाल की त्रासद
बढती ही जाती है !
डॉ सरस्वती माथुर
See More
थक गए हैं लोग और
कुछ उगा रहे हैं चंदे
...
अकाल के नाम पर
विकास का पहिया
खेतों की खुशहाली के
पास अटका है
पपड़ाई जमीन पर
गड़ी है पथराई आँखें
प्यासी फसलें लिख रही हैं
भूख और
लाचारी का इतिहास
बादलों की गरज पर
चमक उठती है
सूखी आँखे
फडफड़ा उठती हैं
स्वाति बूँद की
आस में
चातक की पांखें
चौपाल पर
हुक्का गुडगुडाते
बुजुर्ग निहारते हैं
इधर से उधर दौडती
राहत कार्य करती
जीपों को और
दोहराते हैं पुराने
किस्से बावडियों के
तड़की जमीन पर
सतोलिया खेलते
बच्चों के समूह
माँ की आवाज़ पर
रुक जाते हैं
हवा दूर से
खंखारती आती है
बन्नो की माँ
रोज गाती है
" काले मेघा पानी दे
पानी दे गुडधानी दे
"अकाल की त्रासद
बढती ही जाती है !
डॉ सरस्वती माथुर
सूखे
ताल
हलक भी सूखे
गर्मी वाचाल
सूने बाज़ार
बैरी लू का
प्रचंड वार
हवा में घूमे
पेंडूलम सा
सूर्य बेताल
पाखी व्याकुल
ढूंढे परिंडा
हो बेहाल
मेरा शब्द : ताल
हलक भी सूखे
गर्मी वाचाल
सूने बाज़ार
बैरी लू का
प्रचंड वार
हवा में घूमे
पेंडूलम सा
सूर्य बेताल
पाखी व्याकुल
ढूंढे परिंडा
हो बेहाल
मेरा शब्द : ताल
मन की पगडंडी पर
मृगनयनी से
दौड़ते दौड़ते
कभी कभी
एक रस्सी की तरह
बांध लेते हैं हम
अपने जीवन के
घेरे और एक
आवृत में
गाठों की तरह
समेटे रहते है
अपनी अस्मिता और
सोचते हैं कि
नियति के रास्ते
अपनी ही यात्रा के
सहवर्ती हो
जीवनोंद्वार के पार
मुट्ठी में बंद
लकीरों की तरह
कटते फटते
समूचे सौन्दर्य को
समेटे या तो
अस्तित्व की
नदी के द्वीप
हो जायेंगे या
महासमर बन
भेद कर
धरती को
सो जायेंगे !!
मेरा शब्द : अस्तित्व
मृगनयनी से
दौड़ते दौड़ते
कभी कभी
एक रस्सी की तरह
बांध लेते हैं हम
अपने जीवन के
घेरे और एक
आवृत में
गाठों की तरह
समेटे रहते है
अपनी अस्मिता और
सोचते हैं कि
नियति के रास्ते
अपनी ही यात्रा के
सहवर्ती हो
जीवनोंद्वार के पार
मुट्ठी में बंद
लकीरों की तरह
कटते फटते
समूचे सौन्दर्य को
समेटे या तो
अस्तित्व की
नदी के द्वीप
हो जायेंगे या
महासमर बन
भेद कर
धरती को
सो जायेंगे !!
मेरा शब्द : अस्तित्व
मैं मौसम की
प्यास हूँ
समय की सलोनी
आस हूँ
बादल सी घूमती हूँ
अम्बर को चूमती हूँ
धरा के भी
पास हूँ
पाखी सी चहकती हूँ
हवा सी बहती हूँ
हरा भरा
मधुमास हूँ
मेरा शब्द :हवा..........................
प्यास हूँ
समय की सलोनी
आस हूँ
बादल सी घूमती हूँ
अम्बर को चूमती हूँ
धरा के भी
पास हूँ
पाखी सी चहकती हूँ
हवा सी बहती हूँ
हरा भरा
मधुमास हूँ
मेरा शब्द :हवा..........................
जीवन की साँझ नहीं होती
अकेली
अकेले तो होते हैं हम
सच की बगिया में
सच कहें तो
झूठ के कांटे बोते हैं
लेखा- जोखा करते हुए
अपने जीवन का
जब थकी दोपहरी में हम
पलटते हैं गाहे बगाहे
यादों की एल्बम
तब फंस जाते हैं
अतीत के भंवर में हम
जीवन तब एक
खोये मुसाफिर सा
करीब होकर भी
दूर दूर दिखता है और
बदलते वक्त के अक्स में
तब अपना चेहरा भी
अजनबी सा लगता है और
आइना झूठ नहीं बोलता
कहता है सच कि
एक ही जीवन में भला
चेहरा मोहरा कब किसी का
एक सा रहता है !
मेरा शब्द है : भंवर
अकेले तो होते हैं हम
सच की बगिया में
सच कहें तो
झूठ के कांटे बोते हैं
लेखा- जोखा करते हुए
अपने जीवन का
जब थकी दोपहरी में हम
पलटते हैं गाहे बगाहे
यादों की एल्बम
तब फंस जाते हैं
अतीत के भंवर में हम
जीवन तब एक
खोये मुसाफिर सा
करीब होकर भी
दूर दूर दिखता है और
बदलते वक्त के अक्स में
तब अपना चेहरा भी
अजनबी सा लगता है और
आइना झूठ नहीं बोलता
कहता है सच कि
एक ही जीवन में भला
चेहरा मोहरा कब किसी का
एक सा रहता है !
मेरा शब्द है : भंवर
हिरणी सा
दौड़े
दिन-
रात के जंगल में
चांदनी का
काजल लगा
करे हंसी ठिठोली
चंदा हमजोली
मुस्कराए
टिमटिम तारों की
ओढा चादर
चांदनी को सुलाये
नैन परिंदे भर
सपनो की
मीठी उड़ान
पाखी हो जाये
तभी सागर फाड़ कर
नया सवेरा आये !
मेरा शब्द है :सवेरा
दिन-
रात के जंगल में
चांदनी का
काजल लगा
करे हंसी ठिठोली
चंदा हमजोली
मुस्कराए
टिमटिम तारों की
ओढा चादर
चांदनी को सुलाये
नैन परिंदे भर
सपनो की
मीठी उड़ान
पाखी हो जाये
तभी सागर फाड़ कर
नया सवेरा आये !
मेरा शब्द है :सवेरा
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