इसे" गौरी तृतीया "भी कहते हैं । यज्ञ सागर पुस्तक में गणगौर पर्व, गणगौर संबंधी कथा, कहानियों, गौरी गीत, व्रत, उपवास आदी के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।होलिका दहन की भस्म और किसी तालाब-सरोवर के जल से ईसर-गणगौर की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं तथा उन्हें वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया जाता है l पूजा के लिए हरी दूर्वा,पुष्प,और जल लाने के लिए महिलाएं प्रति दिन प्रात: सुमधुर गीत गाती हुई किसी उद्यान में जाती हैं तथा सजे हुए कलशों में जल भर कर लाती हैं तथा कुमकुम, मेहंदी, तथा काजल आदि सौभाग्य की प्रतीक वस्तुओं से ईसर-गणगौर की पूजा करती हैं l उसमे उल्लेख है कि चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को कुवारीं कन्याऐं होलिका की विभूति से अखण्ड रूप मृनिश के पात्र में सोलह पिण्डिरा अपने हाथ से बनाकर भूमि पर षोडश दल कमल बनाकर उस पर मृनिश पात्र पाळसियां मे रखकर उसमें षोडश पिण्डिराओं, गौरी आदी मनाओं का पूजन शिव सहित चैत्र शुक्ला द्वितीया तक करके तृतीया व्रत यानी गौरी व्रत गणगौर उत्सव की सम्पन्न हेतु करती है। प्रलयाग्नि होलिका के सर्वभसम होने पर बचती है। विभूति इस अनोखी वस्तु को देखकर कहा जाता है कि यह भगवान शिव की विशेष विभूति है। महादेव जी ने ब्रीज रूप से विभूति में स्थापित करके उडाया कि पार्वती अंग विषेश प्राप्ति भवेति उस विभूति के साथ बीज रूप का गणेश देवता रूप पार्वती माता ने बताया इसी प्रकार परम्बा रूप कुमारी कन्याऐं विभूति रूप से होलिका मृनिश से सोलह कलारूप गौरी ईश्वर रूप की स्वांगुलि आंगिन पिण्डिराऍं, शिव शक्ति रूपा मानी जाती है। मृनिश पाम गोल अण्डकराह रूप मानकर उसमें दीर्घायु पाने की कामना की जाती है। बीजारोपण अंकुरारोपणा कुमारी कन्याऐं तथा सुहागिन स्त्रियाँ सुख सौभाग्य एवं वंश वृद्धि के कामना से मृनिशमय गोल पथ में मृनिश रखकर उसमें तीन बार एक ही पात्र में तीन पुडन बीजारोपण किया जाता है।जल सिंचन करने चैत्र शुक्ला तृतीया को अंकुर समृद्ध शालिपात्र को गवरजा माता कि सम्मुख रखकर विधिवन् पूजन करके गवरजा माना रे मस्तिक तथा हाथों में उन समृद्ध अंकुर शाखाओं का समर्पण मानो शुभकामनाओं को हस्तगन करती हुई प्रार्थना करती है कि हे गौरी हमारा सुख सौभाग्य बढे तथा वंश कुल/बाडी में सदा आनन्द बढता रहे। अकुंर हरित हरा पीन पीला श्वेत इस समय का उपयोग वे सखियों के साथ हंसी ठिठोली करते हुए बिताती हैं ...शीतलाष्टमी के दिन काली मिट्टी लाकर उससे ईसर- गणगौर , मालन माली , आदि बनाये जाते हैं , उन्हें वस्त्र आदि पहनाते हैं , रेत अथवा काली मिट्टी की मेड़ बनाकर जंवारे ( जौ) उगाये जाते हैं ...सरकंडों पर गोटा लपेटकर झूला भी बनाया जाता है गणगौर पूजन करने वाली सभी स्त्रियाँ इकठ्ठा होकर ये सभी कार्य बड़े हर्षोल्लास से गीत गाते हुए करती है ...तत्पश्चात छोटे बच्चों (सिर्फ लड़कियों )को ईसर और गणगौर के प्रतीक रूप में दूल्हा -दुल्हन बनाकर उन्हें बगीचे में में ले जाकर खेल- खेल में गुड्डे गुड़ियों जैसी ही शादी रचाई जाती है पूजन करने वाली तथा दर्शक महिलाओं में से ही घराती और बाराती बनती है तथा आपस में ठिठोली करती हुई नृत्य गान आदि करती है ...आम लोकगीतों मे सुहागन महिलायें अपने अखंड सुहाग के लिए ईश्वर से प्रार्थना तो करती ही हैं , लगे हाथों विभिन्न आभूषणों और आकर्षक वस्त्रों की मांग भी कर लेती हैं.!.
गणगौर पूजन के समय गए जाने वाला प्रमुख गीत इस प्रकार है --
"गौर गौर गोमती गणगौर पूज गनपति ,
ईसर पूजूं पार्वती ,पार्वती का आला गीला गौर का सोना का टीका ,टीका देरपांणि राणी बारात करे गौर दे पाणी !"
गणगौर एवँ स्वयँ के लिये श्रृँगार की माँग भी उनका अधिकार है -माथा ने मैमँद पैरो गणगौर, कानाँ नै कुण्डल पैरो गणगौर, जी म्हेँ पूजाँ गणगोर - ईसर्दासजी भी नखराळी गणगोर की माँगेँ पूरी करते हैँ - ईसरदासजी ज्याजो समन्दर पार जी, तो टीकी ल्याजो जडाव की जी - एक विशेष प्रकार की चूँदडी की भी माँग है -ईसरजी ढोला जयपुर ज्याजो जी, बठे सुँ ल्याय ज्योजी जाली री चूँदडी, मिजाजी ढोला हरा-हरा पल्ला हो, कसूमल होवै जाली री चूँदडी, स्वयँ के लिये भी-म्हारा माथा नै मैमँद ल्याओ बालम रसिया, म्हारी रखडी रतन जडओ रँग रसिया, म्हारी आँखडली फरूकै बेगा आवो रँग रसिया!
गणगौर का पर्व पति - पत्नी के अखंड प्यार का द्योतक है । इसके गीतोँ मेँ पति - पत्नी के बीच होने वाले मान - मनुहार का भी दर्शन है
इन गीतों में एक और जहाँ नारी -मन की व्यथा ,उमंगें भावनाएं और मादकता प्रकट होती है ,वहीँ दूसरी ओर इनके मद्धम से देवताओं को भी जनसाधारण की तरह व्यवहार करते हुए बताया गया है!
सोलह दिन तक उल्लास और उमंग के साथ चलने वाला यह पारंपरिक पर्व सही मायने में स्त्रीत्व का उत्सव लगता है
गणगौर व्रत कैसे करें :-
गणगौर की पूजा मंगल कामना का पर्व है।राजस्थान के सांस्कृतिक चेतना की पहचान इसी पर्व से बनी हुई है।
* चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी को प्रातः स्नान करके गीले वस्त्रों में ही रहकर घर के ही किसी पवित्र स्थान पर लकड़ी की बनी टोकरी में जवारे बोना चाहिए ।
* इस दिन से विसर्जन तक व्रती को एकासना (एक समय भोजन) रखना चाहिए ।
* इन जवारों को ही देवी गौरी और शिव या ईसर का रूप माना जाता है ।
* जब तक गौरीजी का विसर्जन नहीं हो जाता (करीब आठ दिन) तब तक प्रतिदिन दोनों समय गौरीजी की विधि-विधान से पूजा कर उन्हें भोग लगाना चाहिए ।
* गौरीजी की इस स्थापना पर सुहाग की वस्तुएँ जैसे काँच की चूड़ियाँ, सिंदूर, महावर, मेहँदी,टीका, बिंदी, कंघी, शीशा, काजल आदि चढ़ाई जाती हैं ।
* सुहाग की सामग्री को चंदन, अक्षत, धूप-दीप, नैवेद्यादि से विधिपूर्वक पूजन कर गौरी को अर्पण किया जाता है ।
* इसके पश्चात गौरीजी को भोग लगाया जाता है ।
* भोग के बाद गौरीजी की कथा कही जाती है ।
* कथा सुनने के बाद गौरीजी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से विवाहित स्त्रियों को अपनी माँग भरनी चाहिए ।
* कुँआरी कन्याओं को चाहिए कि वे गौरीजी को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें ।
* चैत्र शुक्ल तृतीया (सिंजारे) को गौरीजी को किसी नदी, तालाब या सरोवर पर ले जाकर उन्हें स्नान कराएँ ।
* चैत्र शुक्ल तृतीया को भी गौरी-शिव को स्नान कराकर, उन्हें सुंदर वस्त्राभूषण पहनाकर डोल या पालने में बिठाएँ । इसी दिन शाम को गाजे-बाजे से नाचते-गाते हुए महिलाएँ और पुरुष भी एक समारोह या एक शोभायात्रा के रूप में गौरी-शिव को नदी, तालाब या सरोवर पर ले जाकर विसर्जित करें ।
* इसी दिन शाम को उपवास भी छोड़ा जाता है ।
गणगौर माता की शोभायात्रा :
गणगौर माता की पूरे राजस्थान में जगह जगह सवारी निकाली जाती है जिस मे ईशर दास जीव गणगौर माता की आदम कद मूर्तीया होती है | उदयपुर की धींगा गणगौर, बीकानेर की चांद मल डढ्डा की गणगौर ,प्रसिद्ध है | ईश्वर गौरा की मूर्तियां को सजाकर उल्लासमय वातावरण में शोभा यात्रा निकाली जाती है। अंतत: किसी नदी, तालाब या पोखर में गणगौर को सम्मानपूर्वक विदाई दी जाती है। विदाई के दृश्य अत्यंत ही भावुक होता है। उदयपुर व जयपुर की गणगौर की सवारी को देखने के लिए हजारों लोग आते हैं। उदयपुर के तालाबों के बीच नावों में होने वाले नृत्य व गायन के आयोजन बड़े ही सुन्दर लगते हैं।
कर्नल टॉड ने उदयपुर की गणगौर की सवारी का बहुत ही रोचक वर्णन किया है। ""जहां अट्टालिकाओं में बैठकर सभी जातियों की स्रियां व बच्चे और पुरुष रंग-रंगीले कपड़े व आभूषणों से सुसज्जित होकर गणगौर की सवारी को देखते थे यह सवारी तोप के धमाके से वे नगाड़े की आवाज से राजप्रासाद से रवाना होकर पिछोला झील के गणगौर घाट तक बड़ी धूमधाम से पहुंचती थी व नौका विहार तथा आतिशबाजी प्रदर्शन के बाद समाप्त होती थी।''
जब गणगौर की सवारी निकाली जाती है तब जयपुर के गुलाबी राजमार्ग और भी खिल उठते हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर में गणगौर उत्सव दो दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। ईसर और गणगौर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा राजमहलों से निकलती है इनके दर्शन करने देशी-विदेशी सैनानी उमड़ते हैं। सभी उत्साह से भाग लेते हैं। इस उत्सव पर एकत्रित भीड़ जिस श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ धार्मिक अनुशासन में बंधी गणगौर की जय-जयकार करती हुई भारत की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करती है जिसे देख कर अन्य धर्मावलम्बी इस संस्कृति के प्रति श्रृद्धा भाव से ओतप्रोत हो जाते हैं। ढूंढाड़ की भांति ही मेवाड़, हाड़ौती, शेखावाटी सहित इस मरुधर प्रदेश के विशाल नगरों में ही नहीं बल्कि गांव-गांव में गणगौर पर्व मनाया जाता है एवं ईसर-गणगौर के गीतों से हर घर गुंजायमान रहता है।गणगौर का यह त्यौंहार राजस्थान की संस्कृति में रचा बसा है। शिव पार्वती के इस रूप की पूजा व अर्चना बीकानेर में महिलाओं के साथ पुरूषों के द्वारा भी भक्ति व श्रद्धा के साथ की जाती है। इस त्यौंहार में पुरूषों का इस तरह से जुडाव इस बात का प्रतीक है कि पुरातन समाज में स्त्री के साथ पुरूष भी हर त्यौंहार में उसका भागीदार रहा है।!
परम्पराओं के शहर बीकानेर में सैकडों वर्षों से यह परम्परा चली आ रही है और आज भी इस परम्परा का निर्वहन किया जाता है। और सच भी है कि त्यौंहार वह चाहे पुरूषों का है या महिलाओं का इसे श्रद्धा, भक्ति के साथ मनाकर देश, समाज की खुशहाली की कामना करने से भाईचारा ही बढता है। यह माना जाता है गणगौर अपने पीहर आती है और फिर पीछे पीछे गणगौर का पति ईसर उसे वापस लेने आता है और आखिर मे चैत्र शुक्ल द्वितीया व तृतीया को गणगौर को अपने ससुराल वापस रवाना कर दिया जाता है और इन्हीं दिनों में जब गणगौर अपने पीहर होती है, गणगौर को खुश करने के लिए गणगौर के सामने गीत गाए जाते है और माता से कामना की जाती है वह देश, शहर, परिवार व कुल की समृद्धि करे उसकी रक्षा करे। पुरूषों द्वारा भी इन गीतों में माँ गवरजा से यही कामना की जाती ह। साथ ही साथ इन गीतों में वीर रस के गीत भी गाए जाते हैं और ईसर द्वारा यह दर्शाया जाता है कि वह गणगौर के लिए योग्य वर है और वह गणगौर को प्राप्त करने की कामना रखता है। इसी तरह गीतों में यह भी दर्शाया जाता है कि गणगौर ईसर को ताने मारती है और कहती है कि अगर तूने मेरी तरफ देखा तो तुझे मेरी बहन दातुन में, मेरा भाई खाने में जहर दे देंगे लेकिन ईसर नहीं मानते और आखिर वह अपनी गणगौर को अपने साथ लेकर ही जाते है। गणगौर की बहनों की तरफ से यह भी गीत गाया जाता है कि अब ईसर जी आप आ तो गए ही हो और गणगौर को लेकर ही जाआगे तो कुछ दिनों के लिए तो इसे छोड दो ताकि यह जब तक यहॉ है हमारे साथ रह सके। यह भक्ति, श्रृंगार व वीर रस के सारे गीत चौक में पाटों पर पुरूषों द्वारा गाए जाते है।हमें आवश्यकता है आज इस भक्तिमय, श्रृद्धापूर्ण एवं लोक कल्याण हेतु संस्थापित लोकोत्सव को संज्ञान वातावरण में मनाये जाने की परम्परा को अक्षुण बनाये रखने की। इसका दायित्व है उन सभी सांस्कृतिक परम्परा के प्रेमियों एवं पोषकों पर जिनका इससे लगाव है और जो सिर्फ पर्यटक व्यवसाय की दृष्टि से न देखकर भारत के सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देखने के हिमायती हैं।
राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर | अर्थ है की सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम आ जाता है |गणगौर के बाद बसन्त ऋतु की बिदाई व ग्रीष्म ऋृतु की शुरुआत होती है।
डॉ सरस्वती माथुर