सोमवार, 8 सितंबर 2014

कवितायेँ :गंगा


"गंगा कैसे नहाओगे ?"
आई भोर आई
पंख पसारे चिड़ियों ने भी
गीत उच्चारे
मंदिर की घंटियाँ बोली

जागे सारे नदी किनारे
अम्मा भी प्रभाती गातीं
झट से घाट पर पहुंची
ले डुबकियां गंगा नहाई
मन में कुछ शगुन भी लायीं
कुमकुम मंगल का
बांध घर आयीं
एक दिन नन्ही पोती ने थी
जिद पकड़ी अम्मा
मैं गंगा कहाँ नहाऊँ?
अम्मा मुस्काई बोली- -
तू कैसे नहा पायेगी?
वहां कहाँ रही अब
पहले सी शुद्धाई?
मैंने तो बरसों का
नियम निभाया है
नाम को ही नहाया है
बस, आखिर में
घाट पर नहा कर
एक लोटा जल
घर से जो ले गयी थी
उससे फिर नहाया है
बन्नो, गंगा नाहन तो
अब भी मनभावन है
पर जल नहीं रहा
अब पावन है
इसलिए तू मन की गंगा में
नहा ले अब पर
चाहे कुछ भी हो जाए
विष घुली उस गंगा में
नहाने को अब
कभी जाना मत और
जाये तो वहां मेरा
यह सन्देश लेती जाना
कहना लोगों को कि
गंगा को बचाओ पहले
फिर नहाओ
इस विरासत को
कैसे भी बचाओ !
2
 "ठहरी क्यों गंगा मैली हो कर?"
शिखर से उतर कर
बहती थी
फुदक फुदक कर
चलती थी
नयी राह बनाती
अठखेलियाँ करती
एक गिलहरी सी धरा तरु पे
कहीं उतरती कहीं चढ़ती
पथ को श्रम से
उर्वर करती
हर बाधा से
लड़ लड़ आगे बढती
पर अनायास
रुक गयी एक दिन
एक मोड़ पर
किसी ने उसका
बहाव काट दिया
धारों को स्वार्थ में
बाँट दिया अब
ठहरी गंगा मैली हो कर
गुहार लगा रही है कि
मुझे न रोको
मैं तो बहती धारा हूँ
कलकल करती हूँ
बिन रुके चलती हूँ
मुझे अपनी राह जाने दो
कोसों फैली मटियाली
धरा को नहलाने  दो
इस देश को चमन बनाने दो
जन जन को मुस्कराने दो
मुझे बह जाने दो
बह जाने दो
बस चुपचाप दूर
तक बह जाने दो !
जल का परिंदा हूँ
नाम है गंगा जल
मैं न रही तो
डूब के खो जायेगा
अपने देश का कल !
डॉ सरस्वती माथुर

चम्पा : " चम्पई फूलों से महकता यह घर अंगना !"

" चम्पई फूलों से महकता यह घर अंगना !"
 
 दूधिया   भोर में
चंपा के झरे फूल
  जब मैं  आँगन के
 तरु से रोज उठाती हूँ
 तो ना जाने क्यों
 अम्मा उसमे से
 तुम्हारी  महक आती है
 घर भर में मंडराती है

 याद है मुझको
बड़े दादा सा. ने
आँगन में यह पेड़
 चंपा का रोपा  था
पर इसका तो
 लुत्फ़ तुमने
जी भर के उठाया था
मूंज की खटिया लगा
 वहां आसन अपना
 जमाया था 


 महाराजिन के संग वहां
तुम दिन भर बतियाती थी
 मैथी -चौलाई चुटवातीं 
 सब्जियां कटवाती थीं
 अमिया करौंदे  का
 अचार भी हल्दी में लगा
 वहीँ बनवातीं थीं

 रमैया की अम्मा से
 साँझ को रामायण की
 चौपाइयां गंवाती
आरती करके
 हम सब को उसी
चम्पई हवा में अक्सर
तुम मोहल्ले भर की
 कुछ कच्ची
कुछ सच्ची कहानियां
 चटकारे ले लेकर सुनातीं  थीं


साँझ आरती के लिए
 चंपा के फूल  तुडवातीं
गजरा बना
 राधा जी को चढ़वातीं
 फिर साँझ गीत गातीं थीं

 

अम्मा, अब न तुम रहीं
 न वो   रसीली  कहानियां
 पर देखों न अम्मा
 चंपा के फूल
अब  कुछ ज्यादा  
 महकते हैं और
अम्मा एक गौरैया तो 
 रोज नियम से आती है
  मधुर स्वर में
संध्या को जब वो गाती है
 तो लगता है
 वो गौरैया  
 तुम हो अम्मा
 
तुम, जो कहा करतीं थीं कभी  कि
जन्म मिले दुबारा  तो
 चाहूँ  मैं कि बनूँ  
  मैं  एक  गौरैया ताकि
 छूटे मुझ  से कभी न
 मेरा  चम्पई फूलों से
 महकता
यह घर अंगना !
डॉ सरस्वती माथुर  



"चंपा के फूल !"
जब चंपा के फूल  महके
 तो तुम याद आये

 बागों में फूलों जैसे
 आकाश में चंदा  तुम
  कैक्टस के शूलों जैसे
  नदी में अलकनंदा तुम
  महके मोगरे तो
  तुम याद आये

  बांसुरी में धुन जैसे
  कृष्ण के कुञ्ज तुम
  सीता के निकुंज जैसे
  विष्णु के सुदर्शन तुम
  वीणा के तारे चह्के तो
  तुम याद आये

 जब चंपा के फूल  महके
 तो तुम याद आये
  डॉ. सरस्वती माथुर


2

"चम्पई  फूल!"
हंस पड़े चंपा के फूल 

 देख हरे पंखों वाली
 चह्चहाती  चिडिया

 फुदक  रहें थे बच्चे
 लुत्फ़  उठाते मौसम में
 चेहरे से मासूम सच्चे
 खिली चांदनी में ढूँढ़ते चाँद में
 चरखा काटती  बुढ़िया

 गूँज रही थी किलकारियां
 अल्हड तितलियों सी
 ड़ोल रही थी केसर क्यारियाँ
 हवा में आँखे  खोलती   सी
 बंद करती सी  गुडिया 
 चम्पई  फूल झरझराते
 सुबह साँझ समर्पित
 बगिया में मुस्कराते
सुरमई खामोशियों में अर्पित
   तैरती जादू की बंद  पुडिया
.....................................
"चंपा के फूल !"
महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल

बहते झरने कलकल संगीत
 हवा में गूंज रहें थे  गीत
 मौसम में खिल गये थे फूल
महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल

 पाखियों में समायी  थी प्रीत
  मिल गये थे बिछड़े  मीत
 हवा में गूंज रहें थे  गीत
 बहते झरने कलकल संगीत


  सृजन के सुंदर थे  पल

 महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल
 एक नई पगडण्डी पर

नदिया से बहे उतरे कूल
 बहारों की ऐसी होती रीत
 चाहे  गर्मी हो या हो शीत
 हवा में गूंज रहें थे  गीत
 बहते झरने कलकल संगीत

प्रकृति से मिलने को थे आकुल


महके चंपा के
 सौन्द्रयबोधी  फूल
डॉ सरस्वती माथुर


"कनेर के फूल खिले !"
तरु ताल में
कनेर के फूल खिले


भर हवाओं में खुशबू
वो जब गले मिले
धरा पर अनुराग के तब
चलने लगे सिलसिले

चढ़ाये गए मंदिरों में
शिवगौरी के पगो तले

जुगुनू से चाँदनी में
नेह दीप बन जले
गुंजित होते रहे चिड़ियों से
सुबह और साँझ ढले

संचित रंगों का लगा काजल
मन की देहरी पर पले

तरु ताल में
कनेर के फूल खिले l
डॉ सरस्वती माथुर

"मैं कनेर !"
मैं कनेर
रूप रस   में
रंग समेट
 कुंज में पली  हवाओं से
 करता  अठखेली
 मौसम के साथ चला 

सर्दी  की बाँहें
जब मुझे न दे पाईं
 स्पंदन तो
 निर्लिप्तता में भी मैंने
 फिर खिलने का
 दर्शन पाया

गर्मियों का ताप पी कर
 भरी दुपहरी में मैंने
 अपना रंग बरसाया
 ताल तलैया ,वन उपवन
 घर- आँगन संग
 शिव मंदिर सजाया
 विष की नाभि पाकर भी
प्रकृति में ईश ज्ञान का
 अमृत दीप जलाया

 मैं कनेर
साथ रह कर  प्रकृति के
 वसुधा के आँचल को
 हरियाया
 देकर रंगों का 
सुरमय  सायाl
डॉ सरस्वती माथुर

"मखमली फूल कनेर के !"
झूमर से लटके
 कुंजों की डार
मखमली फूल
 कनेर के
 प्रमत्त झूमते
 हवाओं के गालों को
दुलार से चूमते
प्रतीक शृंगार के

मंदिर की देहरी  में
 समर्पण का सेतु बांधते
साधना में सर्वस्व
 अपना वार कर
अपने अस्तित्व को झारते
 रंगमय फूल
 कनेर के l
डॉ सरस्वती माथुर



"कनेर तरु !"
बताओ तो कनेर तरु
 क्या राज है कि
तुम हर ऋतु में
 अपनी एक अलग
कहानी कहते हो
 गांवों के पनघटों ,मंदिरों
घर आँगन और अहातों  पर
 चुपचाप खड़े होकर तुम
 हवाओं को रंग देते हो

तुम्हारे फूलों की
 सजी सँवरी  पातें
तने  की  पतली डालियाँ और
 एक गुच्छ में
 अपने अस्तित्व की
 छोटी छोटी घण्टियों का
 क्या कहना
जब हवा में हिलाते हो
अपने फूल तो
एक नयी पहचान बनाते हो

 तुम्हारे लाल, पीले ,गुलाबी और
 सफ़ेद फूल चटक धूप में भी
 कुम्हलाते नहीं
  बस बसंत उन्हें
 सतरंगी कर देता है तो
 फागुन रंग देता है

 गर्मी की दुपहर में
तुम्हारी मुस्कान
सभी को भाती है
पर सर्दियाँ न जाने क्यों
तुम्हारा सौंदर्य
 निगल जाती हैं
 तुम्हें देख करके
   कनेरी चिड़िया भी
 बहुत याद आती है

 हवाओं को अंजोरते हुए
 कनेर तरु तुम यूंही
  अपनी शोभाश्री बढ़ाते रहना
रंग- बिरंगे फूलों से अपना
सौंदर्य बढाते  रहना
  प्रकृति को सतरंगे
 परिधान पहनाते रहना !
डॉ सरस्वती माथुर

"कनेर खिल आया !"
भोर में चहकी
 कनेरी चिड़िया तो
 मन कुंज में
कनेर खिल आया

हवाओं को गीतों से
 सींच कर
 मौसम का पंछी
 लाल- गुलाबी ,श्वेत और
 पीले फूलों पर
 खुशबू बुन आया

अरे कनेर के फूलों
 बताओ तो जरा
 तुमने इतना सौंदर्य
 कहाँ से पाया ?
डॉ सरस्वती माथुर

"कनेर !"
एक फूल कनेर
 छज्जों पर चढ़ता
गुनगुनी हवाओं संग
झूला झूलता
हरियायी बगिया में
चिड़िया संग खेलता
 मन जाने तब
 याद कर कर के
एक पाखी सा
जाने किसे टेरता l
डॉ सरस्वती माथुर

"पीला कनेर !"
शाम में झरता
एक पीला कनेर
 शांत सा
 सरसराता पड़ा रहा
जाने कहाँ से
 एक पथिक आया
 उसे उठा कर
 चँवर सा झूलाता रहा
 फिर हाथ में पकड़ी
 किताब में रख कर
 भूल  गया
 नन्हा कनेरी फूल अब
 उस किताब की खुशबू में
 बस गया है
मन  के  मौसम
 जब खुलेंगे तब यह
 फिर यह उगेगा !
डॉ सरस्वती माथुर
"रंग कनेर के !" 

कनेर के रंग
मौसम की हवा में
 तितलियों से उडते है
 मन के इर्द गिर्द
 खूशबू बुनते है
 मन का हरापन कुछ और
 हरा हो जाता है
 जीवन में यादों का
 एक तरु उग आता है और
 चिड़िया की चहक भरी
 अठखेलियों संग
 सपनों का इंद्रधनुष
 बुनने लगता है
 र्रंग भर मौसम भी
 फूलों संग नया
 गीत गुनने लगता है !
डॉ सरस्वती माथुर
1
कनेरी फूल
 चमन खिला गये
 हवाओं से मिल के
 खुशबू फैला
हरी धरती पर
रंग बरसा गये l
2
पुरवा संग
 रंगरेज़ सा मन
 चकित निहारता
 कनेरी फूल
रसधार बरसा
 मधुर गीत गाताl
डॉ सरस्वती माथुर
गजल
 फैली चंपा की महक
गूंजी पाखियों की चहक
लगे ऋतु मनभावनी
चम्पई पराग की दहक
मदिरा के सुवास सी
हाला पीके गए बहक
रिश्तों में मिठास की
आत्मीय सी है खनक
मन की आँखों में
तैरे डूबे सपने लहक l
डॉ सरस्वती माथुर
2
"पीताभ आँगन में!"
 चम्पई फूलों से
 एक कतरा रंग ले
 पुरवा ने चुराई
 मकरन्दी तितलियाँ


नाच उठी हवाएं
पीताभ आँगन में
काढ दिए बेल बूटे
ओधा दी फुलकारियाँ



सुवास के फूटे झरने
मन को लगे भरने
धरती के आँचल पर
चमकी केसर क्यारियाँ !
डॉ सरस्वती माथुर


"सुवासित करते चंपा के फूल!"
घर आँगन महकाते
 चंपा के फूल

दिए से जलते
 झिलमिल करते
 दुधिया रात में
 जुगनू लगते
 चंपा के फूल


दीप्त से पाटल
 कर देते पागल
 धरा को परसाते
 कंचनवर्णी लगते
 चंपा के फूल



 मंदिर में चढ़ते
 सुवासित करते
 सज़ जुड़े में गौरी को
 शृंगारित हैं करते
 चंपा के फूल


 केसरिया पाग में 
 पीताभी आग में 
 कंचनवर्णी  लगते
 तितली से उड़ते
 चंपा के फूल
मन को सुरभित करते
 चंपा के फूल !
 डॉ सरस्वती माथुर



 





 




 




 
      

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

......"आवाज़ दो कहाँ हो !".....

1.
"आवाज़ दो कहाँ हो ?"
पाखी है यादों का
मौसम है वादों का
सूखी पतियों सी
बिखरी है
भूली बिसरी यादें
उड़ती रेशमी हवाओं में
अमावास की
काली रातें हैं
और चकोरी आकुल हो
पूछ रही है तारों से
मेरे आँखों के ख्वाब लेकर
कहाँ छिपा है मेरा चंदा
तुम्ही आवाज़ दो ना
ओ रेशमी हवाओं
वो जहाँ है उसी दिशा में
मैं भी निगाहों की
मखमली आशाएं
बिछा दूं और दर्द की
इस काली रात में
पीती रहूँ
प्रीत की हाला
मौसम भी मेरे
चारों तरफ
घूम रहा है
हो हरियाला
हर आहट पे
उठती है
मन में लहरें और
बुनने लगती है
भावों की नदिया
बहते सुनहरे सपनो की
पर बन जाती है
यादों की मधुशाला !
2.
"आवाज़ दो कहाँ हो !"
फिर हुई आह्ट
पुरवाई थी
आवाज़ दे कहाँ है के सुर में
मौसम को बुलाती
,मौसम एक चिड़िया सा
वहीँ उड़ रहा था
हमेशा की तरह
उसके आसपास भी
उड़ रही थी कुछ
सूखी पत्तियाँ गुब्बारों सी
मौसम खुश था
यह सोच कर कि
दरख्त, फूल ,धरती- आकाश
सब उसे पहचानते हैं
जानते हैं, मानते हैं
स्वागत में धार लेते हैं
नए नए परिधान
रखने को अतिथि की तरह
मौसम का मान
वैसे तो ज्यादातर
हरियाले कपडे पहनते हैं
पर जब बसंत में आता हूँ तो
पीले परिधान पहन स्वागत करते हैं
रंग बिरंगे फूलों का
सौंप गुलदस्ता और पतझड़ में
भूरे पत्तों में
नृत्य दिखाते हैं
हवा के साजों संग
बारिश में पाखियों संग
चहचहाते हैं और
गर्मी में अमलताश -पलाश के
कालीन बिछाते हैं हर आगमन पर
पलक पांवड़े बिछाते हैं और
इन्हें देख मौसम भी तो
एक तितली सा हो जाता है और
फूल फूल पर उडता है
बस उडता है इनके प्यार की
सुगंध बटोरता !
डॉ सरस्वती माथुर

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

यह बच्चा किसका है ?

श्वेत स्वाति दीप के इस   मंच से कहना चाहती हूँ की क्यूँ न हम भी कुछ सामाजिक सरोकारों से जुड़ें ...कविता को माध्यम बनाके..!
सोशल एक्टिविस्ट भी हूँ शिक्षाविद भी पर जादू की छड़ी कहाँ से लाऊं ?
कहना चाहती हूँ कि
हमारी चमचमाती कार जब चौराहों पर लाल बत्ती देख रूकती है तो आपने भी देखा होगा वहां खड़े कुछ मैले कुचेले कपडे पहने मासूम बच्चों की आँखों मैं चमक आ जाती है और आप देखते हैं की दोनों हथेलियों की ओट से आपकी कार की चमचमाती खिड़की पर चिपचिपे कुछ निशान छोड़ बुदबुदा के कुछ कहते बच्चे ..अन्दर स्टरियो पे बज रहा होता है... गीत ..
."बच्चों तुम तक़दीर कल के हिन्दुस्तान की ....."!
 कार का एसी चल रहा है इतनी ठंडक में आप बस यही सोच रहें हैं की कब होगी हरी बत्ती ...? सत्यमेव जयते :)! ...मेरे दिमाग में बस एक ही प्रश्न घूम रहा है की कोई जादू की छड़ी मिल जाये तो इनकी तक़दीर बदल दूं पर नहीं मिली ऐसी छड़ी तो चलो कोई बात नहीं ..... इन शब्दों से बात करती हूँ....समाधान आप करें ...समीक्षा भी .....
 
यह बच्चा किसका है ?
डॉ सरस्वती माथुर /
सुबह की चादर फेंक 
वो उठ खड़ा हुआ और
चल पड़ा उठा लोटा
चौराहे पर
भूख के बादलों से टपकती
बेबसी की बारिश में
फटे चीथड़ों से तन ढके
गीला - गीला सा....
यह बच्चा किसका है?
भीगी हुई चिड़िया सा
सरसराता - गिडगिडाता हुआ
संकरी गली लाँघ
सड़क पर आता हुआ
लोहे की आदमीनुमा छड़ों को
चौराहों पर "शनि" बताता हुआ
धूप अगरबत्ती से
उन्हें मनाता हुआ....
यह बच्चा किसका है ?
कितना अभ्यस्त है
उसका बचपन
गेंद गुब्बारे ,फिरकी और
पतंग नहीं मांगता
छोटे छोटे हाथ फैलाता
कुछ खनकते सिक्के चाहता ...
यह बच्चा किसका है ?
चौराहे पर पीली -हरी बत्तियों के
जलने बुझने के साथ
संभावनाओं के द्वार खोलता
किसी दैनिक अखबार की तरह
एक स्वर में बांचता हुआ
अपनी लाचारी के समाचार...
यह बच्चा किसका है ?
सोने की चिड़िया कहलाने वाले
भारत के हर गली चौबारों पर
जो माँ की गोद छोड
उगता -बढ़ता है सुनो बताओ न...
यह बच्चा किसका है ?
राष्ट्रीय पर्व पर तिरंगे झंडे लिए
आपमें राष्ट्रीय भावना जगाता
अगरबत्ती बेच आपको उसकी
खुशबुओं से रूबरू कराता...
यह बच्चा किसका है ?
राष्ट्र ,समाज ,परिवार सभी से
यह प्रश्न है की आखिरकार...

यह बच्चा किसका है ?
डॉ सरस्वती माथुर

बुधवार, 3 सितंबर 2014

ताँका

ताँका
"बेटी की चहक !"
1
 बेटी कोयल
 घर माँ का बासंती
 चहके बेटी
 लगती रसवंती
भाग्य से है मिलती
2
सौन चिरैया
आई मेरी बगिया
 ओ बिटिया तू
आँगन की चिड़िया
 प्यारी मेरी  गुडिया
3
बिटिया बोली
 माँ, मधुमय तेरा
घर आँगन
खेलूंगी छमछम
कर तेरा दर्शन
4
माँ का अंगना
 छमछम डोलूं मैं
 बाबुल मेरे
 बताओ क्या बोलूं मैं
 जाना दूर-, रो लूं मैं ?
5
 खुश है बेटी
 माँ संस्कृति रही थी
 पिता सभ्यता
तभी तो   मिल गयी 
बेटी को सफलता  
डॉ सरस्वती माथुर

तांका : "जीवन !" हाइकु :" दुःख की नदी !"सेदोका :" मृत्यु !"...

तांका : "जीवन !" 
मेरा जीवन
उड़ान भरता है
पंख खोल के 
प्रेम रंग भर के
सपने बुनता हैl
2
 समय रथ
अनथक भागता
पाहुना बन
जीवन बसंत में
रगों को भरता है l
3
भटकती सी
जीवन के संग में
 लिपटी यादें
मन के नभ पर
प्रियतम तरु से l
4
अब कहाँ है ?
जीवन निहारता
रोशन चाँद
अँधेरी सी रातों में
चांदनी बरसाता l
5
 भाव विभोर
जीवन का चकोर
चाँद निहारता
स्निग्ध चांदनी ओढ़
आकाश संवारता l
5
 जीवन ऋतु
तितली सी उड़ती
रस पीकर
धरती के फूलों पे
ऱसपगी हो जाती l
7
 गुटरगूं सी
जीवन की हवा थी
उड़ती गयी
बसंत को बुलाती
कूकी चह्चहाई l
हाइकु :" दुःख की नदी !"
1
दुःख की नदी
जीवन लहरों में
कुंदन हुई l
2
 दुःख की नदी
 हरहराती- बैठ
जीना सिखाये l
3
 हिम्मत रखो
सुख-दुःख की नदी
कर लो पार l
4
 दुःख की नदी
मन बींध जाती है
भिगो  पलकें l
5
दुःख की नदी
जीवन तट पे जा
फेन सी झरी l
6
 सुधियाँ जागी
दुःख की नदी बन
 काली सी रात l
7
जीवन  नदी
दुःख की लहरों से
लिपट मिली l
8
दुःख की नदी
जीवन रेत पर
बेसुध पड़ी l
9
 मन का बाँध
 दुःख नदी से टूटा
 लाया सैलाब l
10
 दुःख की नदी
 जब बहती जाती
 भीगता मन l
11
दुःख की नदी
आक्रांत सा जीवन
 बिखरा मन l
12
भंवर जागे
दुःख नदी- उमड़ी
 डूबे सपने l
सेदोका :" मृत्यु !"
1
उडता फिरा
मृत्यु के डैनो पर
खामोश गुमसुम
जीवन पाखी
सो गया ओढ़ कर
सफ़ेद सा कफ़न l
2
 मृत्यु चिड़िया
 जीवन गगन में
 खेले आँख मिचौनी
समय यम
 जीवन लहर में
 भंवर ला - ले जाए l
3
 अँधेरा छाया
पंखहीन पाखी सा
मृत्यु फल- चखने
फड़फडाता
एक गिलहरी सा
कुतरने को आया l
4
 घना तिमिर
जीवन चौबारे पे
उतरा उदास सा
मृत्यु रथ पे
रूह लेके जाने को
दलाल बन आया l
5
 मृत्यु दलाल
वसूलता है कर्ज
जीवन सपनो से
मौन हवाएं
सन्नाटे को बुनती
कफ़न चुनती हैं l
डॉ सरस्वती माथुर





सोमवार, 1 सितंबर 2014

माहिया : "धूप छाँह सा मन !"




 
धूप छाँह सा मन 

धूप छाँव- सा मन है
घर के आँगन में
कितना अपनापन है

जीवन की बही लहर
धार -धार चलती
सुख -दुख से भरी डगर

जूही-सा नाज़ुक मन
ओढ़ उदासी को
बैठा सूने आँगन

ले आ डोली कहार
दूर चले जाना
घर में बचे दिन चार
 ५
चरखा है यादों का
आँखों में काता
सपना बस वादों काl

 डॉ सरस्वती माथुर