1
"खट्टे मीठे दिन हुए !"
बंजारा सी थी जिन्दगी
श्रम से भर गई
खट्टे मीठे दिन हुए
रात उसमे घुल गई
रेगिस्तान की रेत सा
तपता रहा मन मौसम
समय कांच टूटा
, किरचें थी बिखर गई
रिश्तों के जंगल में
आग सी सुलग गई
अपने और परायों में
जिन्दगी भी उलझ गई
प्रेत हुई आशाएं
डरी फिर सिहर गई
हवाएं विपरीत बही
मन फसलें सूख गई
कुंठा की सुराही से
पी जाम बहक गई
दौडती जिन्दगी रुकी
मंजिल पा ठहर गई
डॉ सरस्वती माथुर
२
"मन सागर खारे !"
जीवन भर ढूँढा
आँगन नहीं मिला
रिश्तों की आपाधापी
काम की चाहतव्यापी
मंजिल बहुत दूर थी
रास्तों की धरा नापी
हिलमिल रहने को भी
कहीं आसन नही मिला
स्वार्थ की थी बस्तियां
आतंक से जूझती हस्तियाँ
संघर्षों की नदियों में
फंस गयीं थी कश्तियाँ
दो पल चैन से रहने दे
ऐसा कोई जन नहीं मिला
मन सागर थे खारे
प्यास क्या वो मिटाते
मरुस्थली राहों में थी
मृगतृष्णा - कहाँ जाते
प्यास मेरी बुझा पाता
ऐसा अपनापन नहीं मिला
डॉ सरस्वती माथुर