सोमवार, 1 दिसंबर 2014

"सूर्य का चश्मा!"

1
ओ री गर्मी महरानी
सूर्य का चश्मा चढ़ा के
इठलाती आती हो
दृष्टि धरा पे गढ़ा के
गुलमोहर पे रंग चढ़ा के
पलाश को कर सुर्ख तुम
बन जाती हो दानी

गर्म धूप की चाय को
पोखर में उबाल के
घर आँगन में
लगे नीम पर
निबोली डाल के
आम बौर सजाती हो
तुम हो जानी पहचानी

ठंडी- ठंडी छाँव
सब हैं ढूंढते- डोलते
पंखों के पंख भी
सर्र सर्र कर बोलते
चाँदी सा देख रूप
सब चौंधिया जाते हैं
तुम करती हो मनमानी
डॉ सरस्वती माथुर
" उनींदा सूर्य!"
 
2

आम बौर से टकरा के
मीठी हो गयी धूप
गर्मी के दिनों में
देखो तो इसका रूप

तीखी लू से
उनींदा सूर्य भी
अलसाया सो जाता
मौसम के अनुरूप

धूल भरे दिन भी
पांव पसारे बैठे
छांह पे पसरी धूप 
अनूठा प्रकृति का स्वरुप!- डॉ सरस्वती माथुर

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