मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

"नववर्ष की कवितायें !"

"नववर्ष की परी!"
नववर्ष की लताएँ
चढ़तीं रहीं हरी हरी
...
मन फूलों ने गंध बाँटी
तितलियाँ रंग भरने
बगिया में झाँकी
मकरंद पीकर ली
तम्बाकू सी फाँकी
भँवरों संग उड़ती फिरी
गुलाब की पंखुरिया झरी
बिछा ख़ुशबू की दरी


नववर्ष की लताएँ
चढ़ती रहीं हरी हरी


पछुआ पुरवाई की
सर्द चिड़िया उड़ी
अलावों में आग जली
गाँवों चौपालों पर
चटकी ख़ूब मूँगफली

 विमर्शों की बहस खरी
बीता कल तो तारीख़ मरी
नववर्ष की आई परी


नववर्ष की लताएँ
चढ़ती रहीं हरी हरी
डाँ सरस्वती माथुर


" नववर्ष का स्वागत ! "
लो आ गया नववर्ष
आत्मसंस्कृति पर
हर्षध्वनि बन
छा गया नववर्ष...

जीवन की दृष्टि भी
कहती है कि
इतिहास से आबद्ध हो
नववर्ष जब कभी भी
आस्थाओं की नवीन
परिभाषाएँ बनाए और
आत्मान्तर के द्वार की
कुंडी खटखटाता आए
तो करो उसका स्वागत

समय की पहचान के
हाशियों पर खड़े होकर
शिकायतों से भरे
प्रश्न मत पूछो उससे
क्यूंकी वो अबोध शिशु सा
सूक्ष्मधर्मिता से पूरे समय
संवेदनाओं को ढोता है
निरंतर सजग रहने की
कोशिश में थकता जाता है
इसलिए अभिशापों से उसे
मुक्त रखो क्यूंकी अब
उससे दूर होकर
छूट चुका है आगत

अब तो सिर्फ नवीनता भरे
वरदानो के महके पुष्पों को
अंजुली में भर कर
सम्पूर्ण आस्था से
उसका अभिनंदन करो
वह पाहून सा आया है
मिल जुल कर नववर्ष को
मन में आत्मसात कर
दिल से उसका स्वागत करो !
डॉ सरस्वती माथुर


2
"बस थोड़ा मौन टूटा है !"

सभी कुछ वैसा ही है
  मन- घर आँगन
  हम, तुम और सब जन
  है वही पछुआ बयार
 वही चिड़िया की चहचहाहट
  सूरज- चाँद भी वही है
  धरा पहाड़ भी यथावत है
  बस थोड़ा मौन टूटा है
  चहलकदमी करता
  चला आया है
  रश्मि रथ पर बैठ कर
  नयी अरुणिमा बिखेरता
  पुरानी कालिमा समेटता
  नव वर्ष- जो अभी नया नया है !

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