मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

"स्वप्न सृष्टि!"



"स्वप्न सृष्टि!"
आसमान पर मंडराती

चिड़िया मुझे.

कभी कभी बहुत लुभाती है

सपनो में आकर

अपने पंख दे जाती है

मैं तब उड़ने लगती हूँ

गगनचुम्बी इमारतों पर

निरंतर शहर में

विस्तरित होते गाँवों

,खेतों ,खलिहानों पर

हवाओं की लहरों संग

बतियाते फूलों पर

आकाशी समुन्द्र की

बूंदों से अठखेलियाँ करती

आत्मस्थ होकर

उड़ते उड़ते मेरी

मनचाही उड़ान

मुझमें विशवास की

एक रौशनी भर देती है /और

मैं उड़ जाती हूँ

अनंत आकाश में

धरती से दूर वहां

जिन्दगी को

गतिमान रखने को

सपने पलते हैं और

मैं उतर कर उड़ान से

एक नीड ढूँढती हूँ

जहाँ सुरक्षित रहें

जंगलों का नम हरापन

बरसाती चश्मा

ऊँचें पहाड़

गहरी ठंडी वादियाँ

पेड़ ,नदी ,समुन्द्र और

पेड़ों पर चह्चहाते -

गीत गाते रंग बिरंगे परिंदे

नित्य और निरंतर

गतिशील लय की

अनंतता में बस

अनंतता में !

डॉ सरस्वती माथुर

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