सोमवार, 24 नवंबर 2014

शब्दों की चाक समूह में : प्रकाशित कवितायें !"



राम तुम आवाज़ हो
इतिहास की
लहरों से टकरा
बार बार लौटते हो
रावण के
अधर्म को मार
फिर दूर
बहा ले जाते हो

राम तुम शक्ति हो
हर विजयदशमी पे
बुराई पर अच्छाई का
सन्देश ले आते हो

रावण के अस्तित्व को
राख करके
अँधेरा मिटाते हो
उजाला ले आते हो

राम तुम बस
राम हो
तुम्ही से सीखा
मर्यादा रखना
मन में शक्ति -भक्ति भर
अन्याय के खिलाफ
लड़ना मरना और
सच का सामना करना
डॉ सरस्वती माथुर
16 0ct .12
.......................
 
 "घोटालों का रावण !"
घोटालों का रावण
कब तक हरता रहेगा
सदाचार की सीता
ब्रह्म खो कर कब तक
छलेगा भ्रम का
स्वर्ण मृग
कहाँ खो गया
गाँधी जी का
सच्चाई का पाठ्यक्रम -
कौन पढ़ा रहा है
झूंठ की पोथियाँ
कौन उगा रहा है फल
जिसमे स्वाद नहीं
बस है कसैलापन
अब तो जागो
बदलो देशवासियों
वक्त आ गया है
पहनो चोला
इमानदारी का
खोलो अपनी
तीसरी आँख
बंद करवाओ
घोटालों का यह
वीभत्स आचरण !
डॉ सरस्वती माथुर
 "घोटाला !"
घोटालों की पिटारी
खोल कर दिखा रहें हैं
सपेरों से
फन खोले साँपों को कुछ लोग
और निकाल कर
जहर उनका बेच रहे हैं
कोई पूछे उनसे कि
मानव होकर
क्यों खेल रहे हैं
दानवता का खेल
बढा रहे हैं भुखमरी
कुम्हला रहा है
हमारा देश
यह बुद्ध गांधी
रवीन्द्र के देश में
कैसा धर लिया है वेश?
न किसी का डर इन्हें
न कोई शर्म
जमाखोरी - घूसखोरी का
माया जाल फैला कर
देश को विश्व में
गिरा रहें हैं
फूटपाथ पर गरीबों की
भीड़ बढ़ा रहे हैं
अपना जमीर बेच कर
देश को पाताल में
ले जा रहें हैं !
डॉ सरस्वती माथुर
October 9 at ....................
 
 
"सपने सजाना है !"
जीवन नदी
मन मंदिर
बजते हैं जिसमे
घंटे यादों के
एक चहकती
श्याम गौरैया से
फूल पे महकती
हवा जुगनू से
मन रोशन हैं
ख्वाब हैं मुरादों के
कुछ पाना है
सब भूल जाना है
मासूम नींद में
प्रेम रुपी ताजमहल के
मनभावन से
सपने सजाना है
कुछ बन दिखाना है
साथ वादों के
शीशे से जीवन को
पत्थर करना है
समय हाशियों पे
संग इरादों के
डॉ सरस्वती माथुर
"मेरे सपनो के ताजमहल !"
महत्वाकांक्षाओं के
कंगूरों पर बैठे हैं
समय के पाखी
उड़ने को
आसमान में
हम पर पंखहीन
आसमान को
देख रहे हैं
पाखी से
जरुर कुछ पाना है
अकेला मन है
बाधाओं की धूल है
घर बहुत दूर है
संघर्षों की आंधी हैं
चक्करघिनी सी
डोल रही है कश्ती
नज़र नहीं आती
कोई भी बस्ती
फिर भी नए
घर सजाने हैं
आँखों में सपनो की
इंटों से जगमगाते
ताजमहल बनाने हैं
इसलिए ढूंढ रहे हैं
पारस खान
डॉ सरस्वती माथुर
 
"मेरे सपनो के ताजमहल !"
सपने जब बोती हूँ
बिखरी नींद समेटती हूँ
दूर बादलों छुपी धूप में
एक छाया बनाती हूँ
देर तक बारिश के संग
गीत मल्हार गाती हूँ
खामोश मौसम में
पंछी बन उड़ जाती हूँ
स्वाति बूँद सी जब
सीपी में गिर जाती हूँ
मोती बन चमकती हूँ
और जब अकेली होती हूँ
खुद से बतियाती हूँ
अँधेरा होते ही रोज मेरे
सपनो के ताजमहल पर
एक रूह सी मंडराती हूँ
डॉ सरस्वती माथुर
 
तुम कहाँ हो ?"
सूरज की धूप सी
आई थी याद तुम्हारी
सुबह की ऊँगली थाम
हवा की मुंडेर पे
देर तक मुझ से
बतियाती रही
घुंघरू से बजते रहे थे
वो संवाद जो
एक नृत्यांगना की तरह
थिरकते थे
हमारे जीवन मंच पर
आज भी मन फूल पर
उड़ उड़ बटोरते हैं वो
मकरंद से दिन
पूछते हुए कि
तुम कहाँ हो ?
दिखते नहीं ,पर फिर भी
रहते हो आस पास
खुशबू की तरह
मन बगिया में
डॉ सरस्वती माथुर
 "तुम कहाँ हो ?"
नदी की कलकल सी
बहती हुई उतरती हूँ
पहाड़ों से
ढूंढती हूँ तुम्हे

हवाओं में
पूछती हूँ
राह में मिले
हर मौसम से कि
तुम कहाँ हो?
ओस में नहाते फूलों पे
कभी जब छलक आते हो
तो दिखते हो तुम
कभी कोयल की
गूँज में कूकते हो
कभी अमराई में भी
पंछी से चह्कते, डोलते हो
कभी मेरे मन क़ी
यादों में आ महकते हो
जाने क्यूँ
यह तुम्हारी याद
आज भी मेरे जीवन से
वैसे ही लिपटी है
जैसे सांप
लिपट जाता है
रातरानी से और
लहरें उमड़ आती है
हिचकोले खाती
मन पानी पे !
डॉ सरस्वती माथुर
 
 
तलाश कर

प्रेम के बीज

एक गुलशन

उगाना चाहती हूँ

बंज़र भूमि को

उर्वर बनाना चाहती हूँ

सृज़न के हर क्रम में

'जागृति लाना चाहती हूँ

रिश्तों की

अनुभूतियों को

आस्था विश्वास के

प्रस्तरों से पुख्ता

बनाना चाहती हूँ

जग से मिटाने को

भ्रष्टाचार -आतंक

भुखमरी -गरीबी

मैं नया परचम

फैलाना चाहती हूँ

सदभाव भरे मैं

नए गीत गाना

चाहती हूँ ....

मैं नए गीत

गाना चाहती हूँ...

मैं नए गीत

गाना चाहती हूँ ....!

डॉ सरस्वती माथुर
"एक बीज की तलाश !"

मन बगिया में

तलाश किया

रोपने को

एक बीज

जो नींद माटी में

उगाते हैं ख्वाब

जो फूल से

उगते हैं

जो गान हैं

कोयल के

जो बहते हैं

कलकल

सरिता से

जो जल कर

अगरबती से

मन मह्कातें हैं

फिर पंछी की तरह

आकाश पर

उड़ जाते हैं और

भोर की

जादुई ताजगी तक

बन सितारे

जीवन में

जग्मागाते हैं

डॉ सरस्वती माथुर
"एक बीज की तलाश !"

रिश्तों के

बीज लगा

आज तलाशे

तरु आशाओं के

तृण तृण जोड़

नीड बनायेँ

नवजीवन के

फूल खिलायें

फिर बोयें

ढाई आखर के बीज

फैंक धूप की धाराएँ

नया आकाश बनाये और

एक सूरज बन

किरणों से

बिखर धरा पर

छा जाएँ !

डॉ सरस्वती माथुर
"जीवन चक्र का अभिमन्यु !"

चक्रव्यूह सा

जीवन चक्र था

सुख दुःख के

पहरेदार खड़े थे

अंदर की

खामोशियों में

दांव पेच बहुत बड़े थे

मन का अभिमन्यु

चुप शांत खड़ा था

रहस्य में लिपटी

पतझर सी बिखरी

पत्तों सी विकलता

चहुँ ओर पड़ी थी

बंधक से

संवाद जड़े थे

अंधी बहरी व्यस्थाएं थी

पर घुसना था उस

वीहड़ पड़े

मौन वर्तमान में

तोड़ना था मन के

अभिमन्यू को

अनबोली चट्टानों के

रेगिस्तान में

ढूँढना था

चक्रव्यूह का द्वार ताकि

पी सकें कालिख सा

अंधियारा

और उगा सकें

डाल डाल पर मन की

दुनिया में खिले

सुमन सा उजियारा

बना जीवन को

एक मधुबन !

डॉ सरस्वती माथुर
जीवन चक्र!"

जीवन चक्र

एक लम्बे साये सा

आगे की तरफ था

पीछे पीछे भागी उसे

पकड़ कर बाँधने को

लेकिन धूप की तरह

हाथ न आया और

अंत में में मेरे मन के

अभिमन्यु ने सुझाया

तुम इसे छोड़ दो

मान मृगतृष्णा

क्योंकि साया नहीं देता

किसी का साथ

यह तो ओढाता है

आपको नकाब

बात समझ आई तो

साये को मैंने

पीठ दिखाई

पीछे देखा

चकित हुई थी

देख कर कि

वो परछाई मेरे

पीछे पीछे आ रही थी

मेरे साथ चल रही थी

पर मैं अब उसकी

पकड़ से दूर थी बस

थोड़ी सी हैरान थी!

डॉ सरस्वती माथुर "

"जीवन चक्र का अभिमन्यु !"

चक्रव्यूह सा

जीवन चक्र था

सुख दुःख के

पहरेदार खड़े थे

अंदर की

खामोशियों में

दांव पेच बहुत बड़े थे

मन का अभिमन्यु

चुप शांत खड़ा था

रहस्य में लिपटी

पतझर सी बिखरी

पत्तों सी विकलता

चहुँ ओर पड़ी थी

बंधक से

संवाद जड़े थे

अंधी बहरी व्यस्थाएं थी

पर घुसना था उस

वीहड़ पड़े

मौन वर्तमान में

तोड़ना था मन के

अभिमन्यू को

अनबोली चट्टानों के

रेगिस्तान में

ढूँढना था

चक्रव्यूह का द्वार ताकि

पी सकें कालिख सा

अंधियारा

और उगा सकें

डाल डाल पर मन की

दुनिया में खिले

सुमन सा उजियारा

बना जीवन को

एक मधुबन !

डॉ सरस्वती माथुर
जीवन चक्र में !"

दुःख सुख से

डरती नहीं

नदी की धार हूँ

तेल डूबी बाती हूँ

बस अँधेरा

करने को दूर

दीपक का आधार हूँ

नाव् सी हूँ

जर्जर होकर भी

दरिया पार हूँ

गूंगी हूँ पर

शब्दों को जो पिरो दे

रिश्तों में ऐसा

मैं तार हूँ

जीवन चक्र में

अभिमन्यु का

एक अवतार हूँ

!डॉ सरस्वती माथुर
"जीवन चक्र!"

जीवन चक्र

एक लम्बे साये सा

आगे की तरफ था

पीछे पीछे भागी उसे

पकड़ कर बाँधने को

लेकिन धूप की तरह

हाथ न आया और

अंत में में मेरे मन के

अभिमन्यु ने सुझाया

तुम इसे छोड़ दो

मान मृगतृष्णा

क्योंकि साया नहीं देता

किसी का साथ

यह तो ओढाता है

आपको नकाब

बात समझ आई तो

साये को मैंने

पीठ दिखाई

पीछे देखा

चकित हुई थी

देख कर कि

वो परछाई मेरे

पीछे पीछे आ रही थी

मेरे साथ चल रही थी

पर मैं अब उसकी

पकड़ से दूर थी बस

थोड़ी सी हैरान थी!

डॉ सरस्वती माथुर
Mathur "मेरी उड़ान!"

तन की भूख तो

मिट जाएगी रोटी से

मन की भूख के लिए

माँ भेजो न

मुझे भी तो

पढने पाठशाला

भाई तो गया स्कूल

मुझे सोंपें तुमने

घर के काम

यह है तुम्हारी

भारी भूल

मैं भी तो हूँ माई

तुम्हारी जाई फिर यह

असमानता क्यूँ ?

मुझे भी दो न तुम

जीने का हक़

क्यों है तुम्हे

मेरी क्षमताओं पे शक

मुझे नहीं रहना

बन कर अबला

बनने दो न मुझे

तुम एक सबला

मेरी आँखों की

चमक तो देखो

मेरे मन की

उमंग भी देखो

जरा तो समझो की

मेरी निगाहें

भविष्य पे हैं

तुम मेरा साथ तो दो

मेरे हाथों में

हाथ तो दो

फिर देखना

मेरी उड़ान

बन जाएगी

तुम्हारी भी पहचान

और मैं ही करुँगी पूरे

तुम्हारे सपने

तुम्हारे दबे

सारे अरमान

उसी इंतज़ार में

टकटकी लगाये हूँ

इस आस के साथ की

वो समय भी जल्द आएगा

जब लिंग भेद

जड़ से मिट जाएगा !

डॉ सरस्वती माथुर
पाखी सी उड़ना !"

बच्ची तुम वरदान हो
भारत की पहचान हो
तुम्हारी आँखों की चमक
और होठों की खिली मुस्कान
सभी मजहबों से बड़ी है
तुम्ही गीता, गुरुग्रंथ, बाईबल
और हमारी कुरआन हो
जल्दी वो घडी आएगी
भूख प्यास सब मिट जाएगी
एक नया युग लेके आएगी
आने वाली पीढ़ी की आँखों में
यह सपना उगाना होगा अब
एक नया सूर्य उदित कर
ओ पाखी सी बिटिया
भूख प्यास ही नहीं बल्कि
देखना इस भारत को फिर से
सोने की चिड़िया बनाना होगा
फिर परी के जैसे तुम लगा
सपनो के पंख
उन्मुक्त होकर
देश की मुख्यधारा से जुड़ कर
खुले आसमान में पाखी सी उड़ना
पाखी सी उड़ना
पाखी सी उड़ना ......!
डॉ सरस्वती माथुर
 "हिंदुस्तान सी खड़ी थी !"

तू देश आँगन की फुलवारी

मुझे लगी बहुत प्यारी

मैं जा रही थी मंदिर

जाना हुआ भारी

बीच सड़क पर

तू हिन्दुस्तान सी खड़ी थी

तुझे देख मेरी आँखें थीं भरी

मैंने पकडाया अपना लंच पैकेट तुझे

तब भी तू भोंचक्की थी

पेट की भूख तेरी आँखों में

चमक रही थी लेकिन तेरी निगाहें

उस पथ पर जड़ी थी जहाँ से

लौट के आती है रोज तेरी माँ

तेरे भूखे भाई बहिन के साथ

तेरे बाल मन को इंतज़ार था

तुझे सच अपनों से कितना प्यार था

तू औचक सी खड़ी थी

लिए हाथ में मेरा दिया खाना

मुझे याद आ रहीं थी कुछ पंक्तियाँ

" फिर किसी रोज चलेंगे ए दोस्त

मस्जिद-मंदिर में पहले भूखा जो ये

बच्चा है उसे कुछ खिला लें हम "

मेरा मन उदास था पर

बच्ची तेरे चेहरे पे गजब

आत्मविश्वास भरा था

तेरी आँखें बोल रही थी कि

एक दिन जरूर आएगा

जब इस हिन्दुस्तान की

तस्वीर भी बदलेगी !

डॉ सरस्वती माथुर
एक अधूरी हसरत के परींडे !"
मन के इतिहास में
जीवन का हर क्षण
नियंता हैं और विरासत में
सौंप गया है प्रारब्ध
जो एक अधूरी
हसरत के परींडे पर
कच्ची मिट्टी के
कुम्भ की तरह रखा है
जीवन के आँगन में
जिसमे अस्मिता की
अलगनी पर
कपड़ों की तरह टंके हैं
भ्रमित आवरण
प्रश्नों के कंगन और
कालखंड की परिधि के
साथ घूमते हैं
आस्था विश्वास और
संवेदना के
दिग्भ्रमित
तदन्तर बंधन !
डॉ सरस्वती माथुर
अधूरी हसरतों को!"
हम कभी कभी
अपनी अधूरी हसरतों को
मन के उड़नखटोले पर
बिठा कर उड़ने देते हैं
भावनाओं के पार
बहती हवाओं के साथ
हसरतें बहती रहती हैं
चाँद तारों वाले
आसमान तक पहुँच
वो बादल बन जातीं हैं,
बूंदों को समेट
वो भारी हो जातीं हैं और
एक दिन एक पाखी बन
धरा पर उतर आती हैं
एक नया नीड बनाने ..
.तभी .समय का लकडहारा
वहां से गुजरता है और
उस तरु का तना
काट कर ले जाता है
हसरतों की रूह उसी में
अटकी रह जाती है ...
लकडहारा बढ़ई को सौंप कर
सिक्के खनखनाता
लौट जाता है ..
बढ़ई बड़ी तन्यमयता से
उस तने पर नक्काशी कर
एक सुंदर राजमहल में
रहने वाली राजकुमारी के लिए
एक साज़ तैयार करता है और
हसरत की रूह
उस साज़ के तारों में
दफ़न हो जाती है
जब भी कभी उदासी से
घिर जाती है
उस साज़ के तारों को
राजकुमारी छेड़ देती है और
कुछ देर तक रूह के आसपास भी
सुकून का संगीत
बज़ एक लोक कथा की तरह
घर आँगन में दोहराया जाता है
कि राजकुमारी के अंदर
एक रूह रहती है जो
उसकी हर इच्छा पूरी करती है ...
अगर सुबह सुबह कोई
दर्शन कर ले राजकुमारी के
मासूम चेहरे के तो
सभी मन्नत पूरी होंगी
बस तभी से
राजमहल के बाहर
भीड़ लगी रहती है .....
कौन है यह रूह
,कहाँ से आई
इस पर वैज्ञानिकों के
शोध चल रहें हैं और
पिंजरे में बंद तोते से
सवाल पूछ जा रहें हैं ..
.कहानी का अंत जाने
कब पूरा होगा यह केवल
वैज्ञानिक ही बता सकेंगे...
तब तक इंतज़ार करें
बस अपनी हसरतों और
खवाबों को पूरा करने की
कोशिश हमेशा जारी रखें !
डॉ सरस्वती माथुर


  • Saraswati Mathur "अधूरी हसरतें !"
    घुमक्कड़ हो गई
    मन की अधूरी हसरतें
    खानाबदोश सी घूम रही है
    रेगिस्तान की रेत पर

    जल ढूंढ़ रही है
    सूखती बेल सी
    लिपट सपनो के वृक्ष पर
    बहती तेज हवा संग
    इंतज़ार कर रही है
    समय माली का
    जो सींच कर फिर
    हरा भरा कर देगा उसे
    कभी कभी मुझे
    नुरानी रूह सी लगती है
    यह अधूरी हसरत जो
    उड़ती रहती है
    मन आसमान पर
    पाखी सी बिना
    आस छोड़े
    ढूंढ़ती रहती है
    आशाओं का शरीर
    जिसमे प्रवेश पाकर
    शायद कर पायेगी
    पूरी अपनी
    अधूरी हसरतें
    तब तक यूँ ही
    यायावरी हवा सी
    डोलने दो उसे
    जीवन के जंगल में
    डॉ सरस्वती माथुर

  • Saraswati Mathur वे हसरतें हैं

    मेरे सम्मुख

    अधूरी हैं अभी पर

    जोंक सी मेरे मन पर

    चिपक कर पी रहीं हैं

    अनुभूतियाँ मेरी

    एक तैलया सी

    रुक गयी हैं

    अधूरी हसरतें

    अलबत्ता नदी सी

    कलकल अब भी

    गाहे बगाहे

    मन के एक कोने में

    बह रहीं हैं

    मेरे अस्तित्व का सागर

    एक जलपाखी सा

    अब तक तैर रहा है

    हसरतों की नाव पर

    एक दिन वो परी

    सी मेरे उनींदे

    सपने में आकर बोली

    देखना एक दिन मैं

    तुम्हारे लिए सुंदर

    स्वर्ग सा संसार रचूँगी

    तब तक अपनी अनुभूतियाँ

    सीपी में बंद मोती सी रखो

    रोज सुबह लहरों की

    मुरकियां गिनो जो

    बहती है हवा में

    मैं जल्द लौटूंगी

    उस दिन जब

    सूर्य नहीं उगेगा

    अजीब लगा मुझे भी

    देख रहीं हूँ सूर्य

    रोज आ रहा है और

    रोज मेरी हसरतों की

    रसधार किरणे पीकर

    जगमगाता है

    मैं फेन की तलछट सी

    अब भी बिखरी हूँ

    इंतज़ार के

    खामोश तट पर

    मोती निकली खाली

    सीपियों के

    खोलों के साथ !

    डॉ सरस्वती माथुर

     
    तांका :अमन हमें प्यारा

    1

    सत्य- अहिंसा

    प्रेम सुधा बरसा

    मातृभूमि में

    लहराया है झंडा

    अमन हमें प्यारा

    2

    विश्व भर में

    तिरंगा- एकता का

    देता सन्देश

    सदभाव सिखाये

    प्रेम के पथ पर



    शांत धरा सा

    भारत देश प्यारा

    शहीद हुए

    कुर्बान देश पर

    दिला आजादी



    पुष्प चढ़ाऊँ

    आजादी पर्व पर

    एकता पिरो

    गूंथ मोती की माला

    मेरा देश निराला



    कोशिश करें

    प्यार की सुगंध से

    मिलजुल के

    देश को महकाए

    सदभाव सिखाएं

    डॉ सरस्वती माथुर
     
    देश के साथ यात्रा

    आओ मेरे देश
    एक दीप की तरह
    ज्योतित होकर
    साथ चलो मेरे क्योंकि
    कोई इंतज़ार नहीं करता
    तारीखों के ठहर जाने का
    हम साथ होंगे तो
    देश के लिए
    इतिहास बनायेंगे
    जहर का प्याला पीकर
    देश के लिए
    अमृत जुटाएँगे
    फिर मूक हो जाएँगे
    ताकि देश गा सके
    विश्वास के गीत
    आस्था और
    सदभाव के गीत
    हम चलते चले जायेंगे
    दूर की यात्राओं में
    साफ़ सुथरी
    सुबह की तरह
    गुजर जायेंगे
    अंधी सुरंग से
    रोशनी की हवा लेकर
    जरुरत हुई तो
    अंधे हो जायेंगे ताकि
    देश को नेत्र मिलें
    प्रतीक्षा करेंगे
    मौत की
    देश को जिलाने में
    आओ मेरे देश
    साथ चलें
    एक दीप की तरह
    ज्योतित होकर !

    डॉ सरस्वती माथुर
    16 अगस्त 2012
    यह देश हमारा!"

    भारत है मधुमय प्यारा
    मनभावन यह देश हमारा

    रंजिस इसकी ख्वाइश नहीं
    ईद दिवाली इसकी पहचान
    अपनी करे नुमाइश नहीं
    एकता समता का यह धाम

    घृणा इसकी है रीत नहीं
    सद्भावना का है रखवारा
    दंगे फसाद से प्रीत नहीं
    प्रेमदीप का यह अंगारा

    विभिन्नता में एकता का
    गाँधी सुभाष नेहरु का देश
    करुणा- बंधुता समता का
    देता है यह प्रेरक सन्देश

    अहिंसा इसकी विचारधारा
    देश का पसंद नहीं बंटवारा
    डॉ सरस्वती माथुर
    \
    Saraswati Mathur "शहीद की बीबी "
    तुम ऐसे गए बीत
    जैसे हो इतिहास
    सोचा था मैंने कि
    हवा की तरह तान लूंगी तुम्हे
    लेकिन तुम लौट कर नहीं आये
    मैं भी भूल गयी थी कि
    तुम तो स्वप्न हो गए हो
    अब यथार्थ नहीं रहे
    ओ मेरे- सुनो ,
    तुम आज भी मेरे लिए अंदाज हो ,
    अहसास हो ,मधुमास हो
    एक शहीद की बीबी होने का
    तुमने दिया है मुझे मान
    मुझे नहीं है गम अब
    तुम्हे खोने का क्यूंकि
    जो मैंने पाया है
    वह मेरे लिए एक नियति है
    धूप की तरह जिसे बांध कर मैं
    आँचल में नही रख रख सकती
    पर प्रिय आज मैं
    तुमसे कहती हूँ कि
    कल सिर्फ तुम मेरे प्राण थे
    आज सारे भारत की शान हो
    सच प्रिय तुम
    कितने महान हो
    अमर ज्योति नभ के
    चमकते तारे हो
    हमारे भारत की
    शान हो...
    शान हो ....
    शान हो ........!
    डॉ सरस्वती माथुर

    "मधुमय देश !"


    देश में सच्चाई का परिवेश रहे
    विश्व पटल पे मधुमय देश रहे

    विभिन्नता में एकता का यहाँ
    तिरंग झंडे में हमेशा सन्देश रहे
    ...

    सद्भावना-समता के रखवारे की
    पहचान- अनूठी ऊँची विशेष रहे

    देश के बागियों से निपटने का
    जन जन में एक सा आवेश रहे

    अहिंसा-करुणा की शांत धरा में
    वसुधेव कुटुम्बकम का परिवेश रहे
    डॉ सरस्वती माथुर

    राष्ट्र ने देखे कुछ सपने
    अहिंसा से हों सब अपने

    होंसलों की उड़ान भरें तो
    नव आकाश लगे दिखने

    विश्व भर में रहे न्यारा
    एक चमकता यह तारा

    द्वेष छोड़ सदभाव् से रहें
    प्रेम पथ पर लगें चलने

    सद्भावना की चौखट पर
    सन्देश लगेगा यही मिलने
    डॉ सरस्वती माथुर

     
     " एक बुजुर्ग !"

    अकेलेपन के सूरज को

    रुक कर देखता

    एक बुजुर्ग

    क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं

    समय की आराम कुर्सी पर

    किताबों को पलटते हुए

    रुक कर देखता है

    एक बुजुर्ग

    उस दरवाजे की ओर

    जहाँ से शायद आये

    उसका बेटा या बहू ,

    बेटी या पोता और

    हाथ में हो चश्मा

    जिसकी डंडी

    बदलवाने के लिए

    पिछले महीने वो

    जब आये थे तो

    यह कह कर ले गए थे कि

    कल पहुंचा देंगे

    हर आहट पर

    चौंकता है एक बुजुर्ग

    दरवाजा तो दीखता है पर

    बिना चश्मे किताब के अक्षर

    देख नहीं पाता

    हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित

    समय सारिणी के बीच

    समय निकाल कर

    पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का

    हाथ पकड कर

    उस इंतज़ार का

    हिस्सा जरुर बनता है

    डॉ सरस्वती माथुर
     
     "उनकी मुस्कान !"

    और अब वे अपने

    अंतिम चरण में थी

    ,बुजुर्ग जो थीं

    उन्हें मालूम था कि

    यह नियति है और

    वे इंतज़ार में थी

    अब देर तक बगीचे में

    काम करती हैं

    स्कूल से लौटे

    पोते पोतियाँ के जूतों से

    मिटटी हटा कर खुश होती हैं

    उनके धन्यवाद को पूरे दिन

    साथ लिए, मुड़े शरीर के साथ

    लंगडाते हुए, इधर- उधर घूमती हैं

    याद करती हैं ,तालियों की

    उन गूंजों को

    जो समारोह में उनकी

    कविताओं के बाद

    देर तक बजती थीं

    अपने हमउम्र दोस्तों के साथ

    सत्संग में बैठ कर

    भजन सुनते हुए सोचती थीं

    उन दिनों को

    जब घडी की सुइयां

    तेज दौडती थीं और

    वे उसे रोक लेना चाहती थीं

    अब वे अपने कमरे की

    खिड़की से दिखते

    समुन्द्र को देर तक

    निहारते सोचतीं थीं कि

    वक्त कहाँ बाढ़ की तरह

    बह गया और

    यह सूरज भी

    कितना कर्मठ है

    रोज थक कर

    डूबता है और

    तरोताजा होकर

    उगता है

    यह सोचते ही

    उनके पूरे शरीर में

    सूरज की प्रथम

    किरणों की तरह

    जीने की उमंग

    कसमसाने लगती है और

    पूरे दिन एक

    मुस्कान की तरह

    उनके होंठों पर

    तैरती रहतीं है !

    डॉ सरस्वती माथुर
     
     एक बुजुर्ग !"

    अकेलेपन के सूरज को

    रुक कर देखता

    एक बुजुर्ग

    क्षण और घंटे गुजरते जाते हैं

    समय की आराम कुर्सी पर

    किताबों को पलटते हुए

    रुक कर देखता है

    एक बुजुर्ग

    उस दरवाजे की ओर

    जहाँ से शायद आये

    उसका बेटा या बहू ,

    बेटी या पोता और

    हाथ में हो चश्मा

    जिसकी डंडी

    बदलवाने के लिए

    पिछले महीने वो

    जब आये थे तो

    यह कह कर ले गए थे कि

    कल पहुंचा देंगे

    हर आहट पर

    चौंकता है एक बुजुर्ग

    दरवाजा तो दीखता है पर

    बिना चश्मे किताब के अक्षर

    देख नहीं पाता

    हाँ "ओल्ड होम" की निर्धारित

    समय सारिणी के बीच

    समय निकाल कर

    पास बैठे दूसरे बुजुर्ग का

    हाथ पकड कर

    उस इंतज़ार का

    हिस्सा जरुर बनता है

    डॉ सरस्वती माथुर
     
    "जीना इसी का नाम है !"

    वो इतने बूढ़े थे कि

    उनकी हड्डियाँ

    उनकी त्वचा में

    तैरती थीं

    मैं उनमे अपने आपको

    डूबता सा महसूस करती थी

    वो इतने कमजोर थे

    जितने नवजात शिशु के पैर

    पर उनकी मुस्कान

    इतनी गहरी थी कि

    उसमे मैं नदी की सी

    कलकल सुनती थी

    जो उनके होठों के चारों तरफ

    सांसों से गुजरती थी और

    वो इतने तैयार थे कि

    मुझे समुन्द्र से भी गहरे

    गंभीर और अथाह दिखते थे,

    सच- मुझे लगता था कि

    जीना इसी का नाम है !

    डॉ सरस्वती माथुर
     
    मन को जोड़ा
    घोल के मधुरस
    राखी आई
    आशीष देता भैया
    बहिन ले बलैया ! डॉ सरस्वती माथुर

  • Saraswati Mathur " रेशम की डोर !"

    राखी पर्व पे

    भाई करें मनुहार

    आ री बहना

    खींचें हैं बहिन को

    भाई का प्यार

    मखमली से धागे

    बहिन बांधे

    भाई की कलाई पे

    तो बंधें मन

    आशीर्वाद दे भाई

    भीगी आँखों से

    खुश रह बहना

    बहिन कहे

    आ तिलक लगा दूं

    लेके बलैया भैया !

    डॉ सरस्वती माथुर
    ........................

  •  
    बन चिड़िया

    मन मुंडेर

    उतर आई बहना

    बांधा हाथ में

    रक्षा का धागा

    भाई का तो

    वो है गहना

    भाई बहिन के बीच

    सेतु सी यह

    डोर भुला देती है

    सारे अनबन

    मन हो जाता

    है मधुबन

    स्नेह का होता है

    बंधन ख़ास

    मन को देता यह आभास

    कभी नहीं होती बहना भार

    पर्व का सन्देश भी यही

    राखी तो होता

    मिश्री मिठास भरा

    भाई बहिन का त्यौहार

    डॉ सरस्वती माथुर
    Saraswati Mathur "मन राखी पर!"

    भरा भरा हो ज़ाता है

    बहिन का मन राखी पर


    भाई भी भावों में बह ज़ाता है

    इस मिठास भरे पर्व पर

    सावन आते ह़ी नदिया सी

    बहने लगती हैं बहने

    भाई भी लहरों सा

    कलकल करता है

    रेशम डोर पहन कर

    दोनों का दिल

    मचलता है मिलने को

    यह होता है स्नेहिल

    प्यारा बंधन

    भाई गाता है गीत तो

    बहने होती हैं सरगम

    भाई खिलता है फूल सा

    बहिन हो जाती है

    इन्द्रधनुषी रँग

    दोनों ह़ी स्नेह का यह

    उत्सव मनाना

    चाहते हैं संग- संग

    डॉ सरस्वती माथुर






  • Saraswati Mathur चौका

    " रेशम की डोर !"

    राखी पर्व पे


    भाई करें मनुहार

    आ री बहना

    खींचें हैं बहिन को

    भाई का प्यार

    मखमली से धागे

    बहिन बांधे

    भाई की कलाई पे

    तो बंधें मन

    आशीर्वाद दे भाई

    भीगी आँखों से

    खुश रह बहना

    बहिन कहे

    आ तिलक लगा दूं

    लेके बलैया भैया !

    डॉ सरस्वती माथुर

    दिल जुड़ेगा
    राखी के स्नेह तार
    निरखे भैया
    बाँधती बहिन तो
    रसपगे तारों से
    3
    भाव पावन
    रसपगा सावन
    बँधेगा मन
    स्नेह बरसा कर
    राखी के पर्व पर
    4
    अनुभूति से
    आस्था के पर्व पर
    भाई- बहिन
    रसधार में भीगे

    डॉ सरस्वती माथुर

    दिल जुड़ेगा
    राखी के स्नेह तार
    निरखे भैया
    बाँधती बहिन तो
    रसपगे तारों से
    3
    भाव पावन
    रसपगा सावन
    बँधेगा मन
    स्नेह बरसा कर
    राखी के पर्व पर
    4
    अनुभूति से
    आस्था के पर्व पर
    भाई- बहिन
    रसधार में भीगे
    राखी त्योहार पर
    5
    भाई के नैन
    सात सागर पार
    राखी पर्व पे
    भर- नीर बहाए
    बहना याद आये
    ...............................

  • .. "ओ शाम !"
    ओ बासंती शाम
    बहुत दिनों से
    देख रही हूँ
    ठंडी हवा के झोंके
    तुम्हे उदास कर जाते हैं
    और तुम पाखी सी
    दिशाओं के आर पार
    डोलती हो मौसम की
    कतरने बिनती हो
    अतीत की तरह
    फैले संसार में
    मेह ,शरद
    .हेमंत ,बसंत की
    ज्यामिती में
    भीगी ऋतुओं से
    रेखाएं खींचती हो
    ऐसा लगता है मानों
    पूछ रही हों
    श्वेतपांखी सुबह से कि
    जीवन की इस
    अनोखी राह पर
    यह कैसा लम्बा सफ़र है
    दोस्तों ,कभी चहचहाता
    दिन आता है
    कभी मौन रात
    ओ शाम
    बासंती शाम
    हाशियों में पड़ा
    तुम्हारा सवाल
    अनुतरित सा
    मुझे कह जाता है कि
    किनारा समझ कर
    मौसम ने
    बांधी है कश्ती
    जहाँ वे सब तो
    मझधारे हैं
    और हम तुम तो
    सुनो मौसम
    घर बसा कर भी
    बंजारे हैं !
    डॉ सरस्वती माथुर

     
    "श्यामल परी सी शाम !"
    घिर आई हो
    झुरमुटी शाम तुम
    चह्चहाती
    पाखी बन
    विहंसती सी
    उतरी हो
    मेरे मन की
    मुंडेर पर तो देखो न
    सिन्दूरी यादों के साथ
    फिर अंकुरित हो गएँ हैं
    वो भीगे भीगे से दिन
    जब मैं अपने
    घर की छत पर बैठ कर
    तुम्हे देखा करती थी
    तुम चंचल हिरनी सी
    डोलती थीं, देखती थी मैं
    तुम्हारे रंग बदलते साए
    देखा करती थी
    तुम्हे कभी
    पहाड़ों से उतरते
    कभी दरख्तों पर सोते
    कभी नीड़ में दुबके
    परिंदों से बतियाते
    कभी झील में उतरते
    कभी समुन्द्र की
    लहरों संग टहलते तो
    कभी नदी की
    गति के संग
    तेज दौड़ते
    तुम्हारी वो
    रंग बदलती
    ढली धूप के साए भी
    पवन झोंकों पर चढ़
    आसमान पर
    चढ़ जाते थे और
    सूर्य के नारंगी
    सात घोड़े वाले रथ को
    धकियाते समुन्द्र तक
    छोड़ने जाते थे
    मैं भी आकंठ
    डूब जाती थी
    मुझे तुम्हारी किरणों की
    आदत थी और
    अब मैं जहाँ हूँ
    वहां से भी देखती हूँ तुम्हे
    लेकिन अब तुम
    बदली सी लगती हो
    जाने क्यूँ थकी सी
    उतरती हो
    मेरी मन मुंडेर पर
    बिखरी रुपहली
    रश्मियों से लिपटी
    धरती आकाश के बीच
    श्यामल परी सी !
    डॉ सरस्वती माथुर

    ........
    मेघ पाखी संग

    देर तक उडूँगी

    सजा कर

    सावन भीगी शाम

    लहरों सी उठूंगी

    फिर यादों के तटों पर

    फेन सी बिखरूंगी

    ओक भर रेत

    जब मुझे पी लेगी

    तब रिमझिम

    बरसते जल के साथ

    वापस सागर में

    जा मिलूंगी

    फिर बैठ कर

    शाम के साथ

    खारा जाम

    तुम्हारी याद की

    मिठास भर पिऊँगी और

    तुम्हारे नाम कर दूँगी

    ये खुबसूरत शाम

    फिर डूब जाउंगी

    सूर्य सी

    बीती यादों संग

    हाँ, जलपाखी से

    तुम- यहीं रहना

    शाम के सायों में

    मेरे संग -बस मेरे संग !

    डॉ सरस्वती माथुर
     
    "सवेरे की चौखट पर!
    "आज भी
    शाम को रोक कर
    सूरज को मैंने
    छिपा लिया था
    मन के सागर में और
    घुले सूरज से
    लाल हुए पानी में
    देर तक पैर डुबो
    बैठी- देखती रही
    घर लौटते
    पाखियों को
    यह देखना भी
    अपने आप में एक
    अहसास था
    अपने आप से
    संवाद करते हुए
    मैंने देखा कि
    उदास सा चाँद
    चांदनी संग
    नभ कंगूरे पर
    जुगनू सा
    चमक रहा था
    सितारों वाली
    चुन्नी ओढ़
    चांदनी भी
    ठोड़ी पे हाथ रखे
    टिमटिमाती ढिबरी सी
    नभ चौरे पर खड़ी
    कुछ सोच रही थी
    तभी सागर के ठहाके से
    चौंक उठी थी मैं
    भौंचक औचक सी
    जागी, अरे ...
    पांखियों के कलरव को
    एक दिशा दिखाता
    श्वेत परिधान पहने
    किरणों से
    घिरा सूर्य
    सवेरे की चौखट पर
    मुस्कराता खड़ा था
    मानो मुझ से
    पूछ रहा हो
    क्या कोई
    सुंदर सपना
    देख रही थीं ?
    डॉ सरस्वती माथुर
    .....................................................................
     
    इन्द्र की स्तुति करते

    थक गए हैं लोग और

    कुछ उगा रहे हैं चंदे
    ...

    अकाल के नाम पर

    विकास का पहिया

    खेतों की खुशहाली के

    पास अटका है

    पपड़ाई जमीन पर

    गड़ी है पथराई आँखें

    प्यासी फसलें लिख रही हैं

    भूख और

    लाचारी का इतिहास

    बादलों की गरज पर

    चमक उठती है

    सूखी आँखे

    फडफड़ा उठती हैं

    स्वाति बूँद की

    आस में

    चातक की पांखें

    चौपाल पर

    हुक्का गुडगुडाते

    बुजुर्ग निहारते हैं

    इधर से उधर दौडती

    राहत कार्य करती

    जीपों को और

    दोहराते हैं पुराने

    किस्से बावडियों के

    तड़की जमीन पर

    सतोलिया खेलते

    बच्चों के समूह

    माँ की आवाज़ पर

    रुक जाते हैं

    हवा दूर से

    खंखारती आती है

    बन्नो की माँ

    रोज गाती है

    " काले मेघा पानी दे

    पानी दे गुडधानी दे

    "अकाल की त्रासद

    बढती ही जाती है !

    डॉ सरस्वती माथुर
    See More
    Like · · · June 11 at 12:57am

    • विभा रानी श्रीवास्तव वसंत के मोहक

      वातावरण में ,

      धरती हंसती ,

      खेलती जवान हुई ,

      ग्रीष्म की आहट के

      साथ-साथ धरा का

      यौवन तपना शुरू हुआ ,

      जेठ का महीना

      जलाता-तड़पाता

      उर्वर एवं

      उपजाऊ बना जाता ,

      बादल आषाढ़ का

      उमड़ता - घुमड़ता

      प्यार जता जाता ,

      प्रकृति के सारे

      बंधनों को तोड़ता ,

      पृथ्वी को सुहागन

      बना जाता ....

      नए - नए

      कोपलों का

      इन्तजार होता ....

      मॉनसून जब

      धरा का

      आलिंगन

      करने आता ....

    • Rashmi Prabha तप्त शरीर दग्ध आत्मा
      जलन बढाती धरती
      ना है वायु , ना है बूंदें
      सांसें रुक रुक चलती
      पंछियों ने चोंच है खोले
      शुष्क आँखें हैं कहती -
      अल्लाह मेघ दे पानी दे ....
      .....
      कब किया निराश अल्लाह ने
      उमड़ उमड़ कर बादल आए
      टिप टिप टिप टिप जल बरसाए
      सावन के आने से पहले
      फूलों का झुला बनाये
      बाजे मृदंग
      नाचे मयूर
      बच्चे कागज़ की नाव बनाये
      ....
      भीगा तन भीगा मन
      धरती झूम झूम गाये
      ॐ ॐ की बाजे धुन
      शिव के आने का सन्देश है सुनाये
      सोंधी सोंधी धरती
      बूंदों के संग
      स्वागत में शिव के अल्पना सजाये
      .........

    • Meenakshi Dhanwantri पृथ्वी के होठों पर पपड़ियाँ जम गईं
      पेड़ों के पैरों मे बिवाइयाँ पड़ गईं.
      उधर सागर का भी खून उबल रहा
      और नदियों का तन सुलग रहा.
      घाटियों का तन-बदन भी झुलस रहा
      और झीलों का आँचल भी सिकुड़ रहा.
      धूप की आँखें लाल होती जा रहीं
      हवा भी निष्प्राण होती जा रही.
      तब
      अम्बर के माथे पर लगे सूरज के
      बड़े तिलक को सबने एक साथ
      निहारा ---
      और उसे कहा ---
      काली घाटियों के आँचल से
      माथे को ज़रा ढक लो .
      बादलों की साड़ी पर
      चाँद सितारे टाँक लो
      और फिर
      मीठी मुस्कान की बिजली गिरा कर
      प्यार की , स्नेह की वर्षा कर दो
      धरती को हरयाले आँचल से ढक दो
      प्रकृति में, इस महामाया में करुणा भर दो .....!

    • Vandana Gupta जानते हो
      एक अरसा हुआ
      तुम्हारे आने की
      आहट सुने
      यूँ तो पदचाप
      पहचानती हूँ मैं
      बिना सुने भी
      जान जाती हूँ मैं
      मगर मेरी मोहब्बत
      कब पदचापों की मोहताज हुई
      जब तुम सोचते हो ना
      आने की
      मिलने की
      मेरे मन में जवाकुसुम खिल जाता है
      जान जाती हूँ
      आ रहा है सावन झूम के
      मगर अब तो एक अरसा हो गया
      क्या वहाँ अब तक
      सूखा पड़ा है
      मेघों ने घनघोर गर्जन किया ही नहीं
      या ऋतु ने श्रृंगार किया ही नहीं
      जो तुम्हारा मौसम अब तक
      बदला ही नहीं
      या मेरे प्रेम की बदली ने
      रिमझिम बूँदें बरसाई ही नहीं
      तुम्हें प्रेम मदिरा में भिगोया ही नहीं
      या तुम्हारे मन के कोमल तारों पर
      प्रेम धुन बजी ही नहीं
      किसी ने वीणा का तार छेड़ा ही नहीं
      किसी उन्मुक्त कोयल ने
      प्रेम राग सुनाया ही नहीं
      कहो तो ज़रा
      कौन सा लकवा मारा है
      कैसे हमारे प्रेम को अधरंग हुआ है
      क्यूँ तुमने उसे पंगु किया है
      हे ..........ऐसी तो ना थी हमारी मोहब्बत
      कभी ऋतुओं की मोहताज़ ना हुई
      कभी इसे सावन की आस ना हुई
      फिर क्या हुआ है
      जो इतना अरसा बीत गया
      मोहब्बत को बंजारन बने
      जानते हो ना ...........
      मेरे लिए सावन की पहली आहट हो तुम
      मौसम की रिमझिम कर गिरती
      पहली फुहार हो तुम
      मेरी ज़िन्दगी का
      मेघ मल्हार हो तुम
      तपते रेगिस्तान में गिरती
      शीतल फुहार हो तुम
      जानते हो ना...........
      मेरे लिए तो सावन की पहली बूँद
      उसी दिन बरसेगी
      और मेरे तपते ह्रदय को शीतल करेगी
      वो ही होगी
      मेरी पहली मोहब्बत की दस्तक
      तुम्हारी पहली मौसमी आहट
      जिस दिन तुम
      मेरी प्रीत बंजारन की मांग अपनी मोहब्बत के लबों से भरोगे ...........

    • Saras Darbari ग्रीष्म की भीषण गर्मी से जब तन मन क्लांत हो जाता है -
      जब तृषित धरती तुम्हारी प्रतीक्षा में पलक पावडे बिछाये रहती है -
      तब याद आ जाते हैं -
      जीवन के विभिन्न पड़ावों पर-
      तुम्हारे साथ बिताये वह पल...
      और भीग जाता है तन ..मन...

      याद आते हैं -
      बचपन के वे दिन -
      जब कागज़ की कश्तियों की रेस में -
      तुम मुस्कुराकर आशवस्त करतीं -
      घबराओ नहीं ...तुम्हारी कश्ती नहीं डूबने दूँगी ...

      या वह शामें -
      जब घर से काफी दूर -
      सहेली की छत पर-
      बौछारों की सुइयों से आंख, मूंह मींचे
      घंटों बाहें फेलाए भीगते रहते -
      और पूरी तरह तर बतर -
      डांट के डरसे फिंगर्स- क्रोस्ड...
      घर पहुँचते ...
      पड़नी तो थी .....पर ज़रा कम पड़े ....
      माँ डांटती जातीं
      और हम सर झुकाए
      उन्ही पलों को मन ही मन दोहराते ....
      एक स्मितहास चेहरे पर उभर आती -
      तभी मौके की नजाकत को भांप -
      एक अवसाद ओढ़ लेते चेहरे पर !
      माँ भी जानतीं थीं -
      कल फिर यही होगा .......

      फिर समय बीता -
      अहसास बदल गए -
      मायने बदल गए -
      पर रहीं तब भी तुम-
      मेरी अन्तरंग !!!
      अब मेघों में 'उनकी' सूरत दिखाई देती -
      कभी उन्हें ...कभी चाँद को अपना दूत बनाती....
      और 'वह 'मेरा सन्देश पा चले आते !

      फिर समंदर के किनारे वह बारिश में भीगना -
      ठण्ड में ठिठुरते कांपते चाय की चुस्कियां लेना -
      ओपन -एयर रेस्तरां में पनीर के गर्म पकौड़े -
      और वह शोर !
      समंदर का ...
      हमारे अहसासों का ....
      उनके जाने के बाद हफ़्तों उस सूख चुकी साड़ी को निहारना -
      और फिर भीग भीग जाना ......

      तुमने तो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा -
      मन जब भी दुःख से कातर हुआ है -
      तुम मेरे साथ बरसी हो -
      तन भीगता जाता ...
      और तुम मेरे आंसुओं को धोती जातीं -
      तब लगता घुलकर बह जाऊं तुम्हारे साथ ...

      कुछ ऐसा ही आज भी लग रहा है -
      ग्रीष्म की इस भीषण गर्मी में .....

    • सुशीला श्योराण प्रस्तुत है एक गीत-

      जले धरती
      गर्म पवन
      व्याकुल प्राणी
      आकुल मन
      उमड़-घुमड़ कर बरसो घन !

      कुम्हलाएँ बिरवे
      मुर्झाएँ फूल
      सूखी नदिया
      उड़ती धूल
      उमड़-घुमड़ कर बरसो घन !

      फटी धरती
      बिलखें किसान
      सूखी बावड़ी
      पंछी हलकान
      उमड़-घुमड़ कर बरसो घन !

      गा मल्हार
      हो वृष्‍टि
      जीव तृप्‍त
      हरषे सृष्‍टि
      उमड़-घुमड़ कर बरसो घन !

      -सुशीला शिवराण

    • Shikha Varshney अमृत रस - ताल तलैये सूख चले थे,
      कली कली कुम्भ्लाई थी ।
      धरती माँ के सीने में भी
      एक दरार सी छाई थी।
      बेबस किसान ताक़ रहा था,
      चातक भांति निगाहों से,
      घट का पट खोल जल बूँद
      कब धरा पर आएगी....
      कब गीली मिटटी की खुशबू
      बिखरेगी शीत हवाओं में,
      कब बरसेगा झूम के सावन
      ऋतू प्रीत सुधा बरसायेगी।
      तभी श्याम घटा ने अपना
      घूंघट तनिक सरकाया था
      झम झम कर फिर बरसा पानी
      तृण तृण धरा का मुस्काया था ।
      नन्हें मुन्ने मचल रहे थे,
      करने को तालों में छप-छप,
      पा कर अमृत धार लबों पर,
      कलियाँ खिल उठीं थीं बरबस।
      कोमल देह पर पड़ती बूँदें,
      हीरे सी झिलमिलाती थीं
      पा नवजीवन होकर तृप्त
      वसुंधरा इठलाती थी।
      देख लहलहाती फसल का सपना,
      आँखें किसान की भर आईं थीं
      इस बरस ब्याह देगा वो बिटिया,
      वर्षा ये सन्देशा लाई थी.

    • Rashmi Prabha चेहरे और बालों पर कुछ बूंदें
      गीली सी हवा
      कस्तूरी मन की बेकरारी
      मानसरोवर से चलकर ये मौनसुनी बादल
      बरस बरस कर
      सौन्दर्य राग बिखेर रहे हैं ...
      लटों का चेहरे पर बिखरना
      फिर बूंदों संग अठखेलियाँ करते
      चेहरे पर जम जाना
      बादल का यह प्यार
      लड़की को मयूरी बना
      बूंदों के वाद्य यन्त्र बजा रहा है
      ....
      पवन का वेग
      फुहारों की बदलती दिशा
      तड़ित ज्योति रेखा
      बादलों की गर्जना
      और एक इन्द्रधनुषी इंतज़ार
      मॉनसून तो आ चला
      ये साथ साथ किस मॉनसून की आहटें
      साँसों में लयबद्ध है
      मयूरी बेकल है ...
      कहो .... इस बादल को कौन सा नाम दूँ !

    • Sonal Rastogi नयन टंगे है अम्बर पर
      मनवा भी ना धीर धरे
      विकल देह औ विकल मन
      नित जीवन के कष्ट बढे
      शुष्क धरा संग शुष्क पवन
      ...See More





     

     सूखे ताल

    हलक भी सूखे

    गर्मी वाचाल

    सूने बाज़ार

    बैरी लू का

    प्रचंड वार

    हवा में घूमे

    पेंडूलम सा

    सूर्य बेताल

    पाखी व्याकुल

    ढूंढे परिंडा

    हो बेहाल

    मेरा शब्द : ताल

     

    मन की पगडंडी पर
    मृगनयनी से
    दौड़ते दौड़ते
    कभी कभी
    एक रस्सी की तरह
    बांध लेते हैं हम
    अपने जीवन के
    घेरे और एक
    आवृत में
    गाठों की तरह
    समेटे रहते है
    अपनी अस्मिता और
    सोचते हैं कि
    नियति के रास्ते
    अपनी ही यात्रा के
    सहवर्ती हो
    जीवनोंद्वार के पार
    मुट्ठी में बंद
    लकीरों की तरह
    कटते फटते
    समूचे सौन्दर्य को
    समेटे या तो
    अस्तित्व की
    नदी के द्वीप
    हो जायेंगे या
    महासमर बन
    भेद कर
    धरती को
    सो जायेंगे !!
    मेरा शब्द : अस्तित्व

    मैं मौसम की
    प्यास हूँ
    समय की सलोनी
    आस हूँ
    बादल सी घूमती हूँ
    अम्बर को चूमती हूँ
    धरा के भी
    पास हूँ
    पाखी सी चहकती हूँ
    हवा सी बहती हूँ
    हरा भरा
    मधुमास हूँ
    मेरा शब्द :हवा..........................

    जीवन की साँझ नहीं होती अकेली
    अकेले तो होते हैं हम
    सच की बगिया में
    सच कहें तो
    झूठ के कांटे बोते हैं
    लेखा- जोखा करते हुए
    अपने जीवन का
    जब थकी दोपहरी में हम
    पलटते हैं गाहे बगाहे
    यादों की एल्बम
    तब फंस जाते हैं
    अतीत के भंवर में हम
    जीवन तब एक
    खोये मुसाफिर सा
    करीब होकर भी
    दूर दूर दिखता है और
    बदलते वक्त के अक्स में
    तब अपना चेहरा भी
    अजनबी सा लगता है और
    आइना झूठ नहीं बोलता
    कहता है सच कि
    एक ही जीवन में भला
    चेहरा मोहरा कब किसी का
    एक सा रहता है !
    मेरा शब्द है : भंवर



    हिरणी सा दौड़े
    दिन-
    रात के जंगल में
    चांदनी का
    काजल लगा
    करे हंसी ठिठोली
    चंदा हमजोली
    मुस्कराए
    टिमटिम तारों की
    ओढा चादर
    चांदनी को सुलाये
    नैन परिंदे भर
    सपनो की
    मीठी उड़ान
    पाखी हो जाये
    तभी सागर फाड़ कर
    नया सवेरा आये !
    मेरा शब्द है :सवेरा

     
    "माटी अनमोल!"


    मैं माटी हूँ


    नहीं मेरा मोल


    नहीं कोई कहानी


    पर मैं इस धरा का आधार हूँ


    श्रम हूँ किसान का


    जो मुझमें बीज बोता है


    आस्था हूँ कुम्हार की


    चाक पे गढ़ मुझे जो


    नयी मूर्तियाँ ,नए बर्तन


    घड़ा सुराही और उपादान बनाता है


    मैं ही हूँ कारीगर की अपूर्व साधना


    जो महलों ,हवेलियों ,इमारतों ,और


    घरों को मुझ से बांध


    पत्थरों संग


    गहरी नींव देता है


    मेरा यूँ तो नहीं कोई मोल


    फिर भी हूँ मानव के लिए


    हूँ मैं अनमोल क्यूंकि वो एक दिन


    दो गज जमीन के साथ


    मुझमें ही समां


    खुद भी माटी हो


    दूर की यात्रा पर जाता है !


    डॉ सरस्वती माथुर
    "अंजुली में भर कर!"
    बदलते मौसम की
    उदास दुपहर
    अक्सर मुझे
    अपने ही भीतर
    असमर्थताओं से घिरी
    अदालत लगती है
    जिसमे पतझड़ के
    पीले पत्ते
    बेमतलब जिरह करते
    वकील से खडखड़ाते हैं
    तब निर्दोष कैदी की तरह
    शाम सिलसिलेवार
    उतर आती है और
    उदास दुपहर की धूप
    कुछ देर यूँ ही हवा में
    जलपक्षी सी मंडराती
    सागर पर उतर जाती है
    शायद पीने को
    सागर का नीला जल ,
    देर तक फिर
    बहुत से शोरों के
    बीच किनारे पर
    शांत डोलती रहती है
    नीले आकाश के
    भीतर से उतरती है
    सर्द हवा और
    अंजुली में भर कर
    साँझ के एकांत को
    पीती रहती है और
    थामे रहती है
    शाम को शहतीर सी
    3समर्पित विश्वास से!"
    ऐसा गीत दो मुझ को
    स्वर मैं अपना साध सकूँ
    वेदना के स्वर सृजित कर
    शब्दों के क्रोशिये से बुन
    छंदों को मैं काढ़ सकूँ
    अपने समर्पित विश्वास से
    निष्कर्ष यह निकाल सकूँ
    दोस्तों को पता न चले
    मैं दुश्मनों को संभाल सकूँ
    सुधि सहचर बन कर मैं
    सम्बन्ध मधुर बना सकूँ
    ऐसा गीत दो मुझ को
    4
    हिरणी सा दौड़े
    दिन-
    रात के जंगल में
    चांदनी का
    काजल लगा
    करे हंसी ठिठोली
    चंदा हमजोली
    मुस्कराए
    टिमटिम तारों की
    ओढा चादर
    चांदनी को सुलाये
    नैन परिंदे भर
    सपनो की
    मीठी उड़ान
    पाखी हो जाये
    तभी सागर फाड़ कर
    नया सवेरा आये !
    5
    इंतज़ार
    आँखों की नदी अश्क है
    और तुम्हारा इंतज़ार
    मेरे लिए है समुन्द्र
    कहते हैं की
    आयाचित के लिए
    आकंठ इंतज़ार ही
    द्वार होता है
    जो रुका रहता है
    चौखट पर
    लेकिन मैं उसी देहरी पर
    स्वस्तिक बना कर
    इंतज़ार करती हूँ
    उस यायावरी प्यार का
    जो तुम्हारे रूप में
    मेरे लिए
    जन्म जन्मान्तरों का
    उपादान है!
     "प्रश्न !"

    मेरा देश

    माटी की हांडी सा

    रात दिन राजनीति के

    चूल्हे पर चढ़ता है

    समय का बावर्ची

    दाल भात जैसा

    भ्रष्टाचार पकाता है

    हर आम आदमी

    कंकड़ मिली दाल

    सठियाये चावल

    संग खाता है

    तो उसका भी

    मिजाज़ बदल जाता है

    रोज नई कहानी

    शुरू होती है

    माटी का माधव

    फिर भी क्यूँ

    समझ नहीं पाता है ?
    "माटी कहे कहानी!"
    जीवन एक लम्बी दुपहरिया सा

    मन है निमिया की निबोरिया सा

    माटी सी देह पर क्या गुमान करें

    वो तो है बस बरसती बदरिया सा

    उदास सी शामों पर चाँद एक चिरैया सा

    उडता है- चांदनी भरी रात लगे दरिया सा

    धरा की माटी कहे कहानी जब मौसम की

    भर जाए मन परिंड़े रखी गगरिया सा !"सपने सजाना है !"
    जीवन नदी
    मन मंदिर
    बजते हैं जिसमे
    घंटे यादों के
    एक चहकती
    श्याम गौरैया से
    फूल पे महकती
    हवा जुगनू से
    मन रोशन हैं
    ख्वाब हैं मुरादों के
    कुछ पाना है
    सब भूल जाना है
    मासूम नींद में
    प्रेम रुपी ताजमहल के
    मनभावन से
    सपने सजाना है
    कुछ बन दिखा
    "मेरे सपनो के ताजमहल !"
    सपने जब बोती हूँ
    बिखरी नींद समेटती हूँ
    दूर बादलों छुपी धूप में
    एक छाया बनाती हूँ
    देर तक बारिश के संग
    गीत मल्हार गाती हूँ
    खामोश मौसम में
    पंछी बन उड़ जाती हूँ
    स्वाति बूँद सी जब
    सीपी में गिर जाती हूँ
    "मेहँदी लगा के !"

    तुम्हारी यादों की

    मेहँदी मौसम के

    हाथों में लगा के

    नदी की लहरों सी

    सरसराती आई थी

    आज शाम

    मन के कंगूरे पर बैठ

    महक रही थी

    मोगरे सी और

    चिड़ियों के

    स्पंदन के बीच

    एक नवजात

    शिशु सा मेरा मन

    स्वप्न घोंसले में बैठा

    इंतज़ार कर रहा था कि

    पंख आयें तो

    पहुँच जाऊं

    उस घर आँगन में

    जहाँ से उड़ कर

    हरी ताजा पत्तियों सी

    महक उड़ करआई थी

    और प्रतीक्षा के

    सतरंगे फूल खिले थे

    बस वहीँ पर

    तितली सी

    मंडराऊं मैं !
    "हाथों में लगा मेहँदी!"
    हाथों में लगा
    मेहँदी आज
    खिला है
    मौसम प्यार का

    लम्बे सफ़र में
    साथ चलना है
    दूर तक हमें
    मौसम है बहार का

    शाम सिन्दूरी
    सुरमई मन
    घर आँगन में
    मौसम है श्रृंगार का

    झूमती हवा है
    मन भी खुश
    मधुर रिश्ता बहा
    नदी की धार का
    हाथों में सजा के मेहँदी !"

    गुच्छे भर

    अमलतास लेके

    आई धूप

    हाथों में

    सजा के मेहँदी

    शरमाई धूप

    पीत वसन सा

    सोन पुष्प पर

    धूप का रूप

    कुंदन काया

    सूर्य से निकली

    इतराई धूप !

     " शब्द- शर !"

    अब मेहँदी से

    तुम उतरो

    मेरे जीवन की

    हथेली पर

    और झरे हुए

    पत्तों से

    बिछ जाओ आँखों के

    प्रांतर में ताकि

    उत्सर्ग कर सकूँ

    तुम्हे मैं

    मन की नदी में और

    अपनी धूप के साथ

    छिप जाऊं

    तुम्हारे सूर्य

    विस्तीर्ण निर्बाध में!ऊँचे पहाड़ो पर फूलों की घाटी सा

    हरे भरे खेतों में माटी सा यह देश

    एक कहानी कहता है कि


    इस भारत में

    पवित्र गंगा जल बहता है

    सुबह की पहली किरणे

    एक आशा जगाती हैं

    मंद मंद सोंधी धरती भी

    सिन्दूरी साँझ के संग बह

    हवा में नवगान सुनाती है

    ठिठके हुए पतों पर

    चिड़िया ख्वाब बुनती है

    कभी इधर से कभी उधर से

    विश्वास के तिनके चुनती है

    यहाँ की माटी भी

    कुछ ऐसी ही है

    विश्व आकाश पे

    लगा आस्था के पंख

    रंग बिरंगी चिड़िया सी उड़ती है

    यह वो माटी है जो

    सोने की चिड़िया थी

    आज भी रंग बिरंगी

    दुनिया का

    यह अथाह खज़ाना है

    यह हमने ही नहीं

    सारी दुनिया ने जाना है

    माना है और पहचाना है

    ऐसी माटी को करें आओ

    प्रणाम शत शत प्रणाम

    नमन! शत शत नमन !
    "चश्मा माँ का !"

    बूढी बुजुर्ग माँ बोली बेटे से

    सुनाई नहीं देता तेज बोल


    बेटा झल्लाया माँ पर

    चिल्लाओ मत, धीरे बोलो

    माँ चुप हो गयी

    बूढी माँ चाहती थी

    बेटा चश्मा लाकर दे

    बेटा बोला क्यों ताकती हो माँ

    हरदम आँखों पर हाथ की

    छतरी बना कर

    क्या दीखता नहीं मैं ?

    आहत हो माँ बोली -"बेटा

    अब जरा धुंधला दीखता है मुझे

    एक चश्मा बनवा दे

    तुझे साफ़ देख पाऊँगी पर

    न जाने तेरे चेहरे के भाव

    कैसे सह पाऊँगी!"

    बेटा बोला तो फिर आँखें

    बंद क्यों नहीं कर लेतीं ?

    माँ की आँखों में

    डर समां गया

    बेटा तेजी से घर के

    बाहर चला गया,

    रात देर से लौटा

    देखा... दरी बिछी थी

    आँगन में माँ लेटी थी

    आँखें मूंदे बुत सी घिरी थी

    रिश्तेदारों से भीड़ में

    अकेली सी,, पर माँ की

    धुंधलाई आँखें बंद थी

    बेटा रो भी न सका

    हाथ में पकड़ा, माँ का चश्मा

    उसे दबा बस इतना बोला

    माँ, काश तुम मुझे समझ पातीं

    तो ऐसे तो न जातीं

    पूरे दिन घुमा, जुगाड़ बिठाया,

    पैसों का... तब चश्मा लाया ....!

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