बुधवार, 26 नवंबर 2014

"कर्मवीर हूँ !"

दो जून की रोटी
जुटाने को
दिन रात भागा करता हूँ
धूप में तप्त
सर्दी से लड़ता
कठिन श्रम करता हूँ
जहाँ मिले रैन बसेरा
वहीँ बिछा कर अपने
मुट्ठी भर सपने
थक कर निढाल सा
पत्थरों पर सो जाता हूँ
कर्मवीर हूँ, संघर्षशील हूँ
कर्म पथ पर बढ़
श्रम के स्वेद कण
बहाता हूँ
अपने हुनर को
चढ़ा सान पर
तुम्हारी तक़दीर बनाता हूँ
तुम्हारी भूमि पर
भूमिहीन जीर्ण शीर्ण मैं
इमारतों की मंजिले
चढ़ाता रहूँगा
तसले धोता ,तपती धूप में
दिहाड़ी गिनता रहूँगा
तुम चौराहे पर मेरे
श्रम की बोली
लगाते रहो
नयी नयी योज़नाएं
बनाते रहो पर
यह मत भूलना कि
खलिहानों ,दुकानों ,मकानों में
मेरे श्रम की ईंटों पर
खड़े हो तुम तो
रहते हो धरती पर ,हाँ
पर यह याद रखना कि
मेरी जमीं भी श्रम के
 पत्थरों से जड़ी है
 इसलिए ही लगती
आसमान से  बड़ी है !
डॉ सरस्वती माथुर

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