"भीतर ही भीतर कहीं !"
बहुत ही भीड़ रहती है
मेरे अंदर भी
जिनकी अस्पष्ट आवाज़ें
मुझे कोरस गाती सी
अरचनात्मक लगती है
भीतर ही भीतर कहीं
कुछ खौलने लगता है
मन मेरा भी
डोलने लगता है और
बिदके अश्व सा
अलग दिशाओं में
दौड़ने लगता है
उसके पीछे पीछे
दौड़ने लगती हूँ मैं भी
मायावी अश्व
गायब हो जाता है
मैं सृजन के जंगल में
खो सी जाती हूँ
मन के अंदर की आवाज़ें
चुप हो जाती हैं
मैं तन्हा रह जाती हूँ
फिर जाने कैसे
शब्दों को बांध कर
एक नदी सी
बह जाती हूँ जो
अभी भी सरसर करती
बह रही है
खुद से पूछती सी कि
सागर कितनी दूर है
शायद अभी देर तक
दूर तक बहना है
ढूँढना है सागर को भी
फिर घुल कर
सागर में खो कर
खारा जीवन सोख कर
मिठास नदी की पीना है
गहराई की थाह पाकर
अविरल अखंड
मर्यादित चौखट में
जीकर भी विस्तरित हो
नये आयामों को
छूना है !
डॉ सरस्वती माथुर
बहुत ही भीड़ रहती है
मेरे अंदर भी
जिनकी अस्पष्ट आवाज़ें
मुझे कोरस गाती सी
अरचनात्मक लगती है
भीतर ही भीतर कहीं
कुछ खौलने लगता है
मन मेरा भी
डोलने लगता है और
बिदके अश्व सा
अलग दिशाओं में
दौड़ने लगता है
उसके पीछे पीछे
दौड़ने लगती हूँ मैं भी
मायावी अश्व
गायब हो जाता है
मैं सृजन के जंगल में
खो सी जाती हूँ
मन के अंदर की आवाज़ें
चुप हो जाती हैं
मैं तन्हा रह जाती हूँ
फिर जाने कैसे
शब्दों को बांध कर
एक नदी सी
बह जाती हूँ जो
अभी भी सरसर करती
बह रही है
खुद से पूछती सी कि
सागर कितनी दूर है
शायद अभी देर तक
दूर तक बहना है
ढूँढना है सागर को भी
फिर घुल कर
सागर में खो कर
खारा जीवन सोख कर
मिठास नदी की पीना है
गहराई की थाह पाकर
अविरल अखंड
मर्यादित चौखट में
जीकर भी विस्तरित हो
नये आयामों को
छूना है !
डॉ सरस्वती माथुर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें