.भोर होते ही
कोहरा सरका
दौड़ी दौड़ी
आयी धूप
पतों फूलों पर
मंडराई धूप
शरद ऋतु की
चूनर खींचती
घर आँगन को
गरमाती
मन बुहारती
सुलग आयी धूप
हवा के संग संग
सुबह से शाम तक
अनमन सी खेली धूप
सूरज डूबा तो
थकी हारी सी
पगलायी धूप
सांझ ओढ़ कर
भोर तक सोयी
फिर जागी तो
बौराई धूप
आँख मलती
धीरे धीरे धरा पर
नया रूप ले
परी सी इठलाती
खिल आयी धूप !
डॉ सरस्वती माथुर
कोहरा सरका
दौड़ी दौड़ी
आयी धूप
पतों फूलों पर
मंडराई धूप
शरद ऋतु की
चूनर खींचती
घर आँगन को
गरमाती
मन बुहारती
सुलग आयी धूप
हवा के संग संग
सुबह से शाम तक
अनमन सी खेली धूप
सूरज डूबा तो
थकी हारी सी
पगलायी धूप
सांझ ओढ़ कर
भोर तक सोयी
फिर जागी तो
बौराई धूप
आँख मलती
धीरे धीरे धरा पर
नया रूप ले
परी सी इठलाती
खिल आयी धूप !
डॉ सरस्वती माथुर
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