गुरुवार, 20 नवंबर 2014

"नया गीत बुनती हूँ !"

"बासन्ती राग !"
पहले शब्द बुनती हूँ
फिर छ्ंद गुनती हूँ
फिर घिर जाती हूँ
कविता के जाल में
कभी भोर- कभी साँझ
कभी झील- कभी नदी
कभी बसंत- कभी सावन की
देहरी लांघ कर
मन भावों के
 गीत घुनती हूँ


तितली से रंग
फूलों से सुगंध
चाँद से चाँदनी
सूर्य से धूप
हवा से गति
बादल से बूंदें
 सागर से मोती चुन
फिर नदी का कलकल
प्रवाह सुनती हूँ

फिर अपनी कविताओं को
लय में बांध कर
 मधुर मन से गीतों को
 स्वर धारों में पिरो
शब्दों के  बासन्ती
राग चूनती हूँ
रसमयी कंठों से
फिर एक नया
 गीत बुनती हूँ
डॉ सरस्वती माथुर

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