बुधवार, 26 नवंबर 2014

"एक मजदूर माँ के सपने !"

"एक मजदूर माँ के सपने !"

वह हर दिन

सानती है आटा


 मिटटी के तवे पे

थापती है रोटियाँ

उसे नहीं पता कब

बदलते हैं मौसम

,कब सत्ता बदल जाती है

बस उसे तो हमेशा

अपने मासूम बच्चों और

बीमार खांसते पति की

दो आँखें दिखती है

यही नियति है उसकी

जो रोज शाम को उसके

इर्द गिर्द फिरकनी सी

घूमती है

हांडी में पतली पानी सी

दाल जब खदबदाती है तो

बच्चों की आँखों की

बगिया में फूल

खिल जाते हैं

फूंकनी से चूल्हे की

आग तैयार करती माँ के

कंठ में भी झांझर

बज़ उठती है यूँ तो

उसके भीतर

फड़फडाते सपने भी

लकड़ी से रोज

जलते बुझते हैं और

बुझे चूल्हे की राख

सुबह होते होते

सर्द हो जाती है

पर जब वह बच्चों के

पेट की भूख शांत कर देती है

तो वह नींद की सुराही से

कुछ बूँदें पी

सोने की कोशिश से पहले

अपनी हथेलियों के

फफोलों पर हल्दी का

घोल लगाती है

अगले दिन के लिए

अपने को तैयार करती है

अगल बगल में लेट़े

अपने मासूम बच्चों को

देख सब दर्द भूल

वो भी मुस्करा कर

सो जाती है

रोज एक सपना

देखते हुए कि उसके

नोंनिहाल एक दिन

बड़े होंगें और अपने

पैरों पर खडे होंगें !


डॉ सरस्वती माथुर



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