सोमवार, 17 नवंबर 2014

गंगा पर कवितायें


छंदमुक्त
 "गंगा कैसे नहाओगे ?"
आई भोर आई
पंख पसारे चिड़ियों ने भी
गीत उच्चारे
मंदिर की घंटियाँ बोली
जागे सारे नदी किनारे
अम्मा भी प्रभाती गातीं
झट से घाट पर पहुंची
ले डुबकियां गंगा नहाई
मन में कुछ शगुन भी लायीं
कुमकुम मंगल का
बांध घर आयीं
एक दिन नन्ही पोती ने थी
जिद पकड़ी अम्मा
मैं गंगा कहाँ नहाऊँ?
 अम्मा मुस्काईबोली -
तू कैसे नहा पायेगी?
वहां कहाँ रही अब
पहले सी शुद्धाई?
मैंने तो बरसों का
नियम निभाया है
नाम को ही नहाया है
बस, आखिर में
घाट पर नहा कर
एक लोटा जल
घर से जो ले गयी थी
उससे फिर नहाया है
बन्नो, गंगा नाहन तो
अब भी मनभावन है
पर जल नहीं रहा
अब पावन है
इसलिए तू मन की गंगा में
नहा ले अब पर
चाहे कुछ भी हो जाए
विष घुली उस गंगा में
नहाने को अब
कभी जाना मत और
जाये तो वहां मेरा
यह सन्देश लेती जाना
कहना लोगों को कि
गंगा को बचाओ पहले
फिर नहाओ
इस विरासत को
कैसे भी बचाओ !
डॉ सरस्वती माथुर
2
 "ठहरी क्यों गंगा मैली हो कर?"
शिखर से उतर कर
बहती थी
फुदक फुदक कर
चलती थी
नयी राह बनाती
अठखेलियाँ करती
एक गिलहरी सी धरा तरु पे
कहीं उतरती कहीं चढ़ती
पथ को श्रम से
उर्वर करती
हर बाधा से
लड़ लड़ आगे बढती
पर अनायास
रुक गयी एक दिन
एक मोड़ पर
किसी ने उसका
बहाव काट दिया
धारों को स्वार्थ में
बाँट दिया अब
ठहरी गंगा मैली हो कर
गुहार लगा रही है कि
मुझे न रोको
मैं तो बहती धारा हूँ
कलकल करती हूँ
बिन रुके चलती हूँ
मुझे अपनी राह जाने दो
कोसों फैली मटियाली
धरा को नहलाने दो
इस देश को चमन बनाने दो
जन जन को मुस्कराने दो
मुझे बह जाने दो
बह जाने दो
बस चुपचाप दूर
तक बह जाने दो !
जल का परिंदा हूँ
नाम है गंगा जल
मैं न रही तो
डूब के खो जायेगा
अपने देश का कल !
डॉ सरस्वती माथुर
3
"गंगा कैसे नहाओगे ?"

फिर लगा गंगा तट पर मेला
सभी कुछ था यहाँ

दूधिया रौशनी में नहाते

राम के गुण गाते

बेशुमार भक्त

मेले में था पर्यटकों का भी रेला

दूध, जलेबी, छौले

पकौड़ी के ठेले

सजे बच्चों के

रंग बिरंगे गुब्बारे खिलौने

मदारी बंदरों का

तमाशा देखते लोग

कहीं तोते से भविष्य पूछते

चहल पहल का

चहुँ ओर था रेला

पर वो जल जो चमकता था

गमगीन था

संवेदना से क्षीण था

वहां आधुनिकता का

शोर था

,नहाती गाती बालाओं के

चित्र उकेरता मीडिया था

अगर कुछ नहीं था

उन लहरों में तो

पछाड़ खाता उछाह नहीं था

चारों तरफ

देश विदेश से आये लोग थे

संस्कृति का लेखा जोखा

लेने वाले महारथी भी थे

लेकिन कुछ नहीं था तो

गंगा नहाने के पीछे की

भावना नहीं थी

न ही उस भावना को

समेटने वाला रचनाकार

शिल्पकार था

यह मेला तो बस

सरकार पर भार था

दिखावे का

आचार व्यवहार था

ऐसे में गंगा

कहाँ नहाओगे ?

डॉ सरस्वती माथुर
 
  • 4
  •  "प्रकृति का वरदान : गंगा!"
    गंगा -धरा का करती शृंगार
    पहाड़ों का वो मुकुट हार
    निश्छल बहती वो निर्मल धार
    पर गयी कहाँ
    उसकी अब कलकल ध्वनि
    कहाँ डूब गया उफान
    यही अब तुम समझो
    ओ मानव
    वो है हमारा पुण्य धाम
    वही है सृष्टि नियंता
    वही जन जन का प्राण
    प्रकृति का वरदान
    आओ उसको
    बचाएं मिल कर
    करें उसका नव निर्माण
    वो ही तो है तीर्थ हमारा
    है भारत की आन बान
    वही है हाँ
    वही गीता है हमारी
    वही हमारा है कुरआन !
    डॉ सरस्वती माथुर
     "ओ माँ भवतारिणी !"
    गंगा तुम हो
    माँ सी पावन
    धरा को करती
    तुम हो सावन

    जाने तुम्हें फिर
    मैला क्यों करते लोग
    नए नए करते प्रयोग
    निर्बन्ध मुक्त न
    बहने देते
    स्वर निनाद न
    रहने देते
    पर माँ तुम
    गति न रुकने देना
    उन्मत आंधी सी
    तोड़ पथ की बाधाएं
    बहती रहना
    कलकल का
    झंकार करती
    इस धरा को
    गुलजार करती
    शंख ध्वनि सी
    बस तुम बहती रहना
    ओ माँ भवतारिणी !
    डॉ सरस्वती माथुर


  •  "गंगा कैसे नहाओगे ?"आई भोर आई
    पंख पसारे चिड़ियों ने भी
    गीत उच्चारे
    मंदिर की घंटियाँ बोली
    जागे सारे नदी किनारे
    अम्मा भी प्रभाती गातीं
    झट से घाट पर पहुंची
    ले डुबकियां गंगा नहाई
    मन में कुछ शगुन भी लायीं
    कुमकुम मंगल का
    बांध घर आयीं
    एक दिन नन्ही पोती ने थी
    जिद पकड़ी अम्मा
    मैं गंगा कहाँ नहाऊँ?


    अम्मा मुस्काईबोली -
    तू कैसे नहा पायेगी?
    वहां कहाँ रही अब
    पहले सी शुद्धाई?
    मैंने तो बरसों का
    नियम निभाया है
    नाम को ही नहाया है
    बस, आखिर में
    घाट पर नहा कर
    एक लोटा जल
    घर से जो ले गयी थी
    उससे फिर नहाया है
    बन्नो, गंगा नाहन तो
    अब भी मनभावन है
    पर जल नहीं रहा
    अब पावन है
    इसलिए तू मन की गंगा में
    नहा ले अब पर
    चाहे कुछ भी हो जाए
    विष घुली उस गंगा में
    नहाने को अब
    कभी जाना मत और
    जाये तो वहां मेरा
    यह सन्देश लेती जाना
    कहना लोगों को कि
    गंगा को बचाओ पहले
    फिर नहाओ
    इस विरासत को
    कैसे भी बचाओ !
    डॉ सरस्वती माथुर




    "ठहरी क्यों गंगा मैली हो कर?"शिखर से उतर कर
    बहती थी
    फुदक फुदक कर
    चलती थी
    नयी राह बनाती
    अठखेलियाँ करती
    एक गिलहरी सी धरा तरु पे
    कहीं उतरती कहीं चढ़ती
    पथ को श्रम से
    उर्वर करती
    हर बाधा से
    लड़ लड़ आगे बढती
    पर अनायास
    रुक गयी एक दिन
    एक मोड़ पर
    किसी ने उसका
    बहाव काट दिया
    धारों को स्वार्थ में
    बाँट दिया अब
    ठहरी गंगा मैली हो कर
    गुहार लगा रही है कि
    मुझे न रोको
    मैं तो बहती धारा हूँ
    कलकल करती हूँ
    बिन रुके चलती हूँ
    मुझे अपनी राह जाने दो
    कोसों फैली मटियाली
    धरा को नहलाने दो
    इस देश को चमन बनाने दो
    जन जन को मुस्कराने दो
    मुझे बह जाने दो
    बह जाने दो
    बस चुपचाप दूर
    तक बह जाने दो !
    जल का परिंदा हूँ
    नाम है गंगा जल
    मैं न रही तो
    डूब के खो जायेगा
    अपने देश का कल !
    डॉ सरस्वती माथुर



     


    क्षणिका


    " गंगा !"
    पावन गंगा
    ढूंढे न मिले
    खोगया उदगम
    उदास धारे भी
    धरा निहारें
    डॉ सरस्वती माथुर
     " गंगा के तट पर !"पहाड़ टटोल रहे
    गंगा के उद्गुम को
    रुक रुक के बहते
    गंगा के धारों को
    मेले निपट उदास
    गंगा के तट पर
    बिखरे से एहसास
    दीप सिराते बुजुर्ग गण
    लिए बुझे अनमने मन
    अंजुरी में भर
    मटमैले पानी से
    आचमन करते !
    डॉ सरस्वती माथुर
     "गंगा !"जिन पहाड़ों ने
    गंगा को प्रसूत किया
    कलकल करती
    कनक धरा को
    एक नया खवाब दिया
    वो ही जग गए- कट गए
    अलग अलग मोड़ों पर
    रिश्तों से छंट गए
    तो अनंत यात्रा की
    सुरंगें चुंधिया उठीं
    डॉ सरस्वती माथुर


    गीत


     "गंगा को बह जाने दो !"

    प्रवाहमयी
    शिवालिक गंगाक्षीर को
    बह जाने दो

    शिखर चीर
    धरा को नहलाने दो

    उदगम छोड़
    सर्पीली जलरागिनी को
    नादे गाती
    भवसागरतारिणी को
    घाटो को सजाने दो

    नटखट बालक सी


     दिठौने लगा
    भोर को जगा
    सपनीली डगर
    राहों में बिछाने दो

    बल खाती
    प्रबल संघर्ष से


     शोर मचाती
    गति की केंचुलों से
    गंगें को निकल आने दो !


     


    डॉ सरस्वती माथुर


    " तीर्थ धाम गंगा !"
    जीवन की लयबद्ध
     झंकार गंगा
    प्रवाहमयी
     रससिक्त धार गंगा
    लय और झंकृत
     साज़ से बंधी
    भारत का
     देहरी द्वार है गंगा
    !
    धरती पर है नदी पावन गंगा
    पवित्र निर्मल मनभावन गंगा
    मन से मन के तार्र जोड़ती
    शिखर से कलकल उतरती गंगा
    ...
    जीवनमय गीता सा सार है गंगा
    भवसागर को कराती पार है गंगा
    स्वच्छता की पहचान भागीरथी
    प्रकृति का अनूठा वरदान है गंगा

    ब्रह्मा विष्णु महेश का स्थान गंगा
    मोक्ष दिलाने वाला तीर्थ धाम गंगा
    भारत के नक़्शे पर दमक चमकती
    देश की आन बान व् शान है गंगा
    डॉ सरस्वती माथुर



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