रविवार, 30 नवंबर 2014

"नदी हूँ पर प्यासी !"

"नदी हूँ पर प्यासी !"
मेरी कविता की
नदी हमेशा
बहती रहती है
शब्दों की लहरों से ...
खेलती है और
मेरे मन की
प्यास बुझाती है पर
जाने क्यूँ कविता की
इस नदी में बहते हुए भी
मैं प्यासी ही रह जाती हूँ
लहरों सी तट पर
मेरी अभिव्यक्तियाँ
थपेड़े खाती है और
भावनाओं की रेत
छानती हुई
वापस लौट जाती है
पर मेरे मन की कविता
हमेशा बहती ही रहती है
कल कल
कल कल
कल कल्ल्ल्ल कल!
डॉ सरस्वती माथुर

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