सोमवार, 24 नवंबर 2014

1पहचान 2 उपसंहार 3.उड़ान मौसम की 4 अनपहचानी 5 प्रतिध्वनित ,क्षणिका

"पहचान !"
बदहवास  शहर का जूड़ा
शिवत्व के बोध सा
अपनी पहचान खोल रहा है
 शायद सार्थक होने को और
 यह कहने को कि
धन्यवाद, जो तुम आए
 यह बतलाने को कि
 पहचान  का रंग
 हरा होता है
 हरी घास के विस्तार सा

और जाने क्यूँ
 अब मैं भयभीत भी नहीं हूँ
अजनबी शामों की
 उदास सीली  हवाओं में
पहले न जाने क्यूँ मैं
 भयभीत रहती थी
 भीड़ के जंगल में
 अकेलेपन से
छिपती फिरती थी
भयातूर हिरणी सी
आड़ तलाशती थी
आवाज़ों का नीलखंड
जब मँडराता था मेरे
 आस पास तो
 मेरे भीतर का चोर
 दुश्मन सा दबोच लेता था  मुझे

लेकिन अब इस प्रक्रिया में
 समूची शाम वही है
 वही हवाएँ हैं वही
 आते जाते मौसम
कोनो कुतरों में छिपे
भोले निरीह पक्षी भी वही हैं
कुछ भी अनचिन्हा
-अपहचाना नहीं है अब 
कुछ भी तो नहीं ....!
डॉ सरस्वती माथुर
2
"उपसंहार !"
एक नदी की  तरह
उमड़ती हैं ,मेरी
 तमाम इच्छायें  और
एक उपसंहार की  तरह
 दोहरा दी जाती हैं
 मैं अपने समानान्तर
 सिर्फ डूबते सूरज को
 देखती भर हूँ और
 अपने आस पास
 झरने देती हूँ
पानी से दिन
तमाम  इच्छायें  भी
घोडा बन दौड़ती रहती हैं
 जीवन के अस्तबल में  !
3
"उड़ान मौसम की !'
आकाश पर
 चढ़ी रहती है धरती
एक झीनी परत सी
 उड़ती है धूप ,हवा ,बारिश
 दूर तक अकेला
 दिखता है मौसम तो
 सोचते हैं हम अपनी ओर
 क्यूँ खींचती है हरियाली
क्यूँ बुलाता है इंद्रधनुष
 सात रंगों का
 अपने आप में
 खोया एक बैचन मन
 भटकती स्मृति के साथ
बहुमंज़िली इमारतों सा
 ऊंचा आकाश पेड़ों के
 ऊपर से बिखेरता रहता है
नीलापन और अच्छा लगता है
 पहचानना मौसम को
 जो उड़ता रहता है
 चिड़ियों के झुंड सा
 धरती से आकाश तक
आकाश से धरती तक
 एक अनवरत सिलसिले सा
 सीला सीला सा
 गीला गीला सा !
4
"अनपहचानी !"
मैं ढों रही हूँ पहचान
शून्य के बाड़े से
 घिरी हुई पीड़ायें
 सत्य के चौराहे पर
रोज चिल्लाता है
झूठ का यथार्थ
मैं उसी की  सार्थकता से
 खिन्न हूँ
  महाइतिहास लिखने के लिये
मेरी आत्मा
 इतनी व्याकुल है कि
अनपहचानी सी
 रात दिन भ्रम ढोंती है !
5
"प्रतिध्वनित !"
नींद में छिपे सपनों सा
 भोली मिठास की
 सुधियों सा जीवन
 कभी कभी मुझे
 फूलों में छिपी
 सुगंध सा दिखता है
 जिस पर  फिरकनी सी
 घूमती हवाएँ
अपनी पहचान कराती हैं
सोचती हूँ जब कि
यह जीवन कहाँ से आता है
 इंसान को अनोखी
आस्था से भर जाता है
इतिहास के
पन्नो सा फड़फड़ाता
 क्यों मृत्यु के
 रहस्य द्वार में घूस जाता है
तो मेरे शब्द
आदमी की रचना के
 शिलालेख से टकरा कर
 प्रतिधावनित हो
 मुझ तक लौट आते हैं
अनुतरित !

"क्षणिका !"
जड़ीभूत परतों में
अमावसी रात सा
 एक अनछुआ फैलाव
 अपनी स्थापनाएँ
 रखता हुआ
 बेकार फड़फड़ाता है
तीखी मासूमियत के साथ l
 भीतर का प्रकाश

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