गुरुवार, 27 नवंबर 2014

"हमारी संस्कृति में फादर्स डे!"






डॉ सरस्वती माथुर
 

 
"हमारी संस्कृति में  फादर्स डे!"
डॉ सरस्वती माथुर
हमारी संस्कृति में माता-पिता का स्थान सबसे उंचा है।भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया  अपने बाल्यकाल की लीलाओं से भक्तों को आनंदित करते हुए भगवान राम ने 'आचार्य देवो भव, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' का क्रियात्मक रूप से पालन किया। उनका यह पावन चरित्र-'प्रातः काल के रघुनाथा, मातु-पिता गुरु नावहि माथा।' नयी पीढ़ी को बड़ों का सत्कार करने की प्रेरणा देता है।
जैसा कि मां का स्थान दुनिया सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वैसे भी हमारे जीवन में पिता का स्थान भी बहुत महत्वपूर्ण होता है।हमारे यहाँ पिता की भूमिका एक लंबा रास्ता तय करके आधुनिक हुई है। एक दौर था, जब पिता का रौब बच्चों को दहशत देता था। आज पिता दोस्त की भूमिका में आ गए हैं।  दुनिया में एक अजीब चलन हुआ है कि जब लोगों को किसी एक विशेष दिन में कैद कर दो। उसे पर्व, त्योहार उत्साह की तरह मनाओ। जब किसी भावना को आयोजन से जोड़ना है तो बाजार को भी लाभ होगा। इसी क्रम में भारतीय बाजार में भी मां पिता के नाम से मातृ दिवस व पितृ दिवस   सम्मान से मनाये जाने लगे आ गई है। फादर्स डे की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिताधर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ-दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई.यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है. फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है - जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं.यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है. फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं.!
दरअसल पिता और बच्चों के रिश्तों के बहुत सारे तंतु बहुत कोमल हैं। पिता के पास बहुत सारे मोर्चे हैं और अपने बच्चों के लिए खास नाजुक अहसास भी...। फिर कठोर सच्चाई और नितांत कोमलता के बीच का संतुलन साधना पिता के लिए न सिर्फ चुनौती है बल्कि उसके वजूद का हिस्सा भी है। शायद इसीलिए पिता सख्ती का खोल चढ़ा लेते हैं...। आखिरकार जिंदगी की धूप की तपिश से अपने बच्चों का परिचय भी तो उन्हें ही कराना है।किसी परिवार में एक पिता की मुख्य भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बच्चों की देखभाल में जहां मां का नाम सदैव प्रमुखता से लिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ बच्चों की संरक्षिता के तौर पर मां को आत्मबल और संघर्षबल पिता द्वारा ही प्रदान किया जाता है।विश्व पितृ दिवस की शुरुआत २०वीं सदी के प्रारम्भ में बताई गई है। कुछ जानकारों के मुताबिक ५ जुलाई १९०८ को वेस्ट वर्जेनिया के एक चर्च से इस दिन को मनाना आरम्भ किया गया। रुस में यह २३ फरवरी, रोमानिया में ५ मई, कोरिया में ८ मई, डेनमार्क में ५ जून, ऑस्ट्रिया बेल्जियम के लोग जून के दूसरे रविवार को और ऑस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैंड में इसे सितम्बर के पहले रविवार और विश्व भर के ५२ देशों में इसे जून माह के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। सभी देशों इस दिन को मनाने का अपना अलग तरीका है।आम धारणा के विपरीत, वास्तव में फादर्स डे सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई ,1908 को मनाया गया था. कई महीने पहले 6 दिसम्बर, 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान  दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था. प्रथम फादर्स डे चर्च आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फेयरमोंट में मौजूद है.गलत सूचनाओं तथा पश्चिम वर्जीनिया द्वारा पहले फादर्स डे को छुट्टी के रूप में दर्ज नहीं करने के कारण कई अन्य सूत्र यह मानते हैं कि प्रथम फादर्स डे स्पोकाने,  वाशिंगटन के सोनोरा स्मार्ट डोड के प्रयासों से दो वर्ष बाद 19 जून 1910 को आयोजित किया गया था.अमेरिका में फॉदर्स डे जून माह के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। यहां यह उत्सव पहली बार 19 जून 1910 को स्पोकाने वाशिंगटन में मनाया गया। आधुनिक फॉदर्स डे की शुरूआत क्रेस्टन वाशिंटन में जन्मी सोमोरा स्मार्टडोड ने की थी। बाद में उन्हीं की प्रेरणा से यह आयोजन पूरी दुनिया में होने लगा।
पिता के रूप में परिवार का मुखिया उस वट वृक्ष की तरह होता है, जो अपनी मजबूत जड़ों और तनों के सहारे खड़ा रहकर हर आंधी, तूफान आसानी से सह जाता है। साथ ही इसी मजबूती के चलते फल और न
की आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त तिथि अलग अलग देश में अलग अलग है.हाल के वर्षों में, खुदरा विक्रेताओं ने ग्रीटिंग कार्ड तथा पारंपरिक रूप से पुरुषोचित उपहारों जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स और उपकरणों को बढ़ावा देकर अपने को छुट्टी के लिए अनुकूलित कर लिया है. स्कूलों में और बच्चों के अन्य कार्यक्रमों में 'फादर्स डे' के लिये उपहार तैयार किये जाते हैं.सामान्यत: पितृ दिवस अलग अलग देशों में अलग अलग महीनों में मनाया जाता है। जिसमें ज्यादातर मई और जून माह से जुड़े हुये है। जून माह के तीसरे रविवार को भारत वर्ष सहित फॉदर्स डे अफगानिस्तान से लेकर अर्जेटीना, बहरीन, बंग्लादेश, बारबाडोस, बरमुड़ा, कोलंबिया, कोस्टारिका, क्यूबा, इक्वाडोर, फ्रांस, घाना, ग्रीस, मैक्सिको, नामीबिया, नीदरलैंड, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका आदि में मनाया जाता है।  पश्चिम वर्जीनिया में पितृ दिवस पर वहां के निवासी लाल और सफेद रंग के गुलाब फूल का उपयोग करते है। कहते है कि अपने जीवित पिता को बच्चों द्वारा लाल गुलाब उपहार स्वरूप दिया जाता है, जबकि ऐसे बच्चे जिनके पिता उनका साथ छोड़ चुके है उन्हें सम्मान देने बच्चों द्वारा सफेद गुलाब के फूल उनके तैलचित्र पर अर्पित किये जाते है। बदलते युग की मान्यताओं ने परिवेश बदल दिया है आज के आपाधापी युग में एक दिन यदि पिता के नाम निर्धारित है और उस दिन ही पिता को उपहार दिए जाएँ या उन्हें याद किया जाए सोच कर अटपटा लगता है की हम कहाँ जा रहे हैं ?मदर्स डे और फादर्स डे मनाने की परंपराओं को बेशक मार्केट फोर्सज़ ने पश्चिमी दुनिया से आयात किया है...अक्सर इन्हें भारत में ये कहकर खारिज़ करने की कोशिश की जाती है कि हम तो रोज़ ही माता-पिता को याद करते हैं...ये तो विदेश में लोगों के पास वक्त नहीं होता, इसलिए मां और पिता के नाम पर एक एक दिन मनाकर और उन्हें तोहफ़े देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है...
लेकिन क्या ये वाकई सच है...भारत के महानगरों में रहने वाले हम लोगों को भी अब रोज़ इतना वक्त मिलता है कि बीस-पच्चीस मिनट माता-पिता के साथ हंस-बोल लें...उनकी ज़रूरतों को सुन लें...लाइफ़ ने यहां बुलेट ट्रेन की तरह ऐसी रफ्तार पकड़ी हुई है कि कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं!"जिन माता-पिता ने हमें बड़ा कर कुछ करने योग्य बनाया, उनके लिए हमारे पास वक्त नहीं...और जिन बच्चों के लिए हम दावा करते हैं कि उन्हीं के लिए तो सब कर रहे हैं, उनके लिए भी कहां क्वालिटी टाइम निकाल पाते हैं"बात अगर भारतीय परिवेश व संस्कृति की करें तो यहां हमारी संस्कृति में तो प्रत्येक दिवस माता-पिता, बड़ों व गुरुजनों के सम्मान को समर्पित है।

कितनी श्रेष्ठ हैं यह पंक्तियाँ -
ये तो सच है के भगवान है है मगर फिर भी अन्जान है
धरती पे रूप माँ बाप का उस विधाता की पहचान है!

प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक माँ और पिता ने ने कलेजे पर पत्थर रख कर देश, राष्ट्र, समाज, धर्म व मानवता की रक्षा हेतु अपने लालों को समर्पित किया है। प्राचीन समय से पिता की आज्ञा सर्वोपरि मानी गई है। माँ केकई और पिता के वचनों की पालना हेतु श्रीराम ने 14 वर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। कभी माता कैकेयी को उलाहना नहीं दिया। श्रवण कुमार ने अंधे माता पिता को यात्रा करवाई !पुराणों में कथा आती है- चाण्डाल और व्याध आदि भी केवल माता-पिता की सेवा करके उस उत्तम सिद्धिको प्राप्त हो गए हैं, जिसे आजीवन कठोर तपस्या करके भी प्राप्त करना कठिन है।
शास्त्रों में माता-पिता को उपाध्याय और आचार्य से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। लेकिन आज स्थिति काफी बदल गई है। आज संतानों द्वारा माता-पिता की बेकद्री के अनेक उदाहरण प्रकाश में आ रहे हैं।संस्कारों की कमी, बढ़ते उपभोक्तावाद व एकल परिवारों की परिपाटी का ही परिणाम है कि हमारे देश में जगह-जगह खुले आश्रम/वृद्ध आश्रमों की बढ़ती संख्या व इनमें निर्वासित जीवन व्यतीत करते हमारे वृद्ध परिचायक हैं इस बात के कि हमारे पारिवारिक व सामाजिक मूल्य खंडित हो रहे हैं। संस्कारहीनता हम पर हावी हो रही है। अधिक श्रेयस्कर होगा कि हम अपनी सनातन संस्कृति को पहचानें। माता-पिता को कष्ट पहुंचा कर उन्हें स्वयं से अलग कर उन्हें बुढ़ापे में अकेला छोड़ कर चाहे हम कितने ही तीर्थ कर लें, धर्म, दान पुण्य कर लें सब व्यर्थ हैं।पिता का ऋण तो हम कदापि चुका नहीं सकते लेकिन इसके ऋण का कुछ भार उसकी सेवा करके उतार ही सकते हैं।
 डॉ सरस्वती माथुर

 
 



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