सोमवार, 17 नवंबर 2014

"संवाद मूक हैं !"

"संवाद मूक हैं !"


समय की गति के साथ ही


कितना कुछ बदल गया


खुली खिड़की बंद रहने लगी


वेश बदल बदल कर 


बहुरुपिया मौसम को


जब मैंने देखा


अपने आस पास तो पाया


बंद मुट्ठी की तरह


मौसम भी पहाड़ों ,पेड़ों ,झरणों पर


मार्ग बदलती नदियों पर


प्रश्नचिन्ह सा दंग रहने लगा है


सूर्य जन्मोत्सव पर


उजाले का अंकुरण होता तो है


गिरती तो हैं अलसाई उतरती धूप 


साँझ की नेम प्लेट पर भी


पर घरों में सुबह सवेरे मुंडेर पर


बोलता काला कौआ अब


विचलित दिखता है


मानो पूछ रहा हो कि घर परिवारों की


उल्लास भरी आवाजें


अब क्यों नहीं आतीं


न ही चह्कती है चिड़िया


खुले स्वर में उनका चहचहाना


ऐसा लगता है जैसे अपनी पीडाएं


कहते- कहते वो भी पूछ रही हों कि


अब कहाँ बनायें हम घोंसला


न रहें हैं पेड न निम्बोली


जंगल सारे नंगे उजाड़ खड़े हैं


चिड़ियाँ गाती तो हैं पर




संवाद मूक हैं


शब्दों में कथन नहीं है


दर्द है बस दर्द


धूप छाया से अठखेलियाँ करते


वन उपवन के शतदल सूखने का !






"संवाद मूक हैं !"


समय की गति के साथ ही


कितना कुछ बदल गया


खुली खिड़की बंद रहने लगी


वेश बदल बदल कर 


बहुरुपिया मौसम को


जब मैंने देखा


अपने आस पास तो पाया


बंद मुट्ठी की तरह


मौसम भी पहाड़ों ,पेड़ों ,झरणों पर


मार्ग बदलती नदियों पर


प्रश्नचिन्ह सा दंग रहने लगा है


सूर्य जन्मोत्सव पर


उजाले का अंकुरण होता तो है


गिरती तो हैं अलसाई उतरती धूप 


साँझ की नेम प्लेट पर भी


पर घरों में सुबह सवेरे मुंडेर पर


बोलता काला कौआ अब


विचलित दिखता है


मानो पूछ रहा हो कि घर परिवारों की


उल्लास भरी आवाजें


अब क्यों नहीं आतीं


न ही चह्कती है चिड़िया


खुले स्वर में उनका चहचहाना


ऐसा लगता है जैसे अपनी पीडाएं


कहते- कहते वो भी पूछ रही हों कि


अब कहाँ बनायें हम घोंसला


न रहें हैं पेड न निम्बोली


जंगल सारे नंगे उजाड़ खड़े हैं


चिड़ियाँ गाती तो हैं पर




संवाद मूक हैं


शब्दों में कथन नहीं है


दर्द है बस दर्द


धूप छाया से अठखेलियाँ करते


वन उपवन के शतदल सूखने का !
डॉ सरस्वती माथुर


 

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