मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कवितायें ---अरुणोदय के रंगों से

*"रंग बिरंगे धागे !"
चलो कुछ
रंग बिरंगे  धागे
हमारे प्रेम के
हम भी
 लपेट आये
 बरगद के
वृक्ष पर और फिर
इंतज़ार करें
 दुआओं का

 जब हो जाएँ
फलीभूत तो
उन धागों को
खोल कर
हम एक दूसरे की
आँखों में भरे
 सपनों पर बांध कर
आस्था और
विश्वास के सागर में
गोते लगा लें

 फिर अरुणोदय के
 रंगों से फ़ेल जाएँ
एक दूसरे की
अधूरी जिंदगी में
 सम्पूर्ण होने के लिये !
डॉ सरस्वती माथुर

*"तुम हो बांसुरी !"
तुम हो बांसुरी
मैं गीत मौन हूँ
 तुम्हारे सुर हवा हैं तो
 मैं सागौन हूँ

मोगरे के फूलों सी
 है मेरी मुस्कान
धीमी समीर सी मैं हूँ
पर तुम हो आँधी
फिर भी जीवन डोर
तुमसे है बांधी
तुम हो गरम मौसम तो
मैं सर्द तूफान हूँ

मेरा मौन टूटता है
तभी जब तुम बोलते हो
मन के सारे राज
 ना जाने क्यों खोलते हो
तुम रहते हो अंजाने से
पर मैं तुम्हारी
पहचान हूँ
तुम्हारी बांसुरी की
 मीठी मीठी तान हूँ !

*"गहरा मन !"
सागर से गहरा
होता है मन
बहुत सन्नाटा हो
 तो रोता है मन
 दूब की तरह हरा और
कोमल मन जब

 सूखता है तो
खाली शामों में
झेलता है
अकेलेपन का दंश

सच कहें तो मन
अगर उघड जाये
 तो रफू भी कहाँ
 होता है मन !




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