सोमवार, 23 नवंबर 2015

जयपुर लिटरेरी फ़ेस्टीवल में बोले जाने वाली मेरी कविताएँ ....25.jan. 2013

माँ वाग्देवी को नमन ,/मंच और सभा में उपस्तिथ/ आत्मीयों और मित्रों को नमन ... आज जो पहली कविता मैं आपके सामने प्रस्तुत करने जा रही हूँ ,वह कुछ विशेष बच्चों को को समर्पित है /ऐसे बच्चे जो देख नहीं सकते /बोल और सुन नही सकते हैं वो बसंत के आगमन पर कैसा महसूस करते हैं ...इन अनुभूतियों को मैंने शब्दों में पिरोने की कोशिश की है ...आपके साथ बाँटना ना चाहूंगी,शीर्षक है ....
"बसंत आने पर!"
1
आज की रात
मैं कविता लिखूंगी
उन नेत्रहीनो के लिए
जो देख नहीं सकते हैं
पर बसंत के आने पर खुश थे
फूलोंकी खुशबू महसूस करके
सोचती हूँ
बसंत के आगमन की
ख़ुशी में आज उन्हें/खुशबुओं से भरा
फूलों का एक गुलदस्ता दे आऊं
आज की रात में कविता लिखूंगी
आज की रात में कविता लिखूंगी
उन मूक बच्चों के बारे में
जो बोल नहीं सकते हैं
पर बसंत के आने पर खुश थे
आँखों से छू रहे थे फूलों को
सोचती हूँ
बसंत के आगमन की ख़ुशी में
उन्हें/ आशाओं से भरा
एक गीत सुना आऊं
आज की रात में कविता लिखूंगी
आज की रात में कविता लिखूंगी
उन बधिरों के बारे में
जो सुन नहीं सकते हैं
पर बसंत आने पर खुश थे
चिड़ियों को देख कर
सोचती हूँ कि उन्हें आज
समुन्द्र की लहरें दिखा आऊँ
आज की रात में कविता लिखूंगी
आज की रात में कविता लिखूंगी
उन मंद बुद्धी बच्चो के लिए
जो समझ नहीं पाते पर
सितारों को देख कर
मुस्कराते हैं
सोचती हूँ /उन्हें
ढेर से गुब्बारे दे आऊं
ताकि उन्हें उड़ा कर वे
ऊपर सितारों कीतरफ
जाता देख सकें
आज की रात में कविता लिखूंगी
आज की रात में कविता लिखूंगी
उन पैर से असहाय बच्चों के लिए
जो चल नहीं पाते पर
बसंत आने पर खुश थे
सोचती हूँ उन्हें
फूलों की रंग-बिरंगी किताबें दे आऊं
जिन्हें पलट कर वे
जीवन से भरपूर दुनिया की
यात्रा कर सकें जी
आज की रात में कविता लिखूंगी
आज की रात में कविता लिखूंगी
फिर   उन सभी को
पहाड़ पर ले जाऊं
उन्हें धरती की इन्द्रधनुषी
सीमायें दिखाऊँ
इस बसंत पर उन्हें भी
एक सपना दिखाऊँ कि
आशाओं में एक
नया अर्श होता है
बसंत में नवजीवन का स्पर्श होता है!
........................................................................

कल गणतंत्र दिवस है -आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
यह कविता समर्पित है उन शहीदों की पत्नियों के नाम जिनके पति देश के लिए कुर्बान हो गए !
इस कविता में एक शहीद की पत्नी के उदगार हैं, जिन्हें मैंने शब्दों में  बाँधा  है .....आपके साथ साझा करना चाहूंगी ..... शीर्षक हैl "शहीद की बीबी।"
तुम ऐसे गए बीत
जैसे हो इतिहास
मैंने सोचा था कि
हवा की तरह
तान लूंगी तुम्हे
अपने जीवन की
मुट्ठियों में बांध लूंगी तुम्हें
पर तुम
लौट कर ही नहीं आये
मैं भी भूल गयी थी कि
तुम तो स्वप्न हो गए हो
यथार्थ नहीं रहे
ओ मेरे तुम, सुनो
आज भी तुम
मेरे लिए अहसास हो
आभास हो
मधुमास हो
क्योंकि देश पर
कुर्बान होकर
तुमने दिया है
मुझे मान
एक शहीद की
बीबी होने का
अब नहीं है कोई गम मुझे
तुम्हे खोने का
क्यूंकि जो हमने पाया है
वह मेरे लिए नियति है
धूप की तरह
जिसे बाँध कर मैं
आँचल में नहीं रख सकती
पर प्रिय
आज मैं तुमसे कहती हूँ कि
कल सिर्फ तुम मेरे
प्राण थे
आज सारे भारत की
शान हो
सच प्रिय
आज तुम कितने
महान हो /कयोंकि
हमारे भारत की
शान हो
शान हो
शान हो !
.....................

अगली कविता है "यह बच्चा किसका है"?हम सभी जानते हैं कि बच्चे हमारी भावी पीढ़ी के कर्णधार हैं पर बहुत आत्मग्लानि होती है यह देख कर कि सोने की चिड़िया हमारे भारत देश में के बाद समाज से जुडा एक वर्ग पढने की उम्र में गली चौराहों पर भीख मांगता है !     उसी दृश्य को मैंने शब्द दिए हैं -आपके साथ बाँटना चाहूंगी ?
3
सुबह की चादर फैंक
वो उठ खड़ा हुआ
और चल पड़ा
चौराहे पर
भूख के बादलों से टपकती
बेबसी की बारिश में
फटे चीथड़ों से
तन ढंके
गीला गीला सा
यह बच्चा किसका है ?
कितना अभ्यस्त है
उसका बचपन
गेंद ,गुब्बारे ,फिरकी
पतंग/ नहीं मांगता
छोटे छोटे हाथ फैलाता
कुछ खनखनाता
सिक्के मांगता
यह बच्चा किसका है ?
चौराहों पर लाल पीली हरी
बतियों के
जलने -बुझने के साथ
संभावनाओं के द्वार खोलता
किसी दैनिक अखबार की तरह
एक स्वर में बांचता हुआ
अपनी लाचारी के समाचार
यह बच्चा किसका है ?
सोने की चिड़िया
कहलाने वाले
भारत के हर गली चौबारों पर
जो माँ को गोद छोड़
उगता बढ़ता है
यह बच्चा किसका है ?
दुत्कारों की आसीसें लेता
रंग बिरंगी आती जाती
कारों पर अक्षर लिखता
यह बच्चा किसका है ?
राष्ट्रीय पर्व पर
तिरंगे झंडे लिए आपमें
राष्ट्रीय भावना जगाता
अगरबत्ती बेच
आपको खुशबुओं से
रूबरू कराता
यह बच्चा किसका है
राष्ट्र ,समाज ,परिवार
सभी से प्रश्न है कि
यह बच्चा किसका है !
डॉ सरस्वती माथुर
नारी की अस्मिता को लेकर बहुत से सवाल उठ रहें हैं बहुत कुछ लिखा जा रहा है ,लेकिन जब भी नारी अस्मिता ,अस्तित्व और वजूद की बात सुनती हूँ या विचार करती हूँ तो यह पंक्तियाँ याद आती हैं -"न होगी पूजा न कोई मसीहा आएगा , मन की शक्ति का सृज़न ही आकाश दिलाएगा !" और इसी सृज़न को समर्पित है नारी पर यह कविता जो आपके साथ मैं बाँटना चाहूंगी।....
4
नारी भी होती है
एक गुलाब सी !
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
अलग अलग रंगों में
आभा बिखेरती है
सुगंध बांटती है
प्रकृति महकाती है
गुलाब जल सी ठंडक देती है
गुलाब का सौन्दर्य
सभी को लुभाता है
लाल ,पीले ,सफ़ेद , रंग
एक नयी भाषा गढ़ते हैं
प्रकृति की धारा में
बुलबुले सी उठती गिरती
रंगीन गुलाब की
पतियों का भी
एक अलग ही रस होता है
सच गुलाब
मन को कितना मोहता है ?
अलग अलग रूपों में
रंगों में, महक में
तभी तो कहते हैं हम
नारी भी होती है
एक गुलाब सी
जो अलग अलग रंगों में
रूपों में ,
मा बेटी पत्नी बहिन सी
प्रकृति में महकती हैं और
पक्षियों की मीठी बोली सी
हमारे घर आँगन में
चह्कती है और
गुलाब की पत्तियों सी
वह भी जब झरती है तो
सुगंध की पुरवा हमारे
इर्द गिर्द बिखेर कर
वातावरण को
सुवासित कर
स्वर्गीय आनंद से
हमें भर देती है
तो आओ इसकी महक को
महसूस करें और
जीवन में भर कर
इस सुवास को
फैलने दें, फैलने दें, बस फैलने दें !
.......................................................
हम सभी जानते हैं की माँ और पिता ईश्वरीय रूप हैं उनको कभी भी शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता बस नमन ही किया जा सकता है ! अगली कविता पिता को समर्पित करते हुए आपके साथ साझा करना चाहूंगी..."पिता तुम्हारे ख़त "

"पिता के ख़त !"पिता तुम्हारे ख़त
खिले गुलाब से
मेरे मन आँगन में
आज भी महक रहे हैं
जब भी उदासी की बारिश में
. भीगती हूँ
छतरी से तन जाते हैं
सपना देखती हूँ तो
उड़नतश्तरी बन मेरे संग
उड़ जाते हैं
जादुई चिराग से
मेरी सारी बातें
समझ जाते हैं

पिता तुम्हारे ख़त
मेरी उर्जा का स्त्रोत हैं
संवादों का पुल हैं
कभी भी मेरी उंगली थाम
लम्बी सैर पर निकल जातें हैं
पिता तुम्हारे ख़त
पीले पड़ कर भी
कितने उजले हैं
रातरानी से
आज भी महकते हैं
पिता तुम्हारे ख़त
अनमोल रातरानी के
फूलों से खतों के शब्द
ठंडी काली रातों में
एक ताजा अखबार से हैं
ख़त समाचार भरें हैं
उसमे परिवार ,समाज ,देश
एक कहानी से बन गए हैं
इतिहास से रहते हैं उनके भाव
हमेशा मेरे पास जिन्हें
सर्दी में रजाई सा ओढ़ती हूँ
गर्मी में पंखा झलते हैं

पिता तुम्हारे ख़त
बारिश में टपटप
वीणा तार से बजते हैं
इसके संगीत की ध्वनित तरंगें
मेरा जीवन रथ है
इसके शब्दों को पकडे
तुम सारथी से मुझे
सही राह दिखाते हो
इन्हें सहेज कर रखा है
आज भी मैंने
कह दिया है
अपने बच्चों से कि यह
मेरी धरोहर हैं
जो आज भी मेरा
विश्वास है कि
मेरे पिता मेरे जीवन का
सारांश हैं
बहुत खास है
पिता तुम्हारे ख़त !
.....................................
डॉ सरस्वती माथुर
...................................
नारी की बात हुई है उसके विभिन्न रूपों की बात हुई है/ तो अगली कविता में एक अजन्मी  बेटी का निवेदनसुनते हैं, जो अपनी माँ से कह रही है कि माँ अब वक्त आ गया है /तुम्हारी परीक्षा का/ मेरी सुरक्षा का
 तो आइये इस अभियान में हम भी बेटी का स्वागत करें ......
6
माँ
वक्त आ गया है
अब तुम्हारी परीक्षा का
मेरी सुरक्षा का
अजन्मे व्यक्तित्व को अब
गरिमा देनी होगी क्यूंकि
मैं भी तो हूँ ब्रह्म का अंश
बेटे जन कर देती हूँ वंश
फिर बेटे बेटी की कसौटी पर
क्यों करता है समाज
मेरा मूल्यांकन क्यूँ नहीं करता
मेरी क्षमताओं का आकलन
माँ तेरे आँचल में तो
ममता है
फिर इस परिवेश में
क्यूँ नहीं समता है ?
मेरा निवेदन बस
इतना भर है
तेरी कोख अभी
मेरा घर है
तू मेरी पैदाइश कर दे
मेरे जन्म को अपनी
ख्याइश कर दे
इतनी बस समझाइश कर दे
चुनौतियों की इस डगर पर
नई शुरुआत कर सकूँ
सरस्वती ,लक्ष्मी और दुर्गा का
साक्षात् रूप धर सकूँ इसलिए
अब वक्त आ गया है कि
सीपी बन कर तुम
संपुट की आभा दे दो
फिर मोती बन कर निकलूंगी
सूरज सी चमकूंगी
,माँ, मुझ पर तुम्हारा
कर्ज रहेगा पर
तुम्हारे विश्वास की
किश्तें चुकाना
मेरा फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा
फ़र्ज़ रहेगा !
डॉ सरस्वती माथुर
अगली  कविता है स्वप्न सृष्टि सच कहें तो नारी और चिड़िया कभी कभी मुझे एक सी लगती है दोनों को एक सुरसुरक्षित नीद चाहिए होता है जहाँ से वह उड़ान भर सकती है जिन्दगी को गतिमान रखने को,,,,,
7
आसमान पर मंडराती
चिड़िया मुझे
कभी कभी बहुत लुभाती है
सपनो में आकर
अपने पंख दे जाती है
मैं तब उड़ने लगती हूँ
गगनचुम्बी इमारतों पर
निरंतर शहर में
विस्तरित होते गाँवों
,खेतों ,खलिहानों पर
हवाओं की लहरों संग
बतियाते फूलों पर
आकाशी समुन्द्र की
बूंदों से अठखेलियाँ करती
आत्मस्थ होकर
उड़ते उड़ते मेरी
मनचाही उड़ान
मुझमें विशवास की
एक रौशनी भर देती है /और
मैं उड़ जाती हूँ
अनंत आकाश में
धरती से दूर वहां
जिन्दगी को
गतिमान रखने को
सपने पलते हैं और
मैं उतर कर उड़ान से
एक नीड ढूँढती हूँ
जहाँ सुरक्षित रहें
जंगलों का नम हरापन
बरसाती चश्मा
ऊँचें पहाड़
गहरी ठंडी वादियाँ
पेड़ ,नदी ,समुन्द्र और
पेड़ों पर चह्चहाते -
गीत गाते रंग बिरंगे परिंदे
नित्य और निरंतर
गतिशील लय की
अनंतता में बस
अनंतता में !
डॉ सरस्वती माथुर
.....................................
बेटी के जीवन में माँ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है क्यूंकि वो तो माँ के लिए एक बहता झरना होती है ...तो चलिए, इस के बहाव में हम भी एक गोता लगा लें !
8.
"आओ बेटी!"
मन के झुरमुट के

उस पार से

एक अनुगूँज है आती कि

बेटी होती है

गुलाब की पंखुड़ियों सी

घर आँगन है महकाती

तभी तो दुर्गा रूप कहलाती


आओ बेटी सच

झरना ही तो हो तुम

मीठे पानी का

कलकल बहती जाओ

मरुस्थल के जल सी

सबकी प्यास बुझाओ

पाखी सी दूर गगन तक

पंख पसार कर

उन्मुक्त उडो तुम और

आच्छादित कर लो

सतरंगी आभा से

अपने जीवन का

सुंदर आसमान

भर कर वहां

तने इन्द्रधनुष के रंग

अपने जीवन में भर लो


याद रखना बेटी

मैं माँ हूँ पर एक

दोस्त की तरह हमेशा

तुम्हारे साथ रहूंगी

एक परछाई सी

संग चलूंगी

तुम मेरे जीवन नभ का

झिलमिलाता एक चाँद हो

तुम्हारी चांदनी से आओ

मैं अपना घर भी

रोशन कर लूं

जब सुबह हो तब तुम

भोर किरण सी

मेरे आँगन में

धूप सी फ़ैल जाना

और नीम डाली पर बैठ कर

मुझे आशा का

नवगान सुनाना

प्यारी बेटी

राजरानी हो तुम मेरी

एक मौसम हो तुम

बसंत का,
 देखना तुम

महसूस करोगी कि

हवा के ठंडे झोंके सी
मैं तुम्हारे

इर्द गिर्द फैली हूँ

एक पारदर्शी आवरण सी
तुम्हारी
परछाई बन कर  !

डॉ सरस्वती माथुर
 ....................................
एक कविता और नारी की सृज़ननात्मक शक्ति को नमन करते हुए 9
9
"यह प्रवाह !"नारी ने कहा
जीवन पथ में
समाधान की रोशनी लेकर
मैं चलूंगी
निकाल लाऊंगी सूरज
धुंधलका मिटाने को
अँधेरे चीरने को
और कुछ भी अब नहीं
रहने दूँगी
 अनिर्णित
न ह़ी विवेक की
हथेलियों से
फिसलने दूँगी
रेत की तरह
अपना वर्तमान
बिखरने भी नहीं दूँगी
फर्श पर गिरे पारे सा
अपना अस्तित्व
नारी ने कहा
कुछ परवाह नहीं मुझे
अब
अवरोधों की
न ह़ी परवाह है
भूचालों और आंधियों की
में तो अब प्रवाह बनूंगी
जो न रुका है न रुकेगा
मुट्ठी में ले भूकंप
जिगर में आग बसाये
नयनो में निर्माण
कंठों में राग बसाये
अब में निरंतर स्वर बनूंगी
मैं भविष्य बनूंगी
वो भी न मिटा है
न मिटेगा कभी
जीवन- पथ में
मैं विकास बनूंगी
ऐसा विकास
जो न थका है
न थकेगा कभी
वह तो बस
नदी सा
कलकल करता
राह बनाता
बस निरंतर
आगे बढेगा ...!
डॉ सरस्वती माथुर
....................................
10
"नहीं मैं गुडिया !"
अब नहीं वह गुडिया
न ही काठ की पुतली
अब वह बोलती है
चुप्पी साधे भी तर्क करती है
चारदीवारी में रह कर भी
उन्मुक्त भागती है
पल पल में बदलते तेवरों के साथ
दागती है प्रश्न
रूकती कभी नहीं
आँगन में हवा की तरंगें
अब उसके लिए खूंटा नहीं
उसकी दुनिया की परिधि
अब यंत्र तंत्र नहीं है
न ही है वो
चिड़िया घर की बंदी चिड़िया
हाँ, वह एक जाना पहचाना
नाम है, मर्यादा का रूपक है
कलकल नदी है
जिसके बहाव को रोकना
संभव नहीं
उसे तो मार्ग बनाते हुए
आगे बदना है और
समुन्द्र में मिलने से
पहले ही
हर बाधा से लड़ना है
डॉ सरस्वती माथुर 

डॉ सरस्वती माथुर ए-२ सिविल लाइन्स- जयपुर ६


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