"पितरों का आह्वाहन !"
अम्माँ रोज
सुबह शाम
घर के पितरों कों
शीश नवाती थी
आले में दीप बाल के
रोज घर के दु;ख दर्द
पितरों को बाँच कर
हल्की हो जाती थी
बड़े भैया का
इम्तिहान हो या
आचुकी दीदी की
सगाई का मसला
झटपट वो रतजगा दे
पितरों का
आह्वाहन करती
रतजगे के गीतों से
घर आँगन
सम्मोहित हो जाते थे
गुलाब के माला की
मनमोहिनी खुशबू
सभी को विमोहित
कर देती थीं
और तब अम्माँ
कहती थी कि
देखो- देखो तुम्हारी
दादी अम्मा आयी है
हम सब बच्चे
पाटे के पास
खिसक कर
आँखें फाड़ कर देखते
बबुआ पूछता
"कहाँ अम्माँ ?"
तो झट से अम्माँ
हाथों का ओट बना
ज्योत के पास
ले जाकर माथा टेक कर
कहती कि देख बबुआ
ज्योत तेज हो गयी है
और अम्माँ की तस्वीर की
मुस्कान हिल रही है
चल हाथ जोड़ तब
हम सब हाथ जोड़
आँख बंद कर लेते है
घर की हवाओं में
रतजगे के गीत
गूँजते रहते हैं और
मिट्टी के दिये की ज्योत में
सृजन की लौ पूरे घर में
आत्मविश्वास भर देती है
लेकिन अब सूरज
किसी दिशा में मुड़े
समय बदल गया है
बच्चों पर
पश्चिमी संस्कृति ही
हावी रहती है जो
अपनो से दूर ले जाती है
अम्माँ बताती थीं कि
पहले जब भी
मकर सक्रांत आती थी
तो बहुएँ सास को
सूते सोड जगाती थी
पूर्वजों के
पास कर देती थीं
अपनों के दिलों को
जोड़ देती थी पर अब ...
कह कर अम्माँ
एक लंबी चुप्पी
ओढ़ लेतीं थी
इसके आगे अम्माँ की
आंखे बोलती थी
जिसमें दर्द की
अथाह गहराई का
समुन्द्र झलक कर
लहरों सा मन के तटों पर
थपेड़े मार रहा होता था !
डॉ सरस्वती माथुर
अम्माँ रोज
सुबह शाम
घर के पितरों कों
शीश नवाती थी
आले में दीप बाल के
रोज घर के दु;ख दर्द
पितरों को बाँच कर
हल्की हो जाती थी
बड़े भैया का
इम्तिहान हो या
आचुकी दीदी की
सगाई का मसला
झटपट वो रतजगा दे
पितरों का
आह्वाहन करती
रतजगे के गीतों से
घर आँगन
सम्मोहित हो जाते थे
गुलाब के माला की
मनमोहिनी खुशबू
सभी को विमोहित
कर देती थीं
और तब अम्माँ
कहती थी कि
देखो- देखो तुम्हारी
दादी अम्मा आयी है
हम सब बच्चे
पाटे के पास
खिसक कर
आँखें फाड़ कर देखते
बबुआ पूछता
"कहाँ अम्माँ ?"
तो झट से अम्माँ
हाथों का ओट बना
ज्योत के पास
ले जाकर माथा टेक कर
कहती कि देख बबुआ
ज्योत तेज हो गयी है
और अम्माँ की तस्वीर की
मुस्कान हिल रही है
चल हाथ जोड़ तब
हम सब हाथ जोड़
आँख बंद कर लेते है
घर की हवाओं में
रतजगे के गीत
गूँजते रहते हैं और
मिट्टी के दिये की ज्योत में
सृजन की लौ पूरे घर में
आत्मविश्वास भर देती है
लेकिन अब सूरज
किसी दिशा में मुड़े
समय बदल गया है
बच्चों पर
पश्चिमी संस्कृति ही
हावी रहती है जो
अपनो से दूर ले जाती है
अम्माँ बताती थीं कि
पहले जब भी
मकर सक्रांत आती थी
तो बहुएँ सास को
सूते सोड जगाती थी
पूर्वजों के
पास कर देती थीं
अपनों के दिलों को
जोड़ देती थी पर अब ...
कह कर अम्माँ
एक लंबी चुप्पी
ओढ़ लेतीं थी
इसके आगे अम्माँ की
आंखे बोलती थी
जिसमें दर्द की
अथाह गहराई का
समुन्द्र झलक कर
लहरों सा मन के तटों पर
थपेड़े मार रहा होता था !
डॉ सरस्वती माथुर
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