"गांवों की त्रासदी!"
सांझ का दीप जला
देहरी पर रखा
बाती जल कर
राख हो गयी
पी अँधियारा
दी थी रोशनी
जली देर तक
फिर खाक हो गयी
अम्माँ बाट जोहती
रोज की तरह बाबा की
थक कर थी सो गयी
लौटे जब बाबा
गिरवी रख कर
खेतो से थके हारे से
अम्माँ को ना जगाया
रसोई में जाकर
ढ़की थाली उघाड़ी
ठंडा दाल भात खाया
फिर पड़ गए बिस्तर पर
भीतर मन में थी रेलमपेल
हार गए थे मुकदमा
जमीन का
जीवन का था यह कैसा खेल
नीर दबा आँखों के बाबा
अनमने हो सो गए
सुबह जो जागे
अम्माँ से बोले
आज खाना ना बांधना
खेत खलिहान जो
रखे थे गिरवी
हमेशा के लिए हैं खो गए
चुप्पी छाई घर में ऐसी
महीनो बंद रहे संवाद
कर्ज में डूब गया था घर
सब कुछ हो गया था बर्बाद
रोज चौमुखा दीप जल कर
अम्माँ बाबा चुप ही रहते
एक दूजे से क्या वो कहते
गए थे अपना सब कुछ हार
बदल गया था
आत्मीय जनो का भी
मीठा था जो व्यवहार l
2
एक माचिस की
तीली सा
जब जल जाता है मन
तब बुझा देती हूँ
यादों के दिये
वादे की बाती
यूहींवक्त के तेल में
समर्पण ले भावॉन से डूबी रहती है
जब पी लेती है
वादे की बाती जी भर के तेल
तो फिर सुलगा लेती हूँ
माचिस की तीली
बाती ऊपर करती हूँ पर
भरभरा के बाती छोड़ने लगती है तेल
सच कहूँ तो तब लगता है
आग और मन दोनों ही है
साजिस का खेल
जला कर बाती आखिर
फूँक देती हूँ बहुत सी दबी छिपी
मन की बातें और
उड़ा देती हूँ
राख़ हवा में लेकिन
यह क्या
वह तो फीनिक्स की तरह है
जीवित हो जाती है
तब मैं खुद ही बुझ जाती हूँ
बिना तेल की बाती सी
भभक कर राख़ हो जाती है ।
सांझ का दीप जला
देहरी पर रखा
बाती जल कर
राख हो गयी
पी अँधियारा
दी थी रोशनी
जली देर तक
फिर खाक हो गयी
अम्माँ बाट जोहती
रोज की तरह बाबा की
थक कर थी सो गयी
लौटे जब बाबा
गिरवी रख कर
खेतो से थके हारे से
अम्माँ को ना जगाया
रसोई में जाकर
ढ़की थाली उघाड़ी
ठंडा दाल भात खाया
फिर पड़ गए बिस्तर पर
भीतर मन में थी रेलमपेल
हार गए थे मुकदमा
जमीन का
जीवन का था यह कैसा खेल
नीर दबा आँखों के बाबा
अनमने हो सो गए
सुबह जो जागे
अम्माँ से बोले
आज खाना ना बांधना
खेत खलिहान जो
रखे थे गिरवी
हमेशा के लिए हैं खो गए
चुप्पी छाई घर में ऐसी
महीनो बंद रहे संवाद
कर्ज में डूब गया था घर
सब कुछ हो गया था बर्बाद
रोज चौमुखा दीप जल कर
अम्माँ बाबा चुप ही रहते
एक दूजे से क्या वो कहते
गए थे अपना सब कुछ हार
बदल गया था
आत्मीय जनो का भी
मीठा था जो व्यवहार l
2
एक माचिस की
तीली सा
जब जल जाता है मन
तब बुझा देती हूँ
यादों के दिये
वादे की बाती
यूहींवक्त के तेल में
समर्पण ले भावॉन से डूबी रहती है
जब पी लेती है
वादे की बाती जी भर के तेल
तो फिर सुलगा लेती हूँ
माचिस की तीली
बाती ऊपर करती हूँ पर
भरभरा के बाती छोड़ने लगती है तेल
सच कहूँ तो तब लगता है
आग और मन दोनों ही है
साजिस का खेल
जला कर बाती आखिर
फूँक देती हूँ बहुत सी दबी छिपी
मन की बातें और
उड़ा देती हूँ
राख़ हवा में लेकिन
यह क्या
वह तो फीनिक्स की तरह है
जीवित हो जाती है
तब मैं खुद ही बुझ जाती हूँ
बिना तेल की बाती सी
भभक कर राख़ हो जाती है ।
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