मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कवितायें ...तुम लौट आओगे /अबोला /नि:शब्द नींद /निरंतर बहो /नया साल भी मैं

*"तुम लौट आओगे !"
हमारे  तुम्हारे बीच
फैला है अबोले का
जो  सन्नाटा
पंखनुची चिड़िया सा
हर शाम उतर जाता है
 मेरे आँगन में
 तुम्हारी याद से
 संवाद करता है
 पुराने  दिनों के
 फूलों पर
मंडरा छूटे वक्त का
 पराग बटोरता है
मापता है फासले
जो किसी
पगडंडी पर
चलते चलते मुड गए
 बस वहीं हूँ मैं
उसी मोड पर
सहेज रही हूँ वो

पदचिन्ह जो
खामोशी से
वहीं जड़ हो गयें हैं
बारिश ,आँधी
 तूफान भी वहाँ
यदा कदा आते हैं
 उन्हें  मिटा नहीं पाते
मुझे विश्वास है कि
 यदि मिट गए तो
 तुम लौट आओगे l
  *"अबोला!"
केंचुल बदल बदल कर
 सरकता रहा
 हमारे बीच
  जो अबोला
_उसी में छिपा है
कहीं पर संवाद जो
लगातार बोल रहा था
 हमारे रिश्तों को
खोल रहा था
 कभी तुम्हारे

कभी मेरे बीच के
फासले टटोल रहा था l
शायद उसे भी
 उन पैमानो के
 टूटने का
 इंतजार होगा
जो अभी भी
 तयशुदा जिद पर
 चिड़िया से
 मंडरा रहे थे
उड़ना चाह कर भी
उड नहीं पा रहे थे
 संवाद हो जाता तो
 अबोले का जहर भी
 खत्म हो जाता पर
 अहम का अ और
 चुगलखोर हवाएँ
 ऐसा होने कहाँ देगी ?
3
*"नि:शब्द नींद !"
पौधे की तरह
उग जाता है
 एक सपना
 जब आँखों में तो
देर तक मैं
 नैन तलैया में
गोते लगाती हूँ
नि:शब्द नींद
चिड़िया की तरह
 उड़ती हुई जब


थक जाती है तो
 रूह सी उड
 मेरी देह पर एक
 दंश छोड़ जाती है
मेरे  जीवन को
 नए मोड पर
 छोड़ जाती है  l
...................
4

*"निरंतर बहो !"
लहरों तुम
 मन सागर में
सिहरता स्पर्श हो

हरहराते हुए जब भी 
गहराई में उतर मै
नदी सी तुम्हारे
भीतर के सागर से
 मिल जाती हूँ तो

उसके अमृत रस में
मेरा अस्तित्व भी
समाहित हो जाता है
 मुझे नव संदेश

 देता है कि
निरंतर बहो- बहती रहो
सच लहरों तुम तो
गति देने वाला
चक्रशील एक संघर्ष हो
तुम्ही  ने सिखाया है

तूफानों से जूझ कर
शांत होना
 अपने दर्द को

किसी से ना कहना !
..............
5
*"नया साल भी मैं !"
नदी भी मैं हूँ
लहरें भी मैं
नाव भी मैं हूँ 
 तो बहाव भी मैं
धूप मैं हूँ
तो छाँव भी मैं

शहर से गाँव तक की
 पगडंडी  मैं हूँ
तो खेतो पर लहराती

हरियाली धान भी मैं
जीवन मैं हूँ तो
मृत्यु का काल भी मैं

अस्तित्व की
डोर से बंधी

 थपेड़े खा कर चलती
इयता की पतवार  मैं हूँ
तो नाव को दिशा
देने वाली पाल भी मैं
सागर तटों पर
 किलकिलाते 
पाखियों की
उड़ान  मैं हूँ
तो किनारे पर
 रेत से घरोंदे पाथते

बच्चों की
 पहचान भी मैं

 नीले  सागर  को

 बूंद बूंद भरने का
 चषक  मैं हूँ तो
 ज्वारभाटा का
 हाहाकार शोर भी मैं
 चाँद को पगलाने वाली 

चाँदनी  मैं हूँ
 तो सागर मथ कर
फेन बिछाने वाला
  श्वेत जाल भी मैं  


 लहरों की बूंदों से
जलतरंग बजाने वाली
सुरमयी ताल मैं  हूँ तो
 हर साल नयी ऊर्जा से
गतिमान करने वाला
नया साल भी मैं l



.......................
"नववर्ष  का अभिनंदन ।"
कोयल बोली
देख आमों पर बौर
उठा अमराइयों में
पाखियों का शोर
चिड़ियों ने किया वंदन
नववर्ष का अभिनंदन

सूरज धरा पर आया
बर्फ ने रंग जमाया
धुँध भरा सवेरा लेके
कोहरा  पर्वत पर छाया
मौसम मे था कंपन
धूप  में नहीं थी पुलकन
 नववर्ष का अभिनंदन

नव उल्लास का दीप
जलाया घर आँगन
नव चिंतन लेकर
धरा हो गयी मधुवन 
कलियाँ फूल यूँ झूमें
जैसे झूमें बचपन
नववर्ष का अभिनंदन
डॉ सरस्वती माथुर
ए -2 , सिविल लाइंस
जयपुर -6






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