सोमवार, 4 मई 2015

 
आयोजिका

क्या मातृत्व का स्वरुप बदल रहा है ?
डॉ सरस्वती माथुर
आयोजिका

क्या मातृत्व का स्वरुप बदल रहा है ?
डॉ सरस्वती माथुर




















FROM :
DR SARASWATI MATHUR
A--2 CIVIL LINES JAIPUR _....6

क्या मातृत्व का स्वरुप बदल रहा है ?
डॉ सरस्वती माथुर
मातृदिवस पर माँ का स्मरण एक सुखद अनुभूति से भर देता है.घर की सर्वोत्तम सत्ता के रूप में बच्चे माँ को जानते हैं . बेहद छोटा सा प्यारा सा शब्द है - माँ ! यह अपने भीतर अथाह सागर समेटे हुए है कहा जाता की जब ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की तो उसके लिए हर जगह खुद मौजूद होना संभव नहीं था तो संसार की हिफाज़त के लिए उसने माँ को बनाया . माँ के प्यार की कोई सीमा नहीं होती . माँ बच्चों के पैदा होने से लेकर उनको पालने ,बड़ा करने और आत्मनिर्भर बनाने में बहुत अहम् भूमिका निभाती है. किसी भी बेटी से उसके बचपन के बारे में बात करके देखें माँ उसके जीवन का हिस्सा होती है. एक दोस्त के रूप में ,मार्गदर्शक के रूप में वह हमेशा उसके अस्तित्व को सकारात्मक व्यक्तित्व तक ले जाने की कोशिश करती है.
एक बच्चा जन्म लेने जा रहा था .उसने भगवान् से पूछा आप मुझे कल नीचे पृथ्वी पर भेज रहे हैं, मैं इतना छोटा और असहाय हूँ ,वहां जाकर कैसे रहूँगा ?
भगवान् बोले बहुत सारी परियों में से एक परी मैंने तुम्हारे लिए चुनी है.वही तुम्हारी देखभाल करेगी .पर मुझे बताइए मेरे साथ वहां क्या क्या होगा , मैं वहां क्या करूँगा ? यहाँ स्वर्ग में मैं कुछ नहीं करता,हंसने और गाने के सिवाय ,इसी से मुझे ख़ुशी मिलती है. वह परी तुम्हारे लिए हर दिन गाएगी , मुस्कराएगी ,तुम्हारी हर ख़ुशी का ख्याल रखेगी और धीरे धीरे तुम्हे नया भी बहुत कुछ सिखाएगी !
वहां के लोगों की भाषा में कैसे समझूंगा ?
वह परी तुम्हे मधुर शब्दों में सब समझाएगी और तुम्हे बोलना भी सिखाएगी और जब मैं आपसे बात करना चाहूँगा तो क्या करूँगा ?
वह परी तुम्हे हाथ जोड़ कर मेरी प्रार्थना करना सिखाएगी .जिससे सीधे न सही पर भावनात्मक स्तर पर हमारी तुम्हारी बातचीत होगी जरूर!
सच ही तो है . आज भी हमारी जरूरतों को पूरा करने में ,हमारे जीवन को सवारने में माँ का बहुत बड़ा योगदान होता है.
बच्चे की पहली सहायिका, अध्यापिका ,पहली ट्रेनर ,पहली दोस्त ,पहली मार्गनिर्देशक माँ ही होती है.वह ही सब कुछ सिखाती है बच्चे को! अंतर केवल इतना आया है की बच्चे की जरूरतों ,आवशयकताओं को पूरा करने के तरीक बदल गए हैं ,उन्हें आराम से रखने के तरीकों ,उन्हें सुविधाएँ देने के तरीकों में भी बदलाव आया है , हमारी लाइफ स्टाइल भी बदल गयी है और आज का परिवेश तो खैर बदला ही है, माँ आज बच्चों की चिंता दूसरे ढंग से रखती है..उनकी सुविधाओं की चिंता का तरीका भी उनका अलग है !
समय परिवर्तनशील है बहुत कुछ बदला है ,हमारी सोच में बदलाव आया है .आज माँ बनते ही बच्चे के पीछे माँ सब कुछ भूल नहीं जाती .वह अन्य कई सरोकारों से भी जुडी होती है.पहले अधिकांश माताएं घर में रहती थीं उनकी सारी दुनिया घर के इर्द गिर्द थी लेकिन आज वह दोहरी भूमिका भी निभा रही है.आज के दौर में शिक्षा के प्रचार प्रसार में नारी जगत में काफी बदलाव आया है .समय ने करवट बदली है अत; पुरानी मान्यातएं भी आज के सन्दर्भ में बदल गयीं हैं.सच कहा जाये तो एक नया सवेरा हुआ है. नारी जगत में काफी बदलाव आया है, आज वह पुरुषों की तरह ही विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं. आज स्त्री हर वो काम भी कर रही है जो कभी पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में हुआ करते थे . आज युग परिवर्तन की मांग के फलस्वरूप नारी जो एक माँ भी है ...दोहरी भूमिका निभा रही है.बदला तो पुरुष भी है.परंतू मातृत्व दिवस के इस पर्व पर उस नारी की बात हो रही है- जो माँ भी है और एक समर्पिता की भूमिका भी निभा रही है.... व्यस्त रहते हुए भी माँ की भूमिका में संतुष्टि महसूस करती है . एक अध्ययन भी बताता है की पहले की तुलना में आज माँ के स्वरुप में बदलाव आया है!
.आइये बात करते हैं कुछ प्रबुद्ध महिलों से की क्या सोचती हैं वह माँ के इस बदलते हुए स्वरुप को लेकर..क्या सचमुच में आज के आपाधापी के युग में माँ की छवि बदली है?
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत हैं कुछ स्वदेसी व कुछ प्रवासी प्रबुद्ध महिलाओं के विचार ,अनुभव प्रतिक्रियाएं और ,भावनाएं !
परिचय सुप्रसिद्ध कवि स्व० श्री नरेन्द्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य-परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं।

समाजशा्स्त्र और मनोविज्ञान में बी.ए.(आनर्स) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्ध पौराणिक धारावाहिक "महाभारत" के लिये कुछ दोहे भी लिख चुकी हैं। इनकी कुछ रचनायें और स्व० नरेन्द्र शर्मा और स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेसकर से जुड़े संस्मरण रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं।

समय के साथ साथ , समाज , व्यक्ति तथा व्यवहार तीनों
में

बदलाव आता है परंतु
इस की गति पृथ्वी के घूमने की तरह
आहिस्ता से घटती है

जिसका आभास हमे होता तो है
परन्तु हमें यह

परिभ्रमण डगमगाता
नहीं बल्कि अपने संग ,
हमसफर बना ये हुए
ले
चलता है . मेरे पापा
पण्डित नरेंद्र शर्मा जी ने धरती माता के लिए कहा है ..
" धरित्री पुत्री तुम्हारी हे अमित आलोक ,

जन्मदा मेरी वही है स्वर्ण -गर्भा कोख ! "
स्व. पं. नरेंद्र शर्मा,
माँ की छवि बदली तो है परंतु प्राचीन बिम्बों और मूल्यों को
भी
आत्मसात कीये हुए , छाया और प्रतिमा को संग लिए हुए है
.

उत्तर २ : जी हां कोशिश
तो यही की है .




उत्तर ३ : हाउस वाईफ ही रही हूँ और अगर गणितीय अंकों के
सहारे कहूं तो



७५ % से अधिक मेरा योगदान रहा है


.


उत्तर ४ : हां
कुछ प्रतिशत अवश्य करते हैं .






उत्तर ५ : संचार माध्यमों का हर पढ़े लिखे व्यक्ति के जीवन
में दाखिला हो



चुका है और सेल फोन , लेप टॉप इत्यादी, आज , आम हो चुके
हैं



मेरे बच्चों के बारे में कहूं तो , वे इन सभी का सद उपयोग ही करते हैं
,



दुरूपयोग नहीं करते .




उत्तर ६ : जी
हां कोशिश तो यही रहती है .






उत्तर ७ : मेरी अम्मा श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा सम्पूर्ण
माँ थीं .



वे मुझसे हर क्षेत्र में , बेहतर
थीं

.





उत्तर ८ : अम्मा ने मेरे कवि पिता पण्डित नरेंद्र शर्मा के
देहली में आकाशवाणी




के लिए चीफ प्रोड्यूसर एवं डायरेक्टर के पद पर कार्य करने के



समय जब उन्हें ७ वर्ष , देहली में रहना पड़ा था , सबसे बड़ी दीदी



बड़े चाचा जी की बिटिया गायत्री दीदी हम ३ बहनें,



पूज्य पापा
जी
की बगिया के पुष्प थे हम !



बड़ी वासवी , मंझली मैं, लावण्या व छोटी
बाँधवी
व १ भाई को अम्मा
ने


,

बहुत साहस
व प्रेम सहित
बागबानी एवं अन्य सारे कार्य पूरे करते हुए अकेले ही सम्हाला
था



उस वक्त , हमे पापा की कमी तो सदा , बेहद खलती रही थी





पर , अम्मा के ममतामय आंचल तले दुनिया की कड़ी धूप से हम ,
सदा



सुरक्षित रहे , पले , बढ़े . ये भी याद है तो उस वक्त मेरी
अम्मा का



साहस पूर्ण उत्तरदायित्व निभाना जो अति महत्त्वपूर्ण था वह याद





करते हुए श्रध्धा नत हूँ

.

ये उनकी पहली बात
है जिसे मैं आज भी याद
कर अभिभूत हो जाती हूँ




शायद मेरी यह नियति रही है कि
मुझे अपने
पति
दीपक जी का सहकार व सानिध्य ,




अधिक मिला और इस
कारण
जो साहस
अम्मा में देखा था



वैसा कम प्रदर्शित करने के अवसर आये
और
पति देव
द्वारा ,



अधिकाँश कार्यभार वहन करने की
मुझे आदत हो गयी!



दूसरी बात जो महत्त्वपूर्ण है वह है अम्मा द्वारा हम बच्चों
पर लगाया



हुआ अनुशाशन !
प्यार से भरी चपत ने ना जाने कितनी अच्छी बातों के



प्रति सचेत किया और
बहुत सी बातें सीखलाईं भी ! जैसे गोल और नर्म




रोटी बेलना और घर
गृहस्थी के अन्य बीसीयों महत्त्वपूर्ण कार्यों को



सीखलाना ये भी तो , अम्मा के जिम्मे था . जिसे मैंने, आगे ,
अपनी पुत्री पे




अनुशासित नहीवत किया है .




आज समय बदला है अगर अमरीकी समाज में रहते हुए ,



वे अलग बानगी पसंद करें और
खाना चाहें तो यह उनकी इच्छा



है जिस का मैं सम्मान करती हूँ और आग्रह नहीं करती कि , मेरी
तरह ही



मेरी पुत्री या पुत्रवधू ' रोटी ' बनाएं . अगर वे , इटालियन,
मेक्सीकन या



पंजाबी या दक्षिणी डॉसा , या इडली से पेट भरना चाहें तो वही
सही -



इस बात को देखते , मैं , अनुशाशन के मामले में मेरी अम्मा से
कम हूँ -



तीसरी महत्त्वपूर्ण बात और सब से अधिक जिसका महत्त्व है वह है
हम में



आत्म विश्वास भरना ! जिस के तहत , आज , कहीं भी जाऊं, जिस
किसी से



भी मिलूँ , विश्व
के सभी मुझे अपने लगते हैं और अम्मा के द्वारा दिया



वात्सल्य - भाव आज शायद मुझ में समा कर , पुन : प्रवाहित होते
हुए



सहज स्वाभाविक बना हुआ है . समाजशास्त्र और मानस शास्त्र
मेरे






ग्रेज्यूएशन के विषय रहे हैं फिर भी
मेरी अम्मा, ने भारत की अनगिनत



माताओं की तरह, ना जाने , कब और कैसे , इतना सारा कैसे कर
लिया



उसका उत्तर , मेरी एकेडेमिक पढाई के आधार पर भी ,
कुछ शब्दों में



समेटना , सर्वथा , असंभव लग रहा है !



आगे कहूँ तब आज के बच्चों में , अपार आत्म विश्वास पहले से ही मौजूद
है



शायद स्वतन्त्र भारत की पहली व
दूसरी
पीढी को अपना आपा व
अस्तित्त्व



स्थापित करने में अधिक संघर्ष
करना पड़ा



जब के आज जो बच्चे हैं , उन के लिए गूगल , फेस बुक ,
कम्प्यूटर व



आधुनिक शिक्षा प्रबाली , संचार माध्यमों से लैस वातावरण ने
जीवन



को पारदर्शी एवं अधिक सुलभ बना कर प्रस्तुत किया है आशा यही
है



कि प्राचीन से अच्छा लेकर , नये के अच्छे तत्त्वों को मिलाकर
भावी

 

लेखिका शैल अग्रवाल जी का जन्म 21 जनवरी 1947 को वाराणसी, भारत के एक संभ्रान्त व्यापारिक परिवार में हुआ .नर्सरी से लेकर अंग्रेजी साहित्य में एम .ए. तक की इन्होंने अपनी सम्पूर्ण शिक्षा भी वहीं से प्राप्त की. वर्ष 2003 में मिडलैंड आर्ट कांउसिल ने इनकी इंगलिश कविता रिफ्यूजी को रिफ्यूजी चेतना सप्ताह के लिए चुना और शिक्षा पर आलेख को औक्सफौम संस्था ने अपनी विज्ञापन पट्टिका पर। इन्होंने अपनी पहली कविता आठ वर्ष की उम्र में लिखी थी और पहली कहानी 11 वर्ष की उम्र में। दोनों ही तत्कालीन आज अखबार में प्रकाशित भी हुई थीं.
वर्तमान में वे यू.के में रहकर हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में निरंतर लिख रही हैं.इनके हिन्दी और अंग्रेजी के विभिन्न संकलन व पत्रिकाओं में कई लेख, कहानी,निबंध, कविता आदि व राष्ट्रीय और अंतर्ऱाष्ट्रीय मंचों से शोधपत्र और काव्यपाठ प्रकाशित हो चुके हैं और कुछ दूरभाष पर भी। कुछ कहानियों की मराठी और नेपाली में अनुवाद भी। प्रकाशित पुस्तकों में समिधा -कविता-संग्रह,ध्रुवतारा कहानी संग्रह,लंदन-पाती-निबंध संग्रह हैं और कविता संग्रह नेतिनेति व उपन्यास शेष-अशेष प्रकाशाधीन हैं.


वे 2002-2005 तक अभिव्यक्ति एवं अनुभूति नामक ई.पत्रिका में लंदन पाती नाम से समसामयिकी विषयों पर बेहद लोकप्रिय व विचारोत्तेजक मासिक स्तंभ लेखन भी करती रही हैं । शैल जी ने मार्च 2007 से ‘लेखनी’ नामक द्विभाषीय ई. पत्रिका का संपादन भी किया है.

इन्हें वर्ष 2006 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम का संयुक्त अलंकरणः काव्य पुष्तक समिधा के लिए लक्ष्मीमल सिंघवी सम्मान (देहली), वर्ष 2007 में उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान :उत्कृष्ट साहित्य -सृजन व हिन्दी प्रचार-प्रसार सम्मान (विदेश ) (लखनऊ ),व वर्ष 2010 -यू.के.हिन्दी समिति :हिन्दी सेवा सम्मान (लंदन ) की ओर से सम्मानित भी किया गया है.



लेखिका शैल अग्रवाल

क्या आज के आपाधापी के युग में माँ की छवि बदली है?

- हाँ भी और नहीं भी। आज महानगरों में प्रायः मां गृहिणी और धनोपार्जन की दोहरी जिम्मेदारी निभा रही है। ऐसी मां के लिए बच्चों के लिए वक्त दे पाना उतना आसान नहीं रह जाता । हालांकि मां की अंतर्संरचना , बच्चे के प्रति प्यार आदि तो वही है और रहेगा, हाँ काम के बहुल्य की वजह से स्वभाव में चिड़चिड़ापन और धैर्य की कमी भी नजर आती है। जो एक दो पीढ़ी पहले की मांओं में प्रचुर मात्रा में पाया जाता था। आज की कई मां अपनी बाह्य छवि पर भी बहुत ध्यान देती हैं जबकि पहले की मां के लिए बच्चा ही सबकुछ था। आज कई माएं ऐसी भी मिल जाएगीं। जो कि अमृत-पेय होने पर भी बच्चे को स्तन पान नहीं कराएंगी कि कहीं उनका फिगर न खराब हो जाए या बाहर रोते बच्चे को गोदी नहीं लेंगी कि कपड़ों की क्रीज न खराब हो जाए।
२ क्या आप अपने बच्चों को पूरा समय दे पाती हैं ?.

- हाँ , मेरे बच्चों का मेरे वक्त पर सबसे पहला हक था और आज भी है। यह बात दूसरी है कि आज वे खुद जिम्मेदार नागरिक और मां-बाप हैं।
३. अगर आप हाउस वाइफ हैं तो बच्चों के पालन पोषण में आपका कितना योगदान है ?

पूरा। विदेश में रहते हुए तीनों बच्चों के भरण-पोषण, शिक्षा और सर्वांगणीय चारित्रिक व मानसिक विकास की जिम्मेदारी का बड़ा हिस्सा मेरे ऊपर ही था। व्यस्त सर्जन पति के पास वीक एन्ड के अलावा मुश्किल से कभी वक्त रहता था बच्चों के लिए । /या यदि आप नोकरी पेशा हैं तो आपकी बच्चों के लालन पोषण में क्या भूमिका है?. क्या बच्चे अपने मन की बात आपसे शेयर करते हैं?

जी हाँ, सभी कुछ। बचपन से ही हम चारो अच्छे मित्र भी हैं।
५ क्या आपको लगता है कि बदलते परिवेश में टी. वी,फिल्में और फेस बुक आपके बच्चों पर ज्यादा हावी हैं?

हावी हैं। पर इतनी नहीं कि जिन्दगी अपने मायने खो दे। आज तीनों खुद जिम्मेदार शल्य चिकित्सक ही नहीं , अच्छे मां-बाप और हमारे लिए अच्छी संतान हैं।
६ क्या आप अपने बच्चों के साथ ह़ी रात का खाना खाती हैं?

हाँ । जो भी घर पर हैं तो, अवश्य। नौकरियों ने यह छोटे सुख थोड़े बदल दिए हैं। और भरपूर आपसी प्यार होने पर भी हमेशा यह संभव नहीं कि उस वक्त सभी घर पर हों।
७.*सबसे महत्व पूर्ण प्रश्न :तुलनात्मक रूप से देखें तो क्या आप अपने माँ से बेहतर माँ हैं ?

हाँ ।

या आपको लगता है आपकी माँ आप से बेहतर माँ थीं ?*

८. आप अपने माँ को अपने से बेहतर मानती हैं तो अपनी माँ की ३ महत्व पूर्ण बाते बताये जो आपमें नहीं हैं या कम हैं ! और अपने को बेहतर मानती हैं तो भी तीन विशेष बातें बताएं जो आपमें हैं... माँ में नहीं थीं या कमी थीं!

प्यार में शायद कभी मां की बराबरी न कर पाऊं। बेहद प्यार करती थीं मां। इकलौती संतान थी, वह भी शादी के 16 साल बाद आई संतान। परन्तु इन तीन चीजों की कमी (1. समय 2. शिक्षा का अभाव, और कलात्मक रुचि।) मां की मजबूरी थी, जो पिता जी ने सबकुछ भूलकर पूरी की। बेहद प्यार करने वाली मां होने के बावजूद भी , एक संयुक्त परिवार में रहने के कारण मां के पास इतना वक्त नहीं रहता था कि वह शिक्षा और खेल आदि में साथ दे सकें , ना ही उन्हें इन चीजों का वक्तानुसार ज्ञान ही था। मैंने हाथ का काम रोककर बच्चों का साथ दिया। पढ़ाई के साथ-साथ, नृत्य, संगीत, चित्रकला आदि में भी पूरा प्रशिक्षण मिला था जिसे मैं आराम से बच्चों को सिखा सकी, जिससे उनमें गुणों के साथ-साथ रुचि और आत्मविश्वास दोनों बहुत बढ़े । मेरा लक्ष्य, ध्येय और सुख तीनों 25 वर्ष तक मुख्यतः बच्चे ही रहे। सारा वक्त और रुचि वही थे।

क्या युग परिवर्तन ने माँ के रूप को बदला है ? स्पष्ट करें !

हाँ। कई अर्थों में आज की मां अधिक जागरूक और सुव्यवस्थित है। परन्तु आज संपन्न परिवारों में पैसा फेंकना ही ममता का पर्याय होता जा रहा है इससे भी नहीं नकारा जा सकता। सबसे दुर्लभ वस्तु आज वक्त है जो किसी भी रिश्ते के सही रूप से फलने-फूलने की पहली शर्त है।

१० क्या आपके पति आपको एक अच्छी माँ मानते हैं ?

हाँ। अच्छी शिक्षा, संस्कार और परिवेश तीनों मुझे अपने अभिभावकों से मिले। इसलिए मेरे लिए आसान था यह सब उन्हें दे पाना। धैर्य बहुत था जो शायद ममता का ही पर्याय है। उनके चरित्र और शिक्षा का सारा श्रेय पति मुझे देते हैं, जबकि मैं उन्हें। यदि वे एक स्थाई और सुव्यवस्थित आर्थिक सुरक्षा न दे पाते, तो कभी इतनी शांति और योग्यता से अपनी जिम्मेदारी न निभा पाती।

११ क्या आप सचमुच अच्छी माँ हैं....क्या आपके बच्चे आपकी हर बात मानते हैं ?

अधिकांशतः मानते हैं।

कहाँ कहाँ वो आपसे सहमत नहीं होते? और क्यूँ ?

मेरा भावुक और ज्यादा सरल होना उन्हें पसंद नहीं। वह सोचते हैं ऐसे लोगों को दुनिया अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करती है, बेवकूफ बनाती है।

नई पीढ़ी हमेशा पहली से ज्यादा होशियार और व्यवहारिक होती है और सफल भी।

!२ अपनी एक फोटो ,कार्य स्थान और संक्षिप्त परिचय भी दें, संभव हो तो अपने बच्चों के साथ भी एक चित्र प्रस्तुत करें !

स्वतंत्र लेखन व संपादिकाः ई. पत्रिका लेखनी।



आपकी

डॉ सरस्वती माथुर / अंशु हर्ष ( संपादक : सिम्पली जयपुर )



परिचय ---शशि पाधा





जम्मू में जन्मी शशि पाधा का बचपन साहित्य एवं संगीत के मिले जुले वातावरण में व्यतीत हुआ | उनका घर माँ के भक्ति गीतों, पिता के संस्कृत श्लोक तथा भाई के लोक गीतों के पावन एवं मधुर सुरों से सदैव गुंजित रहता | पढ़ने के लिए हिंदी के प्रसिद्द साहित्यकारों की पुस्तकें तथा पत्र- पत्रिकाएँ सहज उपलब्ध थीं | शायद यही कारण था कि शशि जी बाल्यकाल से ही बालगीत/ लघुकथाएँ रचने लगीं |

इन्होंने जम्मू - कश्मीर विश्वविद्यालय से एम.ए हिन्दी ,एम.ए संस्कॄत तथा

बी . एड की शिक्षा ग्रहण की । वर्ष १९६७ में यह सितार वादन प्रतियोगिता में राज्य के प्रथम पुरुस्कार से सम्मानित हुईं । वर्ष १९६८ में इन्हें जम्मू विश्वविद्यालय से "ऑल राउंड बेस्ट वीमेन ग्रेजुयेट " के पुरुस्कार से सम्मनित किया गया ।



इन्होंने आकाश्वाणी जम्मू के नाटक, परिचर्चा, वाद विवाद , काव्य पाठ आदि

विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लिया तथा लगभग १६ वर्ष तक भारत में हिन्दी

तथा संस्कृत भाषा का अध्यापन कार्य किया । सैनिक की पत्नी होने के नाते

इन्होंने सैनिकों के शौर्य एवं बलिदान से अभिभूत हो अनेक रचनाएं लिखीं ।



इनके लेख, कहानियां एवं काव्य रचनायें " पंजाब केसरी " दैनिक जागरण एवं देश विदेश की विभिन्न पत्र -पत्रिकायों में छ्पती रहीं। इनके गीतों को अनूप जलोटा, शाम साजन , प्रकाश शर्मा तथा अन्य गायकों ने स्वर बद्ध करके गाया ।



वर्ष २००२ में यह यू.एस आईं । यहां नार्थ केरोलिना के चैपल हिल विश्व्वविद्यालय में हिन्दी भाषा का अध्यापन कार्य किया । शशि जी की रचनाएं विभिन्न पत्रिकायों में प्रकाशित हुई हैं जिनमें से प्रमुख हैं हिंदी चेतना, हिंदी जगत अनुभूति अभिव्यक्ति , साहित्यकुंज , गर्भनाल , साहित्यशिल्पी, सृजनगाथा ,कविताकोश, आखरकलश तथा पाखी |

शशि जी के तीन कविता संग्रह पहली किरण मानस मंथन तथा अनंत की ओर प्राकाशित हो चुके हैं | कविता के साथ साथ वे आलेख , संस्मरण तथा लघुकथाएं भी लिखतीं हैं |



संप्रति वे अपने परिवार के साथ अमेरिका के मेरीलैंड राज्य में रहतीं हुईं साहित्य सेवा में संलग्न हैं |







क्या मातृत्व का स्वरूप बदल रहा है --- एक परिचर्चा






शशि पाधा


ममता,दया, करुणा,वात्सल्य, धैर्य, शक्ति ,संबल आदि-आदि अनगिन ऐसे कोमल शब्द हैं जिनको पढते अथवा उच्चारण करते जो मूर्त आँखों के सामने आती है वह है माँ |

वास्तव में यह सारे शब्द शायद माँ के ही पर्यायवाची हैं | जीवन की कोई ऐसी घड़ी नहीं जब संतान कभी किसी कठिन परिस्थिति का सामना करते हुए यह नहीं कहती कि , ऐसी परिस्थिति में मेरी माँ ऐसे कहती थी या ऐसे करती थी | अत: जीवन के हर मोड़ पर प्राणी माँ का सहारा ढूँढता है | वास्तव में हर घर की केंद्र बिन्दु माँ ही होती है जो अपने बच्चों का लालन पालन निस्वार्थ भाव से करती है | किन्तु आज के बदलते परिवेश में माँ केवल घर में रहने वाली माँ ही नहीं बल्कि घर गृहस्थी को चलाने में पूरा योगदान देने वाली एक कर्मठ स्त्री भी है | जैसे ही परिवार की आवश्यकताएं बढ़ रही हैं , आज की शिक्षित नारी घर से बाहर काम काज करके अपने बच्चों को पूर्ण सुख सुविधा , अच्छी शिक्षा, आदि के बारे में भी सोचने लगी है | ऐसे में हर माँ का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया है | घर की देखभाल के साथ- साथ अपने कार्य क्षेत्र में भी निपुणता और कुशलता से काम करने का दायित्व भी उन पर आ जाता है | ऐसी परिस्थति में कोई तो ऐसा क्षेत्र होगा जो स्त्री की अति व्यस्तता के कारण प्रभावित होता होगा | मेरे विचार से वह क्षेत्र है बच्चों के लालन पालन का | एक काम काजी महिला अपने काम के बाद के समय को बांटते हुए यह प्रयत्न तो अवश्य करेगी कि वह अपने बच्चों के साथ अधिक से साथ समय बिताए किन्तु उसके पास समय की कमी तो सदा रहेगी ही|

फिर आज एकल परिवारों के चलन से एक बात सामने आई है कि बच्चे जब सूने घर में लौट के आते हैं तो अपने मनोरंजन के लिए टी.वी का सहारा लेते हैं | और टी.वी पर दिखाई देने वाले बहुत से कार्यक्रम उन के मानसिक विकास पर कुप्रभाव डालते हैं | ऐसी परिस्थिति में माँ बाप दोनों पर ही यह दायित्व आ जाता है कि घर में ऐसा वातावरण बनाया जाये कि बच्चे सदैव किसी न किसी की निगरानी में पलें ताकि उनका बहुमुखी विकास हो सके |

हर बेटी अपनी माँ जैसी होना चाहती है किन्तु युगों युगों से यह देखने में आया है कि बदलते समय के साथ- साथ महिला के काम काज के तरीकों में भी बदलाव आया है | आधुनिक युग में महिलायों ने यह सिद्ध कर दिया है कि वो गृहस्थी और बाहर का कार्यभार पूरी कुशलता से निभाने की क्षमता रखती हैं | यह सार्वभौमिक सत्य है कि हर युग में, हर स्थिति में माँ तो माँ ही रहेगी चाहे वो किसी देश की राष्ट्रपति हो, सेना अधिकारी हो , न्यायमूर्ति हो , अध्यापिका हो , अपनी संतान की देखभाल ही उसका सर्वोपरि उद्देश्य होगा | माँ का स्थान और कोई नहीं ले सकता और माँ की गोदी के सुख से बढ़कर और कोई सुख नहीं हो सकता |



शशि पाधा



ज्योत्सना शर्मा :

मातृत्व की अवधारणा न बदली थी और न बदलेगी ...हाँ ...उनके बाह्य आचार- विचार और व्यवहार में परिवर्तन परिलक्षित होते हैं ।आज के समय में माँ बच्चों की शिक्षा के प्रति समान रूप से सोचती है ।वह उन्हें समय के अनुरूप फोन रखने की अनुमति देती है ,सह अध्ययन ,मित्रों के साथ बाहर जाना , एक हद तक वस्त्रों के चुनाव में आज की माँ उदार है ......परन्तु फिर भी बेटा हो या बेटी दोनों के ही वापस घर आने तक वैसे ही चिन्ता करती है ...जैसे पहले करती थी ।कम से कम मेरे साथ ऐसा ही है ...।


house wife हूँ...तो परिवार को यथोचित समय दे पाती हूँ ।एक बेटी और एक बेटे की माँ हूँ ...जो क्रमशः 9वीं और 8वीं कक्षा में पढ़ते हैं ....दोनों ही मुझसे अपनी हर बात अलग अलग शेयर करते हैं ...मैं संवाद बनाये रखती हूँ। टी वी पर हम सभी एक दूसरे की पसंद के प्रोग्राम देखते हैं ....और कभी कभी झगडा़ भी होता है । जो भी नया है ...उन सभी मुद्दों पर हम चर्चा करते हैं सभी पर पूर्ण सहमति नही होती परन्तु अभी तक मेरी बात मानी जाती है ।बेटे को खेलने का समय हमेशा कम लगता है और दोनों को ही पिकनिक आदि पर न भेजने की शिकायत रहती है ...पर मानते तो हैं ।

कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि ....इतने समय के अन्तराल के बाद भी मैं अपनी माँ से आगे न निकल पाई ....उस समय में मुझे जितनी स्वतन्त्रता मुझे मिली ..जैसे अवसर मुझे दिये गये ...अपने बच्चों के लिये मैं उससे ज़रा भी आगे नहीं हूँ ...आज इस अवसर पर .....आपके माध्यम से मैं प्रणाम करती हूँ...अपनी माँ को .....नमन वन्दन ...माँ...





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