सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

पाण्डुलिपि :हाइकु

"दुआ के फूल !"
1
दुआ के फूल
रूह चिड़िया को भी
हैं लौटा लाते l
2
मन है बांटें
भावों   के गुलदस्ते
 हवा महकें l
3
मेरा ये मन
तुम्हारी दुआओं की
चाह  में बीता  l
4
खोल के देखो
 दुआ के दरवाजे
चैन मिलेगा l
5
विश्वास बुनो 
 दुआओं का सूरज
   उदित करोl
6
तेज भँवर
 किनारा पा लिया तो
दुआ जिंदगी  l
7
खामोश दुआ
मीलों तक का रास्ता
कंटकविहीन l
8
जाल फैंकता
स्वार्थ का बहेलिया
आओ छुड़ाएँ l
9
लगे अगर
 जमीर पर चोट
 सज़ा ज़िंदगी l
10
यादें
1
विकल प्राण
 यादों की आहट है
 उल्कापात सी
2
भीगी यादें हैं
 मधुर क्ष ण बीते
 मन हैं रीते
3
  यादें रेशमी
 नीर बहते हुए
 जल बिन्दु से
4
 यादों की डोरी
 बिस्तरबंद मन
 बंधा ही रहा
5
 यादों के पथ
 मन की  पगडण्डी
 भटके हम
6
यादों भरे हैं
 मधुकुम्भ मन  के
 फिर भी प्यासा
7
 तारों भरी है
 यादों की रजनी भी
 मन भी दिप्त
8
 गरजती सी
 यादों भरी है आंधी
  उड़ा मन भी

9
  .धूप सी यादें
  सूरज से उतरी
   मन धरा पे
      12
   मन तितली
   यादों के फूलों पर
   मंडराती सी
        13
     मन लहरें
     दरिया के पानी सी
     बहती यादें
           14
     यादें बहकी
     छलकते जाम सी
      मन छलका
            15
     मन आकाश
     चमकती हैं  यादें
      चाँद तारों सी
              16
     यादें अंकित
     मन कैनवास पे
     तस्वीरों जैसी
            17
    खामोश यादें
    आँखों में आंसू बन
     शाम -बरसीं
             18
     .यादों के लम्हे
      साथ साथ चलते
       दोस्त हो गए
            19
     .स्वेटर बुना
      यादों भरी ऊन से
      मन सलाई
          20
       शहनाई सी
     मन  की दुनिया में
        गूंजती यादें
          21
      यादें गरजें
     सावन की घटा सी
      मन- बरसे
          22
    .भटकी यादें
    आवारा बादल सी
     बिन बरसे
         23
   यादों का चाँद
    खोये खोये मन सा
    गगन चढ़ा
         25

      आंसू  के  जैसी
      यादें -पलकों सजी
        ठहरी रहीं
            26
         हौले से आयीं
         पतझड़ सी यादें
           मन उदास
              27 
        मन पाखी सा
        यादों के पिंजरे में
           छटपटाता
               28
          मन डोर पे
         पतंग सी यादें
           गगन उड़ीं
               29
            भीगा मौसम
            यादें अंकुरित हो
             उगती गयीं 

             30
     घटा के पंछी!
    1
   घटा के पंछी
  नभ में उड़ते हैं
   फैला के पंख
   २
जल लहरें
मिट्टी के घरोंदों को
बहा ले गयी 
3

मेघ भरें हैं
नभ के दालानों में
धूप छांह से l
बारिश आई
जंगली गुलाब सी
खुशबू छाई l
छाई घटा तो
मोर बांध घुंघरू
बागों में आया
मन विभोर
मोरनी संग झूमा
बावरा मोर
आई वर्षा
बूंदे बन्दनवार
छटा अनूठी l
वर्षा ऋतु में
पुरवाई सी बही
मन में यादें l
मेघ पहन
बिज़ली की पायल
नाचे नभ में
१०
पहली घटा
सावन की आई तो
मन भीगा l
११
चह्चहाती
सावन की चिड़िया
तरु पे डोली l
१२
मैं सावन की
घटा बन पहुंची
बाबुल के चौरे l
अकेलापन 
1
अकेला पाखी
तरु को छोड़ कर
प्रवासी  हुआ l
2
 दीप अकेला
अंधकार बुहार
जलता रहा
3
उम्र की संध्या  
सूरज की तरह
डूबती गयी l
4
गिरते पत्ते
हवा संग घूमते
तरु अकेला l
5
रुक के देखे
अकेला सा बुजुर्ग
डूबता सूर्य l
5
उदास मन
 अकेलापन ओढ़े
डूबता गया l
6
बिछडे पात
तरु अकेला झेले
 यह आघात l
7
जीवन साँझ
हिरणी सी दौड़ती
सूरज पीतीl
8
 सूने दालान
घेरता अकेलापन
डूबता मन l 
9
 साथी ढूँढता
जीवन सफर में
अकेला मन l 
10
शाम का तारा
अकेलापन हमें
लगता प्यारा l
11
दूर तलक
हाथ थाम साथिया
अकेला मन l 
12
आज का दौर
मेरा अकेलापन

मिट्टी सा मन l

"प्रेम!"
1
ऋतु प्रेम की
बसंती हवाओं में
बिखरे रंग
2
प्रेम दीपक
जला जब मन में
खिला यौवन l
3
प्रेम जुगनू
भावों की बाती जल़ा
रौशन हुआ l
4
प्रेम गुलाब
मन को महकाए
नींद उडाये l
5
प्रेम पराग
मौसम पे बरसा
तितली मन l
6
प्रेम से भरी
भूली बिसरी यादें
महका मन l
7
प्रेम पावन
कलकल नदी सा
बहता जाये
8
प्रेम का रंग
दहके पलाश सा
मन रंगता
9
प्रेम पलाश
फागुन हुआ मन
बसंत संग
10
भीगा ये मन
मौसम ने बजाई
प्रेम मृदंग l...
."चिड़िया मन !"
 
पेड़ों के साये
लरजती धूप में
तपतपाये l
2
मन आकाश
पतंग सी लुटती
नींद हमारी l
3
यादें रोक लें
मन में चलो अब
लगाएं कर्फ्यू l
4
सजी संवरी
चांदनी को देख के
चाँद बिखरा l
5
नींद नभ में
ख्वाब पलकों पर
चिड़िया मन l
6
भीगे मौसम
मन की डायरी पे
स्याही फैलाए l

बिछड़े पात
तरु अकेला झेले
यह आघात
8
संध्या की चुन्नी
रंगरेज सा रँगें
डूबता सूर्य l
9
चाँद तारों की
चौपाल बैठी साथ
हुई जो रात l
10
रूह अकेली
शरीर घर छोड़
यात्रा को गयी l
चाँदनी बुनकर
1
एक पीपल
मन खण्डहर में
याद का उगाl
2
सर्द  हवाएँ
शाम की पुरवाई  में  
थिर हो जमी l 
3
चुप्पी तोड़ते  
खंडहर हवेली में
चूहों के बिल l
4
मौन तोड़ती 
अंधेरे में चिड़ियाँ
देख शिकारी l
5
हवा सा मन
आकाश नाप कर
ख्वाब बुनता l
6
 नि:शब्द नैन
मन की पीड़ा बुन 
नींद  चुराते
7
कौन आयेगा
ख्वाबों में बस कर
नीड बनाने ?
8
नभ से  भागी
चाँद संग चाँदनी 
हुई प्रवासी l   
9
 चाँद जुलाहा
 चाँदनी बुन कर
 प्रेम पिरोता l
10
यौवन आया
निंदियारी अँखियाँ
 घिरी स्वप्न सेl
"धरा पे जन्नत !"
1
पातों पे लगे
शबनमी बिस्तर
धरा जन्नत !
2
नदिया देती
सागर को अस्तित्व
खुद खो जाती !
3
आयु की बही
समय महाजन
लिख रहा है l
4
 टूटा घरोंदा
हवा कश्तियों पर
लहरें चढ़ी l
5
दोपहरी की
पकड़ के सीढियां
सूरज चढाl
6
नदिया देती
  सागर को अस्तित्व
खुद खो जातीl
7

ललाती साँझ
नभ की पाग पर
कलगी लगे
8
सागर रेत
प्रेयसी सी तट पे
बिन जल सूखी
 9
पूनम चाँद
कृष्ण पक्ष आते ही
पिघल गया
10
सूर्य निकला
स्वर्णिम रथ पर
सागर पारl
" नींद की परी "
1
सपना गिरा
उड़न तश्तरी सा
जाने कहाँ पे ?
2
.रवि रथ ले
भोर आई तो, पाखी
चह्चहांये l
2.
खाली पन्नो सी
 जिन्दगी की किताब
स्याही से स्वप्न
3.
फूल खिलो भी
तितली ने तुम  पे
रंग बिखेरे  l
4.
मधुर गीत
चिड़ियाँ ने गा कर
धरा गुंजाई l
5.
रात- जुगनू
दिन के उजास में
कहाँ पे छिपा ?
6
नींद की परी
सपनो से  खेलती
आँख मिचौनी l
7
सोया सा गाँव
मुर्गा जब बोला तो
शहर हुआ l
8
चाँद की रोटी
रात थाली में रख
नभ ने खाई l
9
हम हो जाओ
अहम् का" अ" हटा
साथ निभाओ l
10
रास्ता है मुडा
दो पल जो जुडा था
फासले बढे l


उनींदी आँखें

आँख की नमी
एक उच्छ्वास में
मोती सी बनी
खाली आँखों से
देख रही बूढी माँ
बेटे की राह
उनींदी आँखें
सपनो के नभ में
झुला झुलाये
धुंधली आँखें
उम्र की चौखट पे
खड़ा बुजुर्ग
पूजो चरण
आँखों में सपने ले
खाद बुजर्ग
उनींदे नैन
बुन रहे सपने
भरे वितान
मोम सी बूँद
धरा आँख से गिरी
ओस नाम है
आँख मिचौनी
खेलती धूप छांह
बदल संग
नींद की पारी
सपनो में खेलती
आँख मिचौनी
१०
मीठी सी नींद
जागे से सपने ले
आँखों में तैरी
११
ख्वाबों के दीये
आँखों में जलते से
नींद की बाती
१२
चाँद बदल
खेलें आँख मिचौनी
छिपे तारे भी
१३
आँखों की क्यारी
बो दी है नींद भर
सपने उगे
१४
यादें भरी हैं
आँखों में लबालब
छलके आंसूं
१५
ख्वाबों के पाखी
आँखों में उतरे हैं
नींद नभ में
१६
बहिन उर
भाई का प्यार छिपा
लोचन गीले
१७
परदेस में
भीगी भाई की आँखें
रक्षा पर्व पे
१८
मुखड़ा भोला
नैनो से है रिझाए
मुरली वाला
१९
चल नैन
माखन चोर लल्ला
तोड़े मटकी
२०
यादों के तारे
आँखों के नभ पर
हैं चमकते
२१
नीले सपने
मन आँखों में
नारी है देखे
२२
कैद करा है
चाँद की चांदनी का
आँखों में अक्स l
"मन के शब्द !"
1
प्रेम का सिक्का
 घर पर खो गया
 बुजुर्ग ढूंढे
 2
 गिरते पत्ते
 हवा संग घूमते
तरु अकेला
 3
 धरा के पास
आई पाहुन बनकर
 बूँद ओस की
 4
मन होता है
 एक खुली किताब
 पढ़ते जाओ
5
उड़ती फिरे
सुबह  की चिड़िया
पंख पसारेl
6
मन के शब्द
जीवन कागज पे
 लिखे मिटाए l
7
पुराने घर
 झर झर गिरते
 रूहें हैं रोती
8
 भोर के रंग
 किरणों की चिड़ियाँ
 धरा पे लायी
 9
दिल झरोखा
यादें आई -बैठीं तो
 महका मन
 10
मन फूलों पे
 खुशबू सी चिट्ठियाँ
 महकी सांसेंl

"पाहुन मन !
रोली चन्दन
कभी मन लगता
  ज्यों वृन्दावन l
2.
चाँद बौराये
 चाँदनी देख के
 वो  ठंडा हो जाए l
3॰
 पाहुन मन
पहुंचा तुम तक
 करो स्वागत l
4
नभ अकेला
चहचहाये पाखी
तो सज़ा मेला l
5
 मन बुहार
 यादों की हवाएँ भी
 शांत हो गयीl

 1.
निर्मोही मेघ
बिन बरसे गया
धरा अवाक  l

यादें  टेरती
सावनी बदरिया
जब घेरती l

मन की धरा
झरना बन जाती
 हिलोरें खाती l

चलो रे मन
चंचल हवाओं से
गति ले आयें l

शोर उड़ाती
यादों की गौरैया तो
मन उडता l

धूप  का रथ
तप्त धरती पर
दौड़ लगाये l

 रात थी सोयी
भोर की कोयल ने
उसे उठाया l

चंचल मन
हवाओं के संग
रास्ता ही भूला l

इचक दाना
हवाएँ हैं गातीं
किसे बुलातीं l
१०
है ता ता थैया
करती नदिया
सागर देख l
............................
.
डॉ सरस्वती माथुर
  1
धूम धाम से
 चढ़ता है सूरज
 धूप की घोड़ी l
2।



 

हाइकु धूप के फूल ----26.10.15

हाइकु ...
1.
धार सी काटे
बर्फीली हवाएँ तो
मन ठिठुरे l
2
 सूरज आया
कोहरे ने कंबल
तब हटाया l
3
मौन हवाएँ
ठिठुरे मौसम में
नींद उड़ाएँ l
4
धूप की डोर
सूरज पतंग से
टूटी तो छूटी l
5.
ऋतु सर्दी की
हिम पर्वत पर
हवा जलाए l
6
ऋतु सर्दी की
हिम पर्वत पर
धूप धुएँ सी l
7.
सूर्य अलाव
हिम पर्वत पर
धूप धुएँ सी l
8
सर्द हवाएँ
ज्वाला सी दहकी तो
नींद ना आयी l
9
जाड़े की भोर
फूलों पर अटकी
धूप की डोर l
10
सर्द सुबह
धूप के फूलों पर  
तितली सी उडी
डॉ सरस्वती माथुर

 

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

नयी कवितायें ! 24.10.15

....................................
वह सच था
मेरे भ्रम के बीच
हवा सा बहता हुआ
बीज़ सा उगता हुआ
अपनी मन जमीन पर
उसे अंखुआने का
एक  तरु बनाने को
मैं उसके आसपास
ताप से जलती रही
ख्वाबों के पंखों पर
उड़ती रही देर तक
पर ना आसमान मिला
और ना ही उतरने को
जमीन ढूंढ पाई
और अब तो
कौन जाने कब तक
उड़ते ही रहना होगा l
डॉ सरस्वती माथुर
...........................
वह शांत था
बावड़ी के जल सा
कभी कभी मैं
सपनों की बाल्टी
जब वहाँ भरने जाती थी
तब उसका जीवन
हुक्के की तरह
गड़गुडाता था
 फिर निस्पंद
 पड़ा रहता
उसकी शांति
मुझे चुभने लगी तो
मैंने सेंकड़ों सूरज से
अपने गुस्से के
कंकड़ उसमें
पटक दिये
और फिर एक
भँवर सा बस
 एक वृताकार घेरे में
वह काँपता रहा
अब मैं शांत थी l
............................
तुम फेंकते रहो
भेदभाव का कचरा
मैं उठाती जाऊँगी
होंगे  तुम
 महलों के शहतीर
 मैं झौंपड़ी का बांस ही सही
तुम छंवाते जाओ
मुझे मान कर
एक महिला जाति
इंसान बन कर
गहराती जाऊँगी
पर इतना तो बताओ
तुम कौनसे ईश्वर हो
जो तय करो मेरा रास्ता
कोई भी हो तुम
तुम्हें पीछे छोड़ कर
मैं खुद अपना रास्ता
बनाती जाऊँगी
कर्मवीर सी देखना
पूरे विश्व  में
 अस्तित्व का
एक तिरंगा
फैलाती  जाऊँगी
तुम कहते रहो
कुछ भी
मैं सुन कर भी
 नहीं सुनूंगी
 बस अंधेरी राह में
स्नेह प्रेम का
 दीप जलाती जाऊँगी l
............................
एक सूफी कविता ---
तुम सपने में थे
 मैं देर तक सोयी
तुम यादों में थे
मैं जाने क्यों रोई
बारिश तुमहार
शहर में हुई थी
मन मेरा क्यों भीगा
चलो छोड़ो यह बताओ
यादों की डायरी का
 जब सफा मैं
ने पलटा तो
चौंक के हर्फों के
 समुंदर से जो
बुलबुले  उठे वो
 आखिर कैसे हो गए मनके 
तुम्हारे नाम के
आखिर यह तिलस्म क्या है
भ्रम या हमारी तुम्हारी
 पाक मौहबत ?
डॉ सरस्वती माथुर
.........................
पिछली गर्मी में
आई थी गौरैया
घर में पेड़ पर
नीड़ बुननें तो
पूरा घर सुबह सुबह
उनके गीतों  के
सुरों से चहकने लगता था
लेकिन इस बार
 ना आलाप है ना राग
लेकिन इस बार
न आलाप  है ना राग
मुरझा गयी सब
बुझे हुक्के सी
शांत हैं मुरकियाँ
अब कब तक करें
इंतज़ार देखो न
पेड़ से अभी तक भी 
हटाया नहीं
 है मैंने उनका नीड़
 देखती हूँ हवाएँ भी
 कम चलती हैं
नीड़ के इर्द गिर्द
 उसे सुरक्षित रखने को
पतियाँ भी
कम भुकभुकाती हैं
 यह कहती सी कि
आ लौट आ रे गौरैया !
डॉ सरस्वती माथुर
............................
"यात्रा भी एक दरिया है !"
जीवित रखूंगी
मैं अपनी कविताएं
उम्मीद की
संजीवनी पिला रोज
अल्लसुबह जगाऊँगी
अपनी कविताएँ
अपनी कलम में
सतरंगा सूरज भर
गुदगुदाऊंगी
अपनी कविताओं को
धूप की हंसी से चमका
मन धरती में
तन्मयता से उगाऊंगी
 अपनी कविताएँ
पूरे भावों के साथ
शांत नदी की
 अनुभूति से नहलाऊँगी
अपनी कविताएं
बसंत के आगमन पर
धानी चुनरियाँ
ओढा कर सजाऊँगी
अपनी कविताएँ
फिर हाथ पकड़ कर उसका
किताबों की सपनीली
दुनिया में  घुमाऊँगी
अपनी कविताएँ फिर
अपने प्रियजनो को
अर्पित कर दूँगी और
कविताओं की नदी में
 केवट बन कर
दूर निकल जाऊँगी
जीवन की
कलकल नदी में
 नाव सी बहती हुई l
डॉ सरस्वती माथुर
...........................
"यात्रा भी एक दरिया है !"
मेरे भीतर की यात्राएं
कभी कभी बहुत ही
लंबी होती है
यात्राएं कभी
 एक दिशा में नहीं होती

हर दिशा का अपना
एक आँगन होता है
उस आँगन में कभी
शोर तो कभी
मौन रहता है

यात्रा भी एक
दरिया है
 जिसकी लहरें
कभी लहराती है
तो कभी थम जाती है
और उस यात्रा के
पैरहन को नजमों के
लफ्जों में अब
समेटना भी नहीं चाहती
क्योंकि मेरा  मन
 उस समय
यायावर सा होता है
तो मैं उसे
रोकना भी नहीं चाहती
यात्रा और यायावर के साथ
मैं बस
 सहेज रहती  हूँ
अपने को एक
नज़्म की तरह
 लिखती हूँ
यात्रा के विवरण को मैं
उलीच दे
ती हूँ
काई सा जमा
सुगबुगाता मौन और
 चलने देती हूँ
 क्रमवार यात्राएं
मन क पाँवों पर और
हिचकौले खाते हुए
उड़ती रहती हूँ 
अपने ही भीतर के
अरण्य  में
सपनों के परों पर
यात्रांत तक l
डॉ सरस्वती माथुर
 ..................
"बदलाव !"
मन हिरण
चंचल हो भागा
टूट गया कब
स्नेह का धागा
अजनबी  बन
जाने पहचाने बदले
 पास्ता में अनाज के
 दाने बदले

झूँठ सच के सरोकारों में
सच मानो तो
नापने के
पैमाने बदले
जम  गए हैं बर्फ से
मन के संबंध
 लगा लिए हमने
दिखावे के पेबंद
प्रेम प्रीत के भी
दीवाने बदले

छोटे छोटे झगड़े थे
उलझ गए तो
कशमश के
अफसाने बदले
संवाद भी मौन हुए
 अपने अब गौण हुए
 माल- जब  बिग बाज़ार
 बन गए तो
करीने की दुकानों के
ठिकाने बदले l
डॉ सरस्वती माथुर
...............................
 

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

दिवाली की रचनाएँ

"बाती तुम जलती हो !"
तिमिर मिटा  कर
 घर आँगन में
सूरज सी तुम 
स्नेहसिक्त नेह दीप में भर् 
बाती तुम जलती हो

पर्व ज्योतिर्मय
 राग द्वेष हटा 
प्रेम प्रीत सिखाता है
राग द्वेष हटा 
अन्तर्मन आलोकित कर
बाती तुम जलती हो

मावस की शाम को
आस्था की चौखट पर
मन के अँधियारों में भी
विश्वास का नव उजियार भर
बाती तुम जलती हो l
डॉ सरस्वती माथुर
2
प्रेम का दिया 
मन की देहरी पर रख
रंगोली  के रंगों से
 घर आँगन सजाया
दीप मन का जलाया

झिलमिल ज्योति से
अनगिन प्रदीपों ने
अपरिमित दीपों से
बंदनवार लगाया
दीप मन का जलाया

भक्ति -शक्ति से
तम छाँट कर जन ने
लक्ष्मी का आवाहन कर
हिलमिल कर पर्व मनाया
दीप मन का जलाया l
डॉ सरस्वती माथुर
"लक्ष्मी का आवाहन !"
घर  पावन मन भी पावन
दीप ज्योति लगती मनभावन

रोशनी की नदी
चहुं ओर बह  रही
मन मंदिर बन गया
जन जन से कह रही

 लक्ष्मी माँ का आवाहन
दीप ज्योति लगती मनभावन

पूजा थाल में
मेवे संग मिठाई है
अनार पटाखों की गूंज
चहुं ओर छाई है

 द्वार पर बंदनवार सुहावन
दीप ज्योति लगती मनभावन
डॉ सरस्वती माथुर
 

सेदोका
दीपक जले
मन हुआ रोशन
टँगी बंदनवार 
देहरी पर
 खुशनुमा नज़ारा
दीपावली त्योहार l
2
अँधेरी रात
झिलमिल करती
दीपों की फुलकारी
रंग बिरंगी
बुनकर के ज्योति
छाई छटा निराली l


   क्षणिका
"दीप संग बाती !"
लय संग स्वर
 दीप संग बाती
लक्ष्मी जी का
हाथी है साथी
ज्योति निर्झर
झिलमिल मन
रोशनी की नदियां
रंगोली के रंग
धरा से व्योम तक
उत्सव  वंदन
करता मन चन्दन
अन्तर्मन करता
मन चन्दन !
डॉ सरस्वती माथुर
2
झिलमिल दीप
झरती रोशनियाँ
लक्ष्मी आवाहन पर
 मंगलदीप जलाओ

मंगलकामनाओं से
 जन जन के मन में
पावन भावनाऑ का
नव विश्वास जगाओ

गरीब की रोटी न छीनो
बुजुर्गों का मान करो
बच्चों के जीवन  मैं
सदभाव के बीज लगाओ

बेटी को कोख में न मारो
प्रीत प्रेम से सींचो
बेटे बेटी के जीवन  में
कोई लकीर न खींचों
मानवी की  पहचान दिलाओ l
डॉ सरस्वती माथुर
3
" ज्योर्तिमय दीप !"
अभिनंदन है
दीप तुम्हारा
सर्वस्व समर्पित
तिमिर हटाते हो
अपनी ही प्रभा परिधि में
अँधियारा ले आते हो

ज्योर्तिमय है
अस्तित्व तुम्हारा
दीप्त तुम्हारी है मुस्कान
निरंतर जल कर
आंधियों में भी
मुखरित रह कर
संबल शक्ति भर जाते हो

वंदन तुमको
नयी चेतना से
 स्नेहसिक्त बाती बुनकर
जन जन के जीवन में
नवल सर्जना का
मंगलदीप जलाते हो  l
डॉ सरस्वती माथुर
मुक्तक
तमस हार गया
 प्रकाश पर्व आया
माँ की जयकार कर
घर-द्वार सजाया

घर आँगन दीप जला दूँ
मन का तमस मिटा दूँ 

इस दिवाली पर
पृष्ठ नया एक जोड़ूँ
बाती दीप के साथ
प्रीत के पटाखे फोड़ूँ

खुशियाँ चहुं ओर फैला दूँ
मन का तमस मिटा दूँ

खील , बताशे ,पकवान से
 पूजा की थाली  सज़ा दूँ
 अर्पित कर मन के सिक्के
  आस्था की रंगोली बना लूँ

 घृणा का दानव जला कर
 मन का तमस मिटा दूँ
डॉ सरस्वती माथु

"दीप जला कर !"
चौखट  पर जो
दीप धरा है
उसमें नेह का
उजियार भरा है

 दीप जला कर
तारो को जोड़ा है
अँधियारा तो
जीवन का रोड़ा है
बांध कर संबल
बाती में विश्वास भरा है

झर झर झरती है
ज्योति की लड़ियाँ
सूनी चौखट पर
 भावो की सुधिया
 तमस भी हमसे
 देखो- आज डरा  l
डॉ सरस्वती माथुर


 













बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

दोहे समीक्षा के लिये

1
मन आँगन में गूँजती ,कहीं ढ़ोल की थाप
धरती पर छाने लगा ,गरबा मधुरालाप l
2
गरबा खेले आंगना ,सजना  है अनमोल
रंग रंगीली सजनिया ,चंगसंग बाजे ढ़ोल l
3
गरबा गरबा मन हुआ ,प्रीत प्रेम के रंग
रसभीनी होने लगी ,मन में आस उमंग  l 
4
पर्व नवरात्र आ गया ,रंग हैं चहुं ओर
झूम झूम लहरा रहे,  ढ़ोल चंग  का शोर l
डॉ सरस्वती माथुर
 http://epaper.bhaskar.com/detail/?id=838312&boxid=101403442392&ch=0&map=map&currentTab=tabs-1&pagedate=10%2F14%2F2015&editioncode=34&pageno=2&view=image



 

"माँ चरणों में !".....डाँ सरस्वती माथुर

"माँ चरणों में !"
डाँ सरस्वती माथुर
१.
बौराई प्यास
माता के दर्शन की...
मन को आस।
२.
शुभाशीष दे
संतान सुख चाहे
जननी है माँ ।
३.
माँ चरणों में
चारों है तीर्थ धाम
वन्दनीय है।
४.
अपार प्रेम
माँ है बरसाती वो
परमहंस।
५.
कर्म भी माँ है
परमस्वरूप माँ
धर्म भी माँ है।

दीप प्रेम का
विश्वास के तट पे
माँ है जलाती।

माँ है सागर
भरती विश्वास की
मन गागर।
डाँ सरस्वती माथुर

13 October 15

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

कहानियाँ 1."नववर्ष का चाँद ,"2---"रावण दहन!" ---डॉ सरस्वती माथुर

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 डाँ सरस्वती माथुर 
                                                                             " नववर्ष   का चाँद "
                                                                                                 
                                                                                      डॉ सरस्वती माथुर
 
 कल से नया साल शुरू हो जायेगा । आज साल का आख़िरी दिन है अच्छा बीतना चाहिये सोच कर राधा देवी ने रोज की तरह अपना कंप्यूटर ऑन किया ,पासवर्ड देकर अपनी डायरी का पन्ना खोला लेकिन जाने क्यूँ उनका कुछ भी लिखने का मन नहीं हुआ  l उनकी बहू विभा कंप्यूटर इंजिनियर थी,उसने उनकी वेबसाइट बना दी थी और जब भी वह अमेरिका से आती थी, उन्हें  काफी कुछ सिखा जाती थीं l   कंप्यूटर विंडो पर "गूगल" की खिड़की खोल कर राधा देवी ने सरसरी निगाहें डाली ,देखा कोई भी ऑनलाइन नहीं है , न उनके बच्चे न पति l   वे उठीं और मेज़ पर बिखरे कागजों में कुछ ढूँढ़ने लगीं l  उनके जन्मदिन पर बच्चों का अमेरिका से ग्रीटिंग कार्ड आया था l   उन्होंने एक सरसरी निगाह उस कार्ड पर डाली- फिर "अमृतयान निकेतन काटेज "की अपनी बालकॉनी में कुर्सी पर बैठ कर वे वहां से दिख रही झील को देखने लगी  l
  अमृतयान निकेतन चारों तरफ से पेड़ों से घिरा था, यहाँ से हरी- हरी पहाड़ियाँ- गुनगुनी सी धूप में बिलकुल साफ़ दिखाई देती थी l  इस अमृतयान  की सफ़ेद ईमारत जो पहाड़ी और पानी की झील के बीच बनी हुई थी ,राधा देवी को बहुत अच्छी लगती थी  l इसी आनासागर झील के ऊपर निकेतन का लान था ,जहाँ अक्सर चहल पहल रहती थी   l नीचे की तरफ घास का स्लोप जाता था ,जिस पर थोड़ी- थोड़ी दूरी पर बैठने की बैंचें थीं l  उसके नीचे से एक पगडण्डी सीधे झील की तरफ उतर गयी थी l  जब भी बच्चे आते थे ,वे उनके साथ झील की बारहदरी तक टहलने जाती थी  l
कल की सी बात लगती  है... वे जीवन की आपाधापी में भागती दौड़ती रहती,ऑफिस की निर्धारित समय सारणी से समय निकाल कर ,कार चला कर अमृतयान निकेतन की सभा में जाती,घर आकर खाना बनाती,बच्चों के स्कूल की टीचर पैरेंट्स मीटिंग में अक्सर उनको ही उपस्थितिथि दर्ज करनी होती थी l  धीरे- धीरे समय पंख लगा कर उड़ गया l  अब तो बच्चे भी घरोंदा छोड़ कर अलग- अलग दिशाओं में उड़ गए है l बेटी बेला की शादी एक संपन्न परिवार में यथासमय हो गयी है और बेटा पलाश अमेरिका में माईक्रोसोफ्ट में इंजिनियर है  l बहू भी उसी के साथ काम करतीहै  l एक प्यारा सा पोता है-- साहिल और एक दोहिती है  जिया  l बच्चों से कंप्यूटर पर रात दिन चैटिंग चलती रहती है ,जिसकी वज़ह से राधा देवी को कभी अकेलापन नहीं लगता है !पति का टिम्बर बिजनेस अच्छा चल रहा है l वे उसमे इतने व्यस्त रहते है  --- समय ही नहीं मिलता उन्हें, बिजनेस के सिलसिले में ज्यादातर बाहर आना जाना रहता पड़ता l  रा धा देवी को आज भी अतीत के पुराने दृश्य दिखते रहते हैं-..... .अभी दो साल पहले ही उन्होंने अमृतयान निकेतन में आना जाना शुरू किया था  l पिछली दिनों ही सेवा निवृतिके बाद से उन्होंने जल्दी जल्दी आना शुरू किया था  l  यह संस्था एक अस्पताल का हिस्सा थी! जहाँ साठ साल बाद से बुजुर्ग महिला पुरुष अपना दिन गुजारने आते थे  l बहुत सी वरिष्ठ सदस्य यहाँ के कॉटेज में ही रहते थे और कई शाम को घर लौट जाते थे !अस्पताल द्वारा निशुल्क इलाज़ भी उनका हो जाता था और हम उम्रों से मिलना जुलना भी  lइस संस्था के संस्थापक की बेटी उनके बचपन की सहेली थी l  उसके आग्रह पर वे इस संस्था से जुड़ गयीं और यहाँ के प्रशासनिक    कार्यों को सँभालने लगीं ---   उनके पति शुरू में तो आश्चर्य में पड़ गए थे  l  फिर उनकी लगन  देख कर कुछ नहीं बोले ! वे वैसे ही इस शहर में चार छह महिन्रे ही   रह पाते थे   l पिछले दिनों वह भी राधा देवी के पास रहने    गए थे  l उन्हें भी लगा की राधा देवी का दिल भी लग जायेगा और वे लेखन सृज़न भी कर  सकेंगी !अमृत यान संस्था की निर्धारित समय- सारिणी राधादेवी को काफी व्यस्त रखती थी  l कभी चिकित्सा  शिविर आयोजित करवातीं  l कभी संस्था के लिए फाईनेंस  जुटाने के लिए इधर उधर जातीं  l संस्था के सभी सदस्यगण साथ मिल कर नाश्ता ,लंच ,डिनर करते थे, बड़ा सादगी ,सोहार्दय पूर्ण हंसी- ख़ुशी का माहौल रहता था   l  श्रीमती पुरीके चुटकुले तो इस नाश्ता- सभा का सबसे बड़ा आकर्षण होता है  l  अभी कल ही उन्होंने सुनाया था की आजकल हम जिस युग में जी रहे हैं, वह बहुत एडवांस है  l सभी सदस्यों ने यह सुनकर कुछ उत्सुुकता ,कुछ चिंता से उनकी ओर प्रश्नवाचक निगाहें डाल दीं    l वे मुस्करानें लगीं...चुटकुला सुनाने लगीं ..."एक बच्चे का जन्म हुआ ,नर्स उसको नहला- धुला कर माँ के पास ले जाने को तैयार हो रही थी तो बच्चा बोला -"नर्स जी ,आपके पास मोबाईल है? " 
नर्स ने कहा -"हाँ   क्यों ?"
बच्चा बोला ..." मोबाईल से बात करके ईश्वर को सन्देश दे दूं कि मैं ठीक से पहुँच गया हूँ l"
सभा में एक ठहाका गूंजा और हाल की खिड़की  से निखर आई दिसंबर माह की धूप- किरणों के साथ सबको तरोताजा कर गयी   l श्रीमती पुरी के जवाब में हँसते हुए श्रीमती कुंतल ने  आगे जोड़ा ..."सही है मैडम आने वाले समय मैं बच्चे पैदा होते ही बोलने लगेंगे"  l सभी सदस्य एक बार फिर हंसने लगे ! राधा देवी अतीत से एक बार फिर वर्तमान  में लौट आयीं... l

 दिसंबर के आखिरी हफ़्ते से ही धूप थोड़ी सी सुहावनी रेशम सी गरमाहट देने वाली लगने लगती है l  राधा देवी ने बालकोनी में पसरी धूप को हथेलियों से छुआ  l धूप की एक रेखा अमृत यान संस्था के लान में लगे फव्वारे पर चिड़िया की तरह हिल रही थी  l बाहर  मौसम सुहावना था... पर उन्हें अब  सत्संग हाल में जाना था कुछ काम भी निपटाने थे l वे उठीं और तैयार होकर कमरे में ताला  लगा कर तेज कदमों से सत्संग हाल की तरफ चल पड़ीं ! 
 शाम कब हो गयी राधा देवी को रोज की तरह पता ही नहीं चला !इस  शहर  में दिन की रौशनी ख़त्म नहीं होती थी कि आकाश में तारे टिमटिमाने लगते थे l  दूर  की पहाड़ियों से चाँद शर्माता हुआ निकल आता था ! 

आज वर्ष का आख़िरी दिन था । वे जीना चढ़ कर ऊपर आयीं ..गलियारा पर किया और कमरे के आगे जल रही धुंधआती बत्ती के नीचे  खडी  हो गयी ...जो उनके कमरे के आगे जल रही थी  l चाबी पर्स से निकाल कर जैसे ही उन्हने ताला  खोलने को हाथ बढाया विस्मित होकर चीख सी पड़ीं ...दरवाजा खुला था  ...तो क्या  उनके पति लौट आये हैं ? उन्होंने धक्का देकर दरवाजे को  धीरे से ढुरकाया तो एक  क्षण के लिए अनोखे विस्मय भरे अनुभव में डूब गयीं ....वहां सामने स्वागत की मुद्रा में खड़े थे ...पलाश , उनकी बहू बेला ,पोता- साहिल ,दोहिति -जिया  और उनके पति विश्वास ...सब एक स्वर में बोले ..."सरप्राइज .....".और फिर स्वर में गूंज उठी एक मीठी सी स्वरलहरी ..."हैप्पी बर्थडे टू यू  डियर ..माँ ....मे गाड़ ब्लेस यू ...!"
राधा देवी को क्या मालूम था कि एक खास शाम उनका इंतज़ार कर रही थी  ....परिवार के शोरगुल और स्नेह के इन सूत्रों में एक पल में उनका जीवन बदल दिया था  l
"अब समझी तभी तुम लोग ऑनलाइन नहीं दिख रहे थे... मुझे चिंता भी हुई... फोन पर वायस मेल लगा था ."वे मुस्करायीं ।
"हमने पापा के साथ मिलकर तय कर लिया था कि  इस बार आपकी षष्टीपूर्ति  जन्मदिन  और नववर्ष हम धूमधाम से मनाएंगे ...." बहू ने राधादेवी को बाँहों में समेट कर कहा था तो  पलाश ने भी अपनी दोनों बाहें माँ के इर्द गिर्द लपेट दी  l राधा देवी को लगा इससे अच्छी जिन्दगी और क्या हो  सकती  है कि आपके जन्मदिन को बच्चों ने महत्व दिया....अमेरिका से भारत तक आये हैं ..उनका जन्मदिन व नववर्ष का उत्सव साथ मनाने ।
  आज   अमृतयान निकेतन के इस कोटेज के  कमरे में एक विशेष सुगंध थी ,कमरा फूलों से भरा था और मेज़ पर एक केक रखा था l  जीवन का संयोग देखिये राधादेवी का जन्मदिन भी एक जनवरी को हुआ था इसलिये हर वर्ष एक उत्सव का भाव परिवार वालों की आँखों में उन्हें हमेशा नज़र आता था । 31 दिसंबर की रात से ही धूमधाम चालू हो जाती थी।राधा देवी को एक हलके विस्मय के साथ सब कुछ सपने सा लग रहा था .. वे जीवन के सुंदर उद्धरण पर पहुँच गयी थीं !परिवार अगर एकसूत्र रहे, स्नेहहिल हों, तो जीवन गतिमान हो जाता है , एक स्वप्निल सी मुस्कराहट उनके पति के चेहरे पर भी थी  l पोता ...दोहिती एक स्वर में दादी से कह रहे थे ..
"दादी माँ केक काटो न...... ..."
राधा देवी जैसे किसी लम्बी नींद से जगीं ,परिवार ने उन्हें मेज़ के इर्द गिर्द चारों ओर से घेर रखा था  l जलती मोमबत्ती का प्रकाश राधादेवी के चेहरे पर दीप्त हो गया था  मनोरम नववर्ष क़ी अगवानी में सर्द सी मनभावन हवा कमरे के भीतर आ रही थी  l राधादेवी को लगा क़ि बस यही वह पल हैं  जब आदमी चाहता है क़ि कुछ  क्ष ण  के लिए यह वक्त ठहर जाये  l  खिड़की से झाँकता चाँद भी मुस्कराता हुआ दूरियाँ चांदनी बरसाता हुआ ऊपर उठ रहा था  । जनवरी माह क़ी रौशनी में एक नीली सी धुंध झील पर भी घिर आई थी  l राधा देवी ने केक खिलाते अपने बच्चों  एवम पति को जब प्यार से देखा तो एक हलकी सी कृतज्ञता क़ी मुस्कराहट उनके चेहरे पर भी झलक आई थी ! 
डॉ सरस्वती माथुर 
ए -२ सिविल लाइन 
जयपुर-६
2

कहानी
रावण दहन ....डॉ सरस्वती माथुर

रेलगाड़ी पटरियों पर बहुत धीमी रफ्तार से चलते चलत्ते झटके से रुकी तो राम ने अचकचा कर आँखें
खोल दी lखिड़की के  बाहर झांक कर देखा स्टेशन  पर  घना धुंधलका था ,कुछेक कुली पुतले की तरह थोड़ी थोड़ी दूरी पर खड़े थे lमौसम में हल्की ठंड़ थी lअक्टूबर में राम अक्सर माँ से मिलने गाँव आता था lइस बार तो
माँ को अपने साथ ले जाने का निर्णय करके आया है ,सोच कर उसका मन भारी  भी हो गया क्योंकि फिर इसके बाद इस गाँव से उसका रिश्ता हमेशा के लिए टूट  जायेगा lराम को याद आता है कि बचपन में इस गाँव में इन दिनो रामलीलाएं शुरू हो जाती  थी lसज़े धजे राम, सीता व हनुमान जगह जगह घूमते नज़र आजाया करते थे l राम को भी अक्सर सीता कि भूमिका दी जाती थी ,एक तो वो गोरा व छरहरा था ,दूसरा  उसकी चाल भी  लड़कियों जैसी थी ,आवाज़ में  भी मर्दानापन कम था ,उसकी महीन औरत नुमा आवाज़ थी ,माँ भीअक्सर  छेड़ा यह कह कर छेड़ा करती थी  कि अरे बबुआ लड़की ही हो जाता lमाँ कि यह बात याद कर आज भी राम के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आ जाती है l
राम खोई -खोई नज़रों से चारों तरफ देखता  है ,फिर सूटकेस उठा कर रेलगाड़ी से नीचे उतर जाता हैlतभी स्टेशन का घड़ियाल सुबह के तीन घंटे बजाता है  मानो कुछ याद दिला रहा है lराम को लगता है कि सच कहा है किसी ने कि हर आदमी के अतीत का एक इतिहास होता है और  उस इतिहास को वो अकेला ही जीता है lलेकिन समय के तो पंख होते हैं वो टिक कर कहाँ रहता है l
समय चिड़िया कि तरह पंख लगा कर जब उड़ जाता है तो सब कुछ बदल जाता है lयहाँ  इस गाँव में भी सब कुछ बदल गया है lचौपालों की जगह अब धीर धीरे क्लब बनने लगे हैं और कच्चे घर बड़ी बड़ी इमारतों में बदल  गये हैं l खेत खलिहांन भी अब कमर्शियल हो गए हैं l राम भी तो इस बार  अब यहाँ अपनी जमीन का सौदा करने  आया है lपिछले दिनो बड़े भैया गुजर गये थे , भाभी अकेली रह गईं थीं तो उनका बेटा उन्हे अपने साथ शहर ले गया ! माँ इस गाँव में रिश्तेदारों क सहारे रहती रहीं पर अब बुढ़ा सी  गईं हैं ,जमीन जायदाद का बंटवारा भी हो चुका है ,उस दायित्व से भी वो बरी हो गईं हैं !राम को, भी अब अपने हिस्से की जमीन बेचने का निर्णय लेना पड रहा है ,वैसे भी उसकी नौकरी तो ख़ानाबदोश  सी है कभी इस शहर में तो  कभी उस शहर भटकना पड़ रहा है वो और वीणा हर तीन साल बाद नए शहर में शिफ्ट होकर नए सिरे से बसते  हैं !ट्रान्सफर प्रक्रिया की  जटिलता के कारण बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में डालना जरूरी हो गया है !
राम यही सब सोचते घर पहुँच गया l माँ उसका इं तज़ार कर रही थी lउनकी गोद में कल्याण पत्रिका की प्रति खुली हुई थी l माँ गाँव की पाठशाला में पाँचवी तक पढ़ी थीं और बहुत गर्व से सब को कहती थीं कि मैं भी पढ़ी लिखी हूँ lराम की माँ रामायण गीता बाँच लेती थी  तो वक्त अच्छा गुजर जाता था lघर का वातावरण भी बहुत आध्यात्मिक था l सांझ को आस पड़ोस की हम उम्र  औरते साथ बैठ कर भजन कीर्तन करने आ जाया  करती थी lइस बहाने एक दूसरे से मिलना जुलना नियमित रहता था lकुछ भी कहें पर गाँव कि सरगर्मी में लोगों के बीच  आत्मीयता आज भी  है, यह राम  महसूस करता है l
पिछली बार जब राम गाँव आया था तो उसने माँ के लिए टीवी लगवा दिया था, उससे घर में एक नयी रौंनक  आ गयी थी ।घर के काम से निपट कर माँ टीवी देखते देखते ही क्रोशिये से शाल ,जालीदार टेबल क्लॉथ बुनती रहती थी ! राम को इससे बड़ी संतुष्टि होती थी कि  चलो माँ अपनी दैनिक दिनचर्या में खुश है lपिताजी के गुजर जाने की बाद भी उनकी चुस्ती में  कभी नहीं थी l राम को गाँव  की छोटी सी दुनिया मोहक लगती है !विशेष तौर पर जब कोई त्योहार आता था तो  यह गाँव जीवंत हो जाता था lदशहरे  और दिवाली पर तो इस गाँव की रौनक देखते ही बनती थी l यहाँ से वापस शहर जाने के बाद राम की स्मृति में माँ का यह पुश्तैनी घर और गाँव दिल दिमाग में उलझा रहता थाl माँ राम का कमरा बहुत सुंदर तरीके स जमाती थी lइस बार भी आते ही माँ ने गरम गरम चाय पिला कर राम को सुला दिया था जब वो सुबह जागा तो एकदम तरोताजा दिमाग था lसुबह ,शाम ,दुपहर कैसे बीत रहे थे उसे मालूम ही नहीं पड़ रहा था!
आज तो दशहरा था! पूरे गाँव में चहल पहल थी lबहुएँ बेटियाँ नये नये पकवान बना रहीं थीं lहर घर से पूड़ियाँ मठरी तलने की महक आ रही थी lगाँव भर में पटाखों का शोर था lदूर कहीं से रामायण की चौपाइयों की और माता के जयकारों की आवाजें गूज़ रही थी l बच्चे नये नये कपड़े पहन बांस की खप्पचियों के तीर कमान पकड़े  राम ,लक्ष्मण ,सुग्रीव ,बाली बने घूम रहे थे l बड़ा ही खुशनुमा वातावरण था lगाँव भर में दशहरे का  मेला सज़ा था ,लोगों का उमड़ता हुजूम था तो सुरक्षाकर्मियों का भी पूरा इंतजाम था ताकि कहीं दंगे न हो जाएँ l
अक्टूबर में मौसम तेजी से बदलने लगता है l हवा तीखी थी ,बीच बीच में हल्की हल्की गर्माहट आती
 फिर सर्दी की लहरों में खो जातीl दशहरे के मौके पर पुलिस की सायरन बजाती गाडियाँ गाँव भर में घूम रही थी lराम सीता लक्ष्मण की झकियों से सज़ा रथ गाजे बाजे के साथ सड़क से गुजरता हुआ रामलेला मैदान में पहुँच रहा था जहां रावण दहन की औपचारिकता  होनी थी उसी ओर भीड़ का रेला भी जा रहा था lबच्चे भी उत्साह से चेहरे पर राक्षसों का मुखौटा लगाए ,सड़कों ,गलियों में घूम रहे थे l
राम भी घर की खिड़की पर आ खड़ा हुआ था जहां से सामने ही  सपाट रामलीला मैदान दिखाई देता था ,वहाँ  बारह मुखौटे वाला रावण -मेघनाद -व कुंभकरण के विशालकाय पुतले खड़े थे और भस्म होने का इंतज़ार  कर रहे थे ,वातावरण में पटाखों का शोर बढ़ता जा रहा था, तभी राम की माँ भी इस दृश्य को देखने पास आ खड़ी हुई
राम के कंधे पर हाथ रख कर मुस्करा कर बोलीं --"बुराई पर अच्छाई की जीत होने वाली है , हर साल यह याड दिलाने दशहरा पर्व आता है ,है न बेटे?"
जी माँ सही कहा आपने ,मैं भी तोआप से मिलने  हर साल इन दिनो यहाँ आता हूँ  और इस बार तो आपको साथ ले भी जाऊंगा फिर जाने कब आना हो ,बोलते बोलते ही राम की आँखें भी  भर आयीं l माँ का मन भी अंदर तहक भीग गया !जाने क्यों माँ हर बार राम को  चाह कर भी  नहीं बता पायी कि राम तुम आज के दिन ही हमे दशहरे के मेले में तब मिले थे जब मेले में हुई भगदड़ में तुम्हारे  पिता की  मौत हो गयी थी और तुम्हारी  माँ बुरी तरह से घायल हो गईं थी l हम  तुरंत उन्हे वैद्यराज के पास ले गए थे पर उन्हे बचा नहीं पाये ! माँ बाप कुछ दिन पहले ही इस गाँव में रहने आए थे ,उसके पिता मुखौटे बना कर बेचा करते थे माँ ने जा दम तोड़ा था तो तुम उनकी गोद में एक साल के थे वो जाति की मुसलमान थीं l हमें  जब उन्होने बताया  था राम तो तुम्हारे पिता ने  इतना ही जवाब दिया था कि लहू का रंग तो एक होता है और  राम की  माँ को दफन  कर सरपंचों की रजामंदी लेकर वो तुम्हें घर ले आए थे और अपने बच्चे कि तरह तुम्हारा लालन पालन किया हमने तो बस  माता पिता होने का अपना दायित्व निभाया है l
तभी पटाखों की तेज गूंज के साथ रावण का दहन हो गया lराम  ने मुस्करा कर अपनी माँ की  तरफ देखा और प्रणाम करने को उनके चरणो में झुक गया l
माँ तो उसके लिए दुर्गा का साक्षात रूप थी वो माँ को क्या कहता कि पिता ने मरने से पहले उसे एक पत्र  भेजा था जिसमें उन्होने उसके जीवन की  सारी हकीकत लिख भेजी थी इस चेतावनी के साथ कि माँ को न बताना वो तो देवी स्वरूप है जिसने तुम्हें अपना खून सींच कर पाला है वर्ना उसका दिल टूट जाएगा l
राम ने लंबी सांस भरी और स्नेह से माँ की आँखों में देखा जहां आज भी आस्था का मंगलदीप जल रहा था और चेहरे पर ममता की लौ टिमटिमा रही थी और चारों तरफ बुराई पर अच्छाई की विजय के  साथ रावण दहन का  का शोर गूंज रहा था l
डॉ सरस्वती माथुर
ए -2 ,सिविल लाइंस
जयपुर-6