शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

नयी कवितायें ! 24.10.15

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वह सच था
मेरे भ्रम के बीच
हवा सा बहता हुआ
बीज़ सा उगता हुआ
अपनी मन जमीन पर
उसे अंखुआने का
एक  तरु बनाने को
मैं उसके आसपास
ताप से जलती रही
ख्वाबों के पंखों पर
उड़ती रही देर तक
पर ना आसमान मिला
और ना ही उतरने को
जमीन ढूंढ पाई
और अब तो
कौन जाने कब तक
उड़ते ही रहना होगा l
डॉ सरस्वती माथुर
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वह शांत था
बावड़ी के जल सा
कभी कभी मैं
सपनों की बाल्टी
जब वहाँ भरने जाती थी
तब उसका जीवन
हुक्के की तरह
गड़गुडाता था
 फिर निस्पंद
 पड़ा रहता
उसकी शांति
मुझे चुभने लगी तो
मैंने सेंकड़ों सूरज से
अपने गुस्से के
कंकड़ उसमें
पटक दिये
और फिर एक
भँवर सा बस
 एक वृताकार घेरे में
वह काँपता रहा
अब मैं शांत थी l
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तुम फेंकते रहो
भेदभाव का कचरा
मैं उठाती जाऊँगी
होंगे  तुम
 महलों के शहतीर
 मैं झौंपड़ी का बांस ही सही
तुम छंवाते जाओ
मुझे मान कर
एक महिला जाति
इंसान बन कर
गहराती जाऊँगी
पर इतना तो बताओ
तुम कौनसे ईश्वर हो
जो तय करो मेरा रास्ता
कोई भी हो तुम
तुम्हें पीछे छोड़ कर
मैं खुद अपना रास्ता
बनाती जाऊँगी
कर्मवीर सी देखना
पूरे विश्व  में
 अस्तित्व का
एक तिरंगा
फैलाती  जाऊँगी
तुम कहते रहो
कुछ भी
मैं सुन कर भी
 नहीं सुनूंगी
 बस अंधेरी राह में
स्नेह प्रेम का
 दीप जलाती जाऊँगी l
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एक सूफी कविता ---
तुम सपने में थे
 मैं देर तक सोयी
तुम यादों में थे
मैं जाने क्यों रोई
बारिश तुमहार
शहर में हुई थी
मन मेरा क्यों भीगा
चलो छोड़ो यह बताओ
यादों की डायरी का
 जब सफा मैं
ने पलटा तो
चौंक के हर्फों के
 समुंदर से जो
बुलबुले  उठे वो
 आखिर कैसे हो गए मनके 
तुम्हारे नाम के
आखिर यह तिलस्म क्या है
भ्रम या हमारी तुम्हारी
 पाक मौहबत ?
डॉ सरस्वती माथुर
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पिछली गर्मी में
आई थी गौरैया
घर में पेड़ पर
नीड़ बुननें तो
पूरा घर सुबह सुबह
उनके गीतों  के
सुरों से चहकने लगता था
लेकिन इस बार
 ना आलाप है ना राग
लेकिन इस बार
न आलाप  है ना राग
मुरझा गयी सब
बुझे हुक्के सी
शांत हैं मुरकियाँ
अब कब तक करें
इंतज़ार देखो न
पेड़ से अभी तक भी 
हटाया नहीं
 है मैंने उनका नीड़
 देखती हूँ हवाएँ भी
 कम चलती हैं
नीड़ के इर्द गिर्द
 उसे सुरक्षित रखने को
पतियाँ भी
कम भुकभुकाती हैं
 यह कहती सी कि
आ लौट आ रे गौरैया !
डॉ सरस्वती माथुर
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"यात्रा भी एक दरिया है !"
जीवित रखूंगी
मैं अपनी कविताएं
उम्मीद की
संजीवनी पिला रोज
अल्लसुबह जगाऊँगी
अपनी कविताएँ
अपनी कलम में
सतरंगा सूरज भर
गुदगुदाऊंगी
अपनी कविताओं को
धूप की हंसी से चमका
मन धरती में
तन्मयता से उगाऊंगी
 अपनी कविताएँ
पूरे भावों के साथ
शांत नदी की
 अनुभूति से नहलाऊँगी
अपनी कविताएं
बसंत के आगमन पर
धानी चुनरियाँ
ओढा कर सजाऊँगी
अपनी कविताएँ
फिर हाथ पकड़ कर उसका
किताबों की सपनीली
दुनिया में  घुमाऊँगी
अपनी कविताएँ फिर
अपने प्रियजनो को
अर्पित कर दूँगी और
कविताओं की नदी में
 केवट बन कर
दूर निकल जाऊँगी
जीवन की
कलकल नदी में
 नाव सी बहती हुई l
डॉ सरस्वती माथुर
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"यात्रा भी एक दरिया है !"
मेरे भीतर की यात्राएं
कभी कभी बहुत ही
लंबी होती है
यात्राएं कभी
 एक दिशा में नहीं होती

हर दिशा का अपना
एक आँगन होता है
उस आँगन में कभी
शोर तो कभी
मौन रहता है

यात्रा भी एक
दरिया है
 जिसकी लहरें
कभी लहराती है
तो कभी थम जाती है
और उस यात्रा के
पैरहन को नजमों के
लफ्जों में अब
समेटना भी नहीं चाहती
क्योंकि मेरा  मन
 उस समय
यायावर सा होता है
तो मैं उसे
रोकना भी नहीं चाहती
यात्रा और यायावर के साथ
मैं बस
 सहेज रहती  हूँ
अपने को एक
नज़्म की तरह
 लिखती हूँ
यात्रा के विवरण को मैं
उलीच दे
ती हूँ
काई सा जमा
सुगबुगाता मौन और
 चलने देती हूँ
 क्रमवार यात्राएं
मन क पाँवों पर और
हिचकौले खाते हुए
उड़ती रहती हूँ 
अपने ही भीतर के
अरण्य  में
सपनों के परों पर
यात्रांत तक l
डॉ सरस्वती माथुर
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"बदलाव !"
मन हिरण
चंचल हो भागा
टूट गया कब
स्नेह का धागा
अजनबी  बन
जाने पहचाने बदले
 पास्ता में अनाज के
 दाने बदले

झूँठ सच के सरोकारों में
सच मानो तो
नापने के
पैमाने बदले
जम  गए हैं बर्फ से
मन के संबंध
 लगा लिए हमने
दिखावे के पेबंद
प्रेम प्रीत के भी
दीवाने बदले

छोटे छोटे झगड़े थे
उलझ गए तो
कशमश के
अफसाने बदले
संवाद भी मौन हुए
 अपने अब गौण हुए
 माल- जब  बिग बाज़ार
 बन गए तो
करीने की दुकानों के
ठिकाने बदले l
डॉ सरस्वती माथुर
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