गुरुवार, 7 जनवरी 2016

लघुकथाएं


***डॉ सरस्वती माथुर की 10 लघुकथाएँ***

  
 डॉ सरस्वती माथुर
लघुकथाएँ
1.
श्रम का बीज
उस दिन सर्दी बहुत थी l धूप में भी तेजी नहीं थी, धुंध का पर्दा हवा में रह -रह कर काँप उठता था lअलसाई सी    ठंडी भोर  में किसका मन होता है बाहर निकलने का, पर भंवरी  को तो जाना ही होगा lभंवरी उठ खड़ी हुई ,उसने बोरी उठाई और कचरा बिनने चल दी lरोज का यही नियम था lकचरे से बटोरी हर चीज़ वह अपने बोरे में तरतीब से सहेज लेती  lबच्चों के उठने से पहले ही घर लौट आती l उसके बच्चे उससे कभी नहीं पूछते थे  कि वह कहाँ काम करती है iउसने उन्हे बस इतना बता रखा था कि वह एक सेठानी के यहाँ  मालिश करने जाती है और उसे महीने के चार पाँच हज़ार रुपये मिल जाते हैं और  पति की चार  हज़ार के लगभग   पेंशन मिल जाती है तो गुजारा हो जाता है ,भंवरी के पति बीमा कंपनी के एक सरकारी दफ्तर  में चपड़ासी थे , अचानक उनकी मृत्यु हो गयी थी तो उसके बाद से मजबूरन  भंवरी को कचरे बटोर कर बेचने का  काम करना पड़ा l
भंवरी अनपढ़ थी उसे कहीं काम नहीं मिल रहा था  तो उसे सेंट्रल पार्क के माली ने यह सुझाव दिया ,तब से वो इसमें जुट गयी lअब वह बूढ़ी हो गयी है और इस काम में अभ्यस्त भी lउसकी मेहनत का ही फल था की दो  बेटे  इंजिनियरिंग में पढ़ने  चले गए l  भंवरी  के पास  उसकी जमा पूंजी थी ,कुछ बच्चों की तकदीर कि उन्हे कालेज में  स्कॉलरर्शिप मिल गयी l
बेटी बड़ी थी, उसने बी॰ एड॰ करके एक स्कूल में नौकरी कर ली और एक सहयोगी अध्यापिका के कहने पर आई॰ ए॰ एस का इम्तिहान दे डाला और चयनित हो गयी l झुग्गी झौंपड़े से क्वार्टर और वहाँ से सरकारी बंगले में पहुँच गयी l
*समय का जादूगर क्या- क्या करतब दिखाता है, आज एक संस्था द्वारा भंवरी की  बेटी का सम्मान समारोह
 था lझुग्गी झौंपड़ी में पली बढ़ी एक लड़की ने जीवन संघर्ष  की जमीन देखने के बाद  इतना बड़ा ओहदा पाया था ,भंवरी कैसे अपनी आँखों से ना देखती l वह भी बेटी के साथ चमचमाती कार में कोटा डोरिया की नीली साड़ी पहन कर गर्व से पहुंची थी ,सम्मान से प्रथम कतार में भंवरी को  बिठाया गया था l फूल मालाओं से लदी बेटी ने माइक संभाला और जनता को संबोधित किया --"मान्यवर , बहुत बहुत आभार मुझे सम्मान देने के लिए लेकिन इस सम्मान की सही में हकदार मैं नहीं कोई और है ,आज मैं  दो शब्द उन्ही बारे में कहने को खड़ी हुई हूँ  यह  हाल में  बिलकुल मेरे सामने की सीट पर पहली कतार में   नीली साड़ी में जो महिला बैठी है ,वो मेरी माँ है...भंवरी देवी नाम है इनका , दरअसल यह इनका ही आशीर्वाद है कि आज मैं यहाँ आपके समक्ष खड़ी हूँ l हमे पालने के लिए  मुंह अंधेरे हमारी  माँ उठ कर कचरा बिनने जाती थीं, उसे कबाड़ी को बेच कर उससे जो पैसा मिलता था , उससे हमारा पेट भरती थीं l हाँ ,  इन्होने हमसे  झूठ  बोला कि यह सेठानी के घर मालिश करने जाती हैं ,लेकिन यह झूठ हमारे लिए एक चिराग की  रोशनी की तरह था





जो बार बार हमें  अहसास कराता था कि हमें जीवन संघर्ष में सच की ओर जाना है और कुछ कर दिखाना  है l मेरी माँ उस कचरे में से जो छोटी  छोटी पेंसिलें  एकत्रित करके लाती थी ,उनसे मैंने लिखना सीखा l
 आज मैं आप सबको बतलाना चाहती हूँ कि बड़े बड़े महलों व घरों में रहने वाले लोग सच के बोरे में झूठ  भरते रहते हैं ,पर मेरी माँ रोज कचरे की बोरी में मेरे लिए एक नयी चुनौती भर के लाती थी l
मैं चाहूंगी कि मेरी माँ भंवरी देवी को मंच पर बुलाया जाये ताकि मैं उनके चरण स्पर्श करके सबके सामने गर्व से यह कह सकूँ कि कचरा बीनने वाली मेरी माँ सही अर्थों में एक कर्मवीर  महिला है जिन्होने अपने जीवन के हसीन खवाबों को अपने बच्चों की  आँखों में देखा है l
माँ आज मैं एक बेटी होने के नाते से आपसे भी एक वादा करना  चाहूंगी कि मैं जीवन भर आपके श्रम के बीज़ को सींच कर आने वाली बेटियों के लिए एक नयी दुनिया रचूँगी ,हर शनिवार ,इतवार को झुग्गी झौंपड़ियों में जाकर नि:शुल्क बेटियों को पढाऊँगी ,उन्हे पत्थर  से तराश कर हीरा बनाऊँगी l"
हाल  तालियों से गूंज रहा था ,भंवरी देवी को सम्मान से मंच पर लाया गया ,तालियों की गड़गड़ाहट के बीच  भंवरी देवी ने  नज़रें उठा कर देखा कि सब खड़े हैं l
वह हक्की बक्की सी मंच पर खड़ी सोच रही है पर मैंने ऐसा क्या किया ? हाँ एक हीरे सी बेटी जरूर पैदा की
 है lआँखें मूँदे वह देर तक हाथ जोड़े मंच पर  खड़ी रही!

2
सपना एक नामी गिरामी फाइव स्टार होटल के पिछवाड़े का  दृश्य है यह !
राम लखन बर्तन माँजते  हुए  टपकते पानी की आवाज़  सुन रहा था पर  उसके कान पास खड़े दो नौजवानो की बातों पर भी लगे थे जो आई॰ आई॰ टी के परिणामों की चर्चा  कर रहे थे !


लाल कमीज़ वाला छात्र कह रहा था --"यार मैंने शहर के  बेस्ट कोचिंग सेंटर में दाखिला लिया पर फिर भी सफल नहीं हो पाया !"
काली शर्ट वाला बोला ---"क्या करें यार ,मैं भी पास नहीं हो पाया ,सुना है जो प्रथम आया है वो अपने शहर का ही है ,तू

जानता है उसे ?
"नहीं, पर सुना है कि एक होटल में अपने पिता जी के साथ बैरे का काम करता है !" लाल शर्ट वाले ने मुंह बना कर कहा
"यार ऐसे कैसे सलेक्ट हो जाते हैं लोग ?" काली शर्ट वाले ने थोड़ा तैश में स्वर खींचा
लाल शर्ट वाले ने सिगरेट सुलगाई और एक कश खींच कर अपने दोस्त को दिया !दोनों वहाँ से आगे बढ़ गये !बर्तन माँजते हुए रामलखन अपने काम में मगन रहते हुए अपने आप से  कह रहा था ---"हाँ  भाई मैं प्रथम आया हूँ  क्योंकि मेरे पिता की मेहनत और माँ का सपना था कि मैं भी आई॰ आई॰ टी की  परीक्षा पास करूँ ,सो मैंने कर ली !अब बस उनका सपना साकार करना है !नल बंद कर के राम लखन आत्मविश्वास से बर्तन उठा होटल के किचन की  तरफ बढ़ गया !
 3
तुलसी का बिरवा ! 

रामबहादुर जी ने एक एजेंट के माध्यम से अपना पुश्तैनी मकान बेच कर अपने बेटों के पास अमेरिका जाने का निश्चय किया था तो  आस पास के सभी लोगों को घर की चीज़ें बाँट गए थे  ! अपने देश से दूर जाना उनकी मजबूरी थी क्यूंकी दोनों बेटे वहाँ जा बसे थे ! इस घर से उन्हे बहुत लगाव था पर क्या करते ,कैसे उसकी देखभाल करते विदेश से बार- बार आना  संभव नहीं  था ! उनके इस पुश्तैनी घर  के अहाते में उन्होने बहुत से फलों के पेड़ और फूलों के पौधे लगा रखे थे, दूर दूर से लोग उनका यह बगीचा देखने आते थे ! हमेशा घर आँगन फूलों की महक से भरा रहता था ! उस घर के एक कोने में एक तुलसी  का सुंदर बिरवा भी था ! इस राम ओर श्याम तुलसी को उनकी  दादीजी ने  बरसों पहले रोप

था और उसकी शाखाएँ इतनी फ़ैल  गईं थीं  कि जब उस पर तुलसी मंजरी के दल लटकते थे तो   डालें झुक सी  जाती थी ! बड़ी धूमधाम से हर वर्ष कार्तिक माह में उनकी दादी  तुलसी शालिग्राम का ब्याह  रचा कर  सारी बिरादरी को खीर पूड़ी खिलाती थीं ! वो दिन आज भी राम बहादुर जी को याद आते हैं ! दादी के बाद उनकी माँ ने भी उस परंपरा का पूरा सम्मान रखा और खुशकिस्मती से पत्नी भी उन्हे ऐसे ही संस्कारों वाली मिलीं थीं  जो परंपरा ओर आधुनिकता  की कड़ी थी! नौकरी भी करती थी  और सभी परम्पराओं को वैज्ञानिक मान  कर बदस्तूर निभाती  भी थीं !  विशेष तौर पर इस तुलसी के बिरवे  को तो वो नियम से सींचती थीं, साँझ को दिया जलाना तो वो कभी नहीं भूलीं ! कार्तिक में भी वह  भी  तुलसी ब्याह की परंपरा निभाती थीl    अंतर बस  इतना भर था  कि  वह वक्त के अभाव में पूरी बिरादरी नहीं  न्योत पातीं थीं ,बस  करीबी सगे संबंधियों के साथ पूज लेतीं थीं  !घर बेचने के बाद  काफी सालों तक राम बहादुरजी का देश में आना नहीं हुआ !  अमेरिका में  उन्हे हर पल अपना देश ,शहर ,पुश्तैनी घर , दोस्त व अपने परिवार वाले बहुत याद आते थे l वह मौका ढूंढ  ही रहे थे कि उन्हे अपने साले की लड़की की शादी का निमंत्रण-पत्र  मिला ,उनकी खुशी का ठिकाना न रहा! बहुत उत्साह से उन्होने अमेरिका से सभी नाते रिश्तेदारों के लिए ख़रीदारी करी और भारत के लिए सपरिवार चल दिये!  सबसे मिले जुले ,अनुभव भी सुखद रहा !  

"देखते ही देखते वक्त प्रवासी चिड़िया सा फुर्र हो गया ! जाने का समय नजदीक आ गया ! समय कम रह गया  था ,एक दिन उन्होने हिचकते हुए अपने बड़े बेटे से  अपने मन की ख्वाईश कह दी ... “श्रीकांत,  तू कहे तो  हम जयपुर जा आयें ,  रिश्तेदारों और दोस्तों से भी मिल आएंगे ,कुछ पुरानी यादें ताजा कर आएंगे ,फ्लाइट से दिल्ली से बीस मिनट ही तो  दूर है  जयपुर,  क्या कहता है "  बेटा मुस्कराया और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उनके जाने का इंतजाम भी 

कर दिया l   कुछ रिश्तेदार वहाँ थे , दोस्त थे, सबसे मिल कर दोनों पति पत्नी आनंद से भर उठे !  लेकिन यहाँ आने के बाद शहर में अपने पुश्तैनी घर को एक नज़र देखने का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रहे थे रामबहादुर जी  ! एक शाम पत्नी के साथ पहुँच ही गए  ! उन्होने देखा कि घर पूरी तरह से नयी शक्ल ले चुका था पर जमीन तो वही थी ...आसपास की खुशबू भी वैसी ही थी, हाँ संदर्भ, परिवेश ओर कुछ लोग अलबत्ता बदल गए थे l राम बहादुर जी कुछ पल घर के बाहर नि:शब्द खड़े रहे, फिर  डरते डरते घर का द्वार खटखटाया  ! द्वार खुला तो देखा  सामने  युगल दंपति खड़े थे ,रामबहादुर जी  ने अपना  परिचय दिया और अपनी भावनाये बताई तो बड़े सम्मान से युगल दंपति ने  मुस्कराते हुए खुले दिल से  उनका स्वागत कियाl युगल दंपति की बुजुर्ग अम्मा व  ,नन्हें बच्चे भी उनके इर्द गिर्द आ खड़े हुए थे! यूं   बिलकुल नहीं लग रहा था कि सब  पहली बार मिल रहें हैं ! खूब ढेरों बातें हुई ,चाय पानी  के बाद  वह उठने ही वाले थे कि उनकी अम्मा ने कहा -- " रुको बेटा, साँझ हो गयी है, मैं तुलसी बिरवे पर दिया बाल  कर अभी आई और हाँ  तुम अच्छे अवसर पर आए हो ,आज घर में शालिग्राम जी  की   पूजा  रखी थी ,उसका प्रसाद भी लेते जाना !  रामबहादुर जी ने भावाकुल हो  अपनी पत्नी की  ओर  देखा  तो पाया  उसकी आँखें नम थी , रामबहादुर जी की पत्नी  तभी कह उठीं -"अम्मा जी , तुलसी बिरवा है अभी....क्या हमारा  बुजुर्गों का रोपा हुआ ... ?"

"हाँ  बिटिया है न हमारे बाग में, हाँ  अहाते  में  तो जरूर कुछ   नए कमरे बन गए हैं अब , पर यह तुलसी मैया तो इतनी  फैलीं हुईं थी कि इनकी जड़ें कैसे काटते  हम , मैंने न हटाने दिया तुलसी मैया को, ... आर्र्कीटेक्ट भैया  ने   अहाते में ही एक छोटा सा गार्डेन बना  दिया तो हमने  आपके द्वारा लगाई इस पावन  धरोहर को सहेज  लिया, अरे  आओ न  तुम  भी  दर्शन करो और  बहू आई ही  हो तो अपने हाथ से तुलसी बिरवे पर दीपक भी तुम्ही बाल दो !"

 रामबहादुर जी  और उनकी पत्नी  नि:शब्द भावविभोर  तुलसी बिरवे के पास खड़े थेl दिया ज्योतित हो चुका था ! उन्हे उसकी लौ में अपने बुजुर्ग दिखने का सा आभास हो रहा था  ... दूर से  आ रही मंदिर की घंटियाँ की आवाज़ कानो में रस घोल रही थी! हवा के ठंडे झोंकों में बगिया से  मोगरे गुलाब की  खुशबू  वातावरण को महका रही थी lदोनों  भाव विभोर

  अभी भी तुलसी मैया के आगे हाथ जोड़े खड़े थे ! सच में  उनका भारत आना सफल हो गया था और मन फूल सा  हल्का था  !  राम बहादुर जी मन  ही मन  सोच रहे थे कि चाहे  हम कितने ही आधुनिक हो जाएँ पर यदि अपनी विरासत में मिली परम्पराओं  को हम दिल में सहेज लेंते हैं तो सारा परिवेश रसमय और पवित्र हो जाता है, जो आज के पर्यावरण के लिए जरूरी भी है !  पर्यावरण शुद्ध होगा तो प्रकृति भी  हमेशा महकेगी और जीवन में चिड़ियों की चहक सी खुशियाँ भी हमेशा बनी रहेगी ! 

4

गांधीजी के तीन  बंदर !

मुरली बाबू आज मुंह अंधेरे पार्क में घूमने चले गए थे ,पार्क सुनसान था ,बस एक कुत्ता कछुए की तरह अपने पाँव समेटे एक बैंच के नीचे सो रहा था ,एक लंबा चक्कर लगा कर  वह भी कुछ देर एक बैंच पर सुस्ताने  बैठ गये ,तभी पार्क के बीचों बीच लगे गांधी जी के तीन बंदरों पर उनकी निगाह गई ,अरे ये क्या तीनों बंदरों के हाव भाव  कौन बदल गया ,उन्होने चश्मा नाक पर ठीक करके पास जाकर देखा तीनों बंदरों के नीचे लगी  एक पट्टी पर मुद्रा को संदर्भित करता कथन भी लिखा  हुआ था, अरसे से यूँ  ही  बैठे तीनों   बंदरों की मुद्राएँ कुछ यूँ  थी -पहला बंदर -अंधा हूँ पर आजकल ऑपरेशन करा लिया है,बस रात में देखता हूँ और भृष्टाचार  से मिले नोट गिनता हूँ !

दूसरा बंदर -समय बदल गया है तो मैं क्यूँ न बदलूँ?कम  बोलता हूँ , नेता हूं! संसद में विपक्ष पर छींटे कस मन हल्का कर लेता हूँ !

तीसरा बंदर -बिलकुल समय बदला है ,तकनीकी  भी बदली है , सुन रहा हूँ कि  गाहे बगाहे  एक दूसरे के  कैसे कान काटे जाते हैं, यह सब अब कान की मशीन लगा कर  सुनता  भी हूँ ,    एक दिन संसद में गया तो देखा कि अरे यहाँ तो शब्दों 

का पूरा ज्ञानकोश है और अब जरूरत क्या है कानो पर हाथ रखने की ?मुरली बाबू ने  ध्यान से बंदर के बदले हाव भाव देखे ,मुद्राएँ कुछ यूँ थीं -पहले बंदर की आँखों पर काला चश्मा था lदूसरे बंदर का मुंह खुला  हुआ था ।तीसरे बंदर के दोनों कानो में हियरिंग ऐड  लगी थीl तभी उन्हें उनकी बीबी ने  गहरी नींद से  जगाया -""अजी सुनते हो सैर पर नहीं जाना क्या ? चौंक कर मुरली बाबू जागे  -"अरी भाग्यवान थोड़ी देर तो सोने देती, सपना देख रहा था, सच बंसी की अम्मा गज़ब का सपना था ...समय बदला तो गांधी जी के तीनों बंदरों की  मुद्राएँ  भी बदली दिखीं !

5

 आ री कनेरी चिड़िया!

मीठी मात्र आठ साल की थी जब घर के अहाते के एकदम बाहर बरवाड़ा हाउस सोसाइटी ने  पीले कनेर के 10 पेड़ रोपे थे  !अभी भी याद है गायत्री देवी को जब गर्मियों में गरम हवाओं के झोंके तन को गरम कर देते थे तो कनेर की नूकीली पंखियाँ चँवर सी झूल कर मौसम को खुशनुमा बना देती थी !शुरू शुरू के वो दिन गायत्री देवी की यादों में आज भी ताजा है lबरवाड़ा सोसायटी का यह अहाता तब बच्चों   के क्रिकेट का मैदान था ,गर्मी की लू से बेपरवाह रहते हुए दिन भर धमाचौकड़ी होती थी! वहाँ खेल कूद करते बच्चे कनेर के इस पेड़ के नीचे बैठ कर थकान मिटाते थे ,इसके पीले पीले फूल जब डाल  से छूट कर बच्चों के उपर आ गिरते थे तो मौसम में बसंत छा जाता था l उन फूलों को एक दूसरे पर उछाल कर सभी मिल कर एक स्वर में गाते थे ----"आ री कनेरी चिड़िया ...गा री कनेरी चिड़िया ....शिवजी के मंदिर में फूलों को जाकर चढ़ा री कनेरी चिड़िया .....आ री कनेरी चिड़िया ...!" यह किसी प्रदेश का लोकगीत था जो भोलू ने अपनी दादी से सीखा था और सब की जबान पर चढ़ गया था !गायत्री देवी जब तक बरवाड़ा हाउस के इस अहाते में रहीं ,पूजा में कनेर के फूलों को नियमित चढाती रहीं lफिर वह अपने छोटे बेटे के पास विदेश चली गईं lबड़ा बेटा अभी भी बरवाड़ा हाउस ही में रहता है ,वे आती जाती रहती हैं !इस बार का आना विशेष मायने  रखता है ,वह मीठी की शादी में पूरे परिवार के साथ शामिल होने आई हैं !मीठी जो उनकी लाड़ली पोती है ,कानून की पढ़ाई खत्म करके अब प्रैक्टिस कर रहीं हैं ! 
चोबीस वर्ष की हो चुकी हैं मीठी !गायत्री देवी इस बार भारत लगभग पाँच वर्ष बाद आईं हैं ! इस बार विशेष रूप से यहाँ की संरचना में उन्हे बड़ा बदलाव लगा, वह हैरान भी थीं और दुखी भी कि गगनचुंबी इमारतें बनाने के चक्कर में बरवाड़ा हाउस ही नहीं पूरे शहर की काया पलट के फलस्वरूप यहाँ की सुंदरता भी तहस नहस हो गयी हैl कल की सी बात लगती है जब अहाते के आस पास का सौंदर्य अप्रतिम था ...वह कैसे भूल सकतीं हैं कि भोर होते ही यहाँ चिड़ियाएं नए नए राग छेड कर सभी को जगाती थी  और अब देखो तो जगह जगह से डालें काट दी गईं हैं ...कनेर जो हर रंग में अपनी आभा बिखेर के मन मोह लेते थे उदास खड़े हैं ,कनेर जो मंदिर का दर्शन थे ,जो हवाओं की आहटों के साथ थिरकते थे ,मौन खड़े हैं, कनेर जो मंदिर का दर्शन हैं ,विष पीते हुए मंदिरों में अमृत बरसाते हैं ,शिव जी पर चढाये जाते हैं ,वहाँ की  रचना का दर्शन हैं  ...वहाँ की अभिव्यक्तियों का जीवन मकरंद हैं ...जो हवाओं की दस्तकों के साथ घण्टियों की तरह बजते से लगते हैं, सद्भाव आस्था का भाव जगाते हैं ,आज चीख चीख कर कह रहें हैं कि हमे न काटो, हमें बचाओ ,हम तो इन आहतों की देहरी के रखवाले हैं, प्रहरी हैं ,पर्यावरण के रक्षक हैं lगायत्री देवी उन्हे बड़े दार्शनिक मनोभाव से एकटक जब निहार रहीं थीं तो मीठी उनके पास आ खड़ी हुईं ---"प्रणाम दादी, आपका जेट लेग पूरा हुआ या नहीं ?"-"अरी कहाँ बिटिया, देख न नींद ही उड गयी है मेरी तो, देख न मीठी कितनी बेदर्दी से नोचा है इन कनेर की डालियों को , बांसुरी सी लहराती थी कभी ,जगह जगह से काट दी गयी हैं ....चिड़ियों का बसेरा तक नहीं दिख रहा Iगायत्री देवी की आवाज़ में भी दर्द था जिसे मीठी ने भी महसूस किया!
"अरे दादी जान सोसाइटी वालों ने तो इसे काटने के आदेश तक दे दिये थे वो तो मैंने सभी सदस्योंI के हस्ताक्षर लेकर नोटिस देकर इन्हे रोका है  स्पष्ट निर्देश निकलवाये  हैं कि इन्हे न काटा जाये बल्कि इमारत जो बन रही है उसकी बनावट में इन पेड़ों की परिधि छोडी  जाये।इन ओरर्ननामेंटल पेड़ो की सीमा रेखा छोड़ते हुए ही नक्शा पास करवाया जाये,स्टे ले लिया है, केस चल रहा है अभीl"
गायत्री देवी ने स्नेह से मीठी की आँखों में देखा,सोचा सच कितनी समझदार होगयी है मीठी... यह बच्ची ,पर्यावरण  का संरक्षण  ही नहीं कर रही   है बल्कि  हरियाली जो प्रकृति का अनुपम शृंगार होती उसे भी बचाने के जीवट संघर्ष मेँ जुटी है

 ...तभी तेज हवा का झोंका आया तो साथ में हवाओं की बौछार के साथ पीले कनेर के बहुत से फूल गायत्री देवी के इर्द गिर्द बिखर कर वातावरण को मनमोहक सुगंध से भर गये, तन के साथ साथ मन को भी सुवासित कर गये! देर तक गायत्री देवी के कानो में गूँजते रहे यह मधुर स्वर....".आ री कनेरी चिड़िया ...गा री कनेरी  चिड़िया........!

6

हरियाये बाँस का आमंत्रण
विनायक एयरपोर्ट से सीधे टैक्सी  लेकर अपने गाँव पहुँचा तो हैरान रह गया! मनफूल काकी  आज भी अपनी कुटिया को बाँस की बातियों से छवा रही थी l उन्ही की बगल में घीसू काका  सा ॰  बांस की खप्पचियों से कच्ची झोंपड़ी की दीवारों को मूँज की रसियों से बांध रहे थे lविनायक  ने इतनी सुंदर कारीगरी पहले कभी नहीं देखी थीl करीब तीस साल बाद वो अपने गाँव आया था l उसके ताऊ रूप लाल सा॰ जी का देहावसान हो गया था इसलिए आना भी जरूरी था l टैक्सी जैसे ही  दालान में रूकी वहां कंचे खेल रहे घर के छोटे  बच्चे खुशी से उसके इर्द गिर्द घूमर करने लगेl दरअसल यह गाँव नहीं था बल्कि  एक दूरस्थ बसी कच्ची ढ़ाणी थीl बरसों पहले विनायक के पिता नौकरी की तलाश में  यहाँ से एक व्यापारी सेठ के साथ शहर चले गए थे, कभी कभार ही आते थे l फिर  सेठ की कंपनी के  साथ  अमरीका जाना पड़ा फ़िर वहीं बस गए !विनायक तब छोटा  ही था पर जेहन में इस ढ़ाणी की धुंधली सी यादें जरूर थी l वो हरियाये बांस के झुरमुट में दोस्तों के साथ छुपन छुपाई खेला करता था ,उसे याद आ रहा था कि उन दिनों उनकी  दादीसा .बांस की तकली से सूत कातती थी lगांवों में खुले आम ढ़ोर ढंकर घूमा करते थे ,उन्हे तालाबों में नहलाने  लेके जाया जाता था lवो दृश्य भी विनायक कों याद था जब दादा सा॰  रंग बिरंगे कागजों को बांस की खप्पचियों पर चिपका कर पतंग बनाते   थे । दादा सा बच्चों की फटी पतंगों पर भी  आटे की लेई से जगह जगह कागज के पेबन्द  चिपका  कर दालान में बांस की   चटाई  पर सुखाते भी थे lतभी विनायक की  तंद्रा टूटी जब उसे  देख कर मनफूल काकी सा॰ने हाथों की छत्तरी बना कर 
पहचाना और गदगदाई आवाज़ में  स्वागत करते हुए बोली --"अररे वीनू बचुवा. आई गवा तू । बबुवा तेरे ताऊ सा ,तो धोका दे गए रे ....आ  लल्ला आ .... कहती  हाथ का काम छोड़ उसको बांह से पकड़ खींचती सी विनायक को  झोंपड़ी के पिछवाडे   ले गयी जहां छप्परों वाला छोटा सा गोबर से लिपा पुता  सा रसोई घर था l वहाँ  झाझन का टाट लगा था lजमीन पर चूल्हे के पास घीसू काका सा की विधवा बहू बैठी
थी l॰विनायक को देख उसने हाथ जोड़ दिये , घूँघट जरा और खींचकर  छुई मुई सी अपने में  सिमट
गयी l विनायक ने वहीं कोने में रखी बाल्टी में लोटा डूबा हाथ मुंह धोये और घीसू काका सा ॰व मनफूल काकी सा॰से बोलता बतियाता रहा l ढाक की पतल में भात परोसा गया ,पीतल की कटोरी में अरहर की शोरबे वाली दाल ,कद्दू मिर्ची की तरकारी ,छाछ ,लापसी( मीठा गुड का दलिया) और साबुत छोटा सा कांदा  ...विनायक को एक पल को भी  हिचकिचाहट नहीं हुई ,खाना इतना स्वादिष्ट था कि आनंद आ गया  उसने चटकारे  ले ले कर खाया ,अमेरिका में जो खाया जाता है उसकी तो इस भोजन से कोई तुलना ही नहीं थी ...यह तो जैसे ईश्वर का प्रसाद था l संध्या को बाँस की खपरैल से घिरे छोटे से दालान में तीये की बैठक हुई । हंसली की शक्ल में लोग बैठे । बैठक ख़त्म हुई तो गाँव के बहुत से रिश्तेदार विनायक के इर्द गिर्द मधुमक्खियों से मँडराते रहे । कुछ रिश्तेदारों को विनायक पहचान पा रहा था , बाक़ी घीसू काका सा॰ परिचय दे रहे थे। विनायक काफी थक गया था, रात को निपट अंधेरा था पर चौकी पर लालटेन की ढिबरी उस अंधेरे को दूर कर रही थी । कुटिया के कोने में रखी चटाई पर विनायक लेट गया , जाने कब आँख लग गई ,कब भोर हो गयी उसे पता ही नहीं चला । इतनी सुकून भरी नींद बरसों बाद नसीब हुई थी।अब लौटने का वक़्त हो गया था । मनफूल काकी सा, की आँखों में आंसूं छलक आये थे। रूँधे  गले से बोलीं __"बबुआ आते रहिब !"  विनायक ने तुरन्त कहा- "ज़रूर काकी सा ,अब तो हर बरस चक्कर लगाउँगा. मेरा वादा रहा काकी सा.और हाँ  आप भी अपना और काका सा का ध्यान रखना।" घीसू काका सा ने भी अँगोछे से आँसू पोंछे । सारे रिश्तेदार कार को घेर कर खड़े थे। विनायक के माथे पर तिलक लगा कर उसके मुँह में गुड की डली देती घीसू काका की बेटी आचुकी जीजी भी रो रही थी । विनायक ने सब बड़ों के पैर छुए और जाने क्यों फूट फूट कर रो पड़ा ।शायद उसका मन  इस छोटी सी ठाणी की रस भरी आत्मीयता में डूब गया थाl गाँव की मीठी बासंती हवायें खेतों खलिहानो की ठंडी हवाओं में घुल कर विनायक को मानो  
कह रहीं थी कि  यहाँ का जीवन आज भी व्यावहारिक है शहरों की तरह औपचारिक और यांत्रिक नहीं है ।गाँवों ढाणियो में आज भी बाँस की खोखल से तराशी बांसुरी की मधुर रागिनी मन मोह लेती है। टैक्सी गाँव की कच्ची पगडंडी पर धूल उड़ाती दौड़ रही थी और ढाणी में हवाओं के साथ हरियाये बाँस की डालियाँ हिल हिल कर नत मस्तक होकर विनायक को  जल्दी वापस आने का स्नेह भरा आमन्त्रण दे रही
 थी ।  

7

ईंट की दीवार

गुलमोहर कॉलोनी में रहने वाले हरिहर बाबू और अलीखान बचपन के दोस्त थे lदोनों ने साथ जमीन खरीदी और  साथ ही यहाँ मकान बनवाया l ईद हो  होली या -दीवाली दोनों परिवार साथ मनाते थे l कॉलोनी वाले उनकी दोस्ती की मिसाल देते नहीं थकते  थे l समय गुजरता गया बच्चों की शादियाँ हो गयी ,पोते पोतियों से दौनो के घर आँगन भर गये  lफिर जाने क्या हुआ बच्चों के आपसी मतभेदो के  कारण दोनों दोस्तों की दूरियाँ भी बढ़ती गयी l प्यार वह अब भी करते थे पर अहम की दीवार भी बढ़ती जा रही थी   lघर बनाते समय दोनों परिवारों के घरों के बीच की बाउंडरी वाल पर दीवार नहीं खींची गयी थी , एक दिन कॉलोनी वालों ने देखा कि दोनों के घरों के बीच  ईंटों की दीवार पाटी जा रही हैl उस दिन न हरिहर बाबू ने ,न ही  अलीखान जी ने खाना खाया ! हरिहर बाबू तो सो भी नहीं पा रहे थे l अपने घर के बरामदे में बैठे थे ,बस एकटक खींची दीवार को देखते जा रहे थे, बाहर बज़ रही चौकीदार की लाठी की ठकठक से टूटते सन्नाटे में कभी कभी उनकी सिसकियाँ भी शामिल हो जाती थी !  
रात के करीब दो बजे हरिहर जी  जब अपने  कमरे में बैठे थे तो उन्हे ज़ोर से चीखने की आवाज़ सुनाई दी  ,श्रीमती अली की आवाज़ वे खूब पहचानते थे ,वे फुर्ती से उठे ,देखा मेंन गेट  पर ताला लगा है ,उन्होने आव देखा न ताव  फावड़ा 
उठाया और ईंट की आज ही बनी गीली दीवार पे ठोंकना शुरू कर दिया ! सीमेंट अभी गीला था इसलिये कुछ ईंटें तोड़ कर खिड़की सी बनाई  और  अलीखान के घर में प्रवेश किया  l  घर का दरवाजा खुला था ,अलीखान आँगन में गिरे पड़े थे l श्रीमती अलीखान पानी के छींटे देकर उन्हे होश में लाने की कोशिश कर रहीं थी ,हरिहर जी को देखते ही बोलीं-'देखों न भाईसाहब ,खान साहब को क्या हुआ है , अभी तो बाहर चहल चहलकदमी कर रहे थे ,फिर कुर्सी पर बैठ गए थे ,शायद नींद नहीं आ रही थी  l " 
हरिहर बाबू ने कहा --"चिंता मत करो भाभी जान अभी जगाता हूँ ,ओए नाटककार अली ,उठ देख दीवार गिर गयी है ,उठ जा यार ,कसंम खुदा की अब यह दीवार कभी नहीं उठने दूँगा "
अली खान ने भीगी पलकें उठा कर हरिहर बाबू को देखा और फफक पड़े,  फिर दोनों ने एक दूसरे को बाहों में भर कर प्यार की झप्पी ली l घरवालों ने उन्हे देर तक गले लग कर रोने दिया !  अगले दिन  कॉलोनीवालों ने देखा   ईंट की दीवार ढहा  दी गयी थी l

8
बालदिवस

 सुबह से ही स्नेह आश्रम में हलचल थीl बाहर लॉन में दरी बिछा दी गयी थी और सभी अनाथ बालिकाओं को पंक्तिबद्ध बिठा दिया गया था l राजरानी देवी की तरफ से बच्चों के लिए बाल दिवस के उपलक्ष्य में नाश्ता पानी का आयोजन था l उनकी तरफ से एक लम्बी मेज पर कलफ लगी चमचमाती सफ़ेद चादर पर खाने पीने की सामग्री सजा दी गयी थीl मिठाई के रंग बिरंगे डिब्बे ,फल समोसे ,नमकीन ,पीने के लिए जूस और एक एक जोड़ी परिधान वहां गुलदस्ते में सजे फूलों से शोभा बढा रहे थे !करीब नौ बजे चमचमाती टोयोटा कार आकर बाहर रुकी l कांजीवरम की साडी ,आँखों पर मैला काला चश्मा पहने राजरानी जी जब उतरीं तो बालिकाओं की आँखों में चमक आ गयी l सुबह से वो भूखीं थीं ,पेट में चूहे दौड़ रहे थे l आश्रम की बड़ी दीदी और सहयोगियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया l लॉन में लगी छतरी के 

नीचे उनकी कुर्सी लगा दी गईं थी l वे देर तक आश्रम  की जानकारी लेती रहीं, बीच बीच में साफ़ धुले वस्त्रों में बैठी बालिकाएं बड़े प्यार से उन्हें निहार रहीं थींl घडी की सुईयाँ टिक टिक करती आगे बढ़ रहीं थी l अब धूप लॉन की दिवार फांद बालिकाओं के ऊपर चमक रहीं थी l उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि माज़रा क्या है lसुबह छह बजे उन्हें उठा कर तैयार कर दिया गया था कि आठ बजे गरमागरम नाश्ता मिलेगा l तभी लालबत्ती वाली एक गाडी हॉर्न बजा भीड़ को हटाती आश्रम के  बाहर रुकी और उनके पीछे था कैमरों के साथ  मीडिया का उमड़ता सैलाब , आधे घंटे के स्वागत समारोह में बाल दिवस की महत्ता के भाषण के बाद जब राजरानी देवी मंत्री जी के साथ कैमरे के साथ विभिन्न फोटो खिंचवाती नाश्ता बाँट रहीं थी  तो दो चार बालिकाएं तो बेहोश होने जैसी स्थिति में पहुँच चुकी थी l कुछ  बालिकाओं की आँखों में एक प्रश्न जरुर चमक रहा था कि यह कैसा बाल दिवस है?अब  आश्रम की  किसी भी बालिका की आँखों  में उत्साह और जोश की चमक नहीं दिख रही थी !

9

"नशा !"

तुम  रोज यूँही पीकर आओगे तो सच कहती हूँ मैं घर छोड़ कर चली जाऊँगी  " श्यामली ने पति से कहा तो वह टहाका मार कर हंसा -

"कहाँ जायेगी पर ? रोटी कौन देगा ,तू तो दसवीं पास है ?"

"कहीं भी मजदूरी कर लूँगी पर तुम देख लो तुम्हें रोटी कौन देगा ?"

"हाँ हाँ ,जा.... कल की जाती , आज जा , रौब किसे दिखा रही है ?" वो पलंग पर धड़ाम से गिर कर सो गया


भोर हुई तो देखा दस बज़ गए हैं अब तक भी चाय नहीं मिली है ,वो चिल्लाया -"श्यामली चाय पिला न !"

पर कोई जवाब नहीं मिला ,अब उसका नशा पूरी तरह उड चुका था !

10

"सोने की नसरनी!"

"अरे कलमुही , बेटा   जनती तो हम भी सोने की नसरनी चढ़ते"  ( बेटा होने पर घर के बुजुर्गों को एक सीढ़ीनुमा  सोने की सीढ़ी पर अंगूठा छुआ कर आदर देने का फंक्शन कि वंश बढ़ा!)

   प्रसव के बाद लौटी बहू को ताना   देते हुए पड़दादी ने कहा तो उसकी आँखें भर आई ! पास ही खड़ी दादी ने मालिश करने आई दाई माँ को सुनाते हुए कहा --"अरी  भंवरी, सवा महीने की  पूजन के साथ एक फंक्शन और रखा है  पूरे मोहल्ले को न्योता देना है, आ लिस्ट बना लें !" 

" कैसा फंक्शन बीबीजी?" हथेली पर तम्बाकू  मसलती  भँवरी  ने  पूछा
" अरी   तीसरी पीढ़ी का प्रतित्निधित्व कर रही है मेरी पोती, क्या मोहेल्ले को लड्डू नहीं खिलाऊंगी?  बड़ी धाय को भी तो  सोने की नसरनी चढ़ा कर मान सम्मान दूँगी ना ! "बहू की आँखें फिर भर आयी, पर यह आंसूं ख़ुशी के थे, उन्होंने कृतज्ञता से सासू माँ की तरफ देखा, पड्दादी नि:शब्द  रह  अगले बगले झाँकने लगीं !

11.

डॉलघुकथा :
"करवा चौथ का चाँद !"
करवा चौथ का दिन था! चारों तरफ चहल पहल थी , आकाश बादलों से घिरा था ,चाँद निकलने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे ,आज सुबह से ही बूँदा बाँदी हो रही थी! कृष्ण निकुंज का दालान हर  साल की तरह इस वर्ष भी इस पर्व का आयोजन कर रहा था! इस निकुंज में दस फ्लैट थे,जिनमे सभी भारतीय परिवार के लोग थे !  बड़ा उल्लसित करने वाला नजारा रहता थाl सजी धजी महिलाओं के समवेत स्वर और खिलखिलाहट से दालान गुंजायमान हो उठता था ! करवे   और थाल से सजी थालियाँ लिए महिलाए बार बार आकाश को निहारतीं और उनके पति भी बैचैनी से इधर उधर डोलते रह रह कर घडी देखते अखबार के अनुसार इस ८.१० पर चाँद निकलने की संभावना थी ! डीजे   पे  चल रहा था..." आज है करवा चोथ सखी री... "ठुमके पे
थिरक रही महिलाओं में गज़ब का उत्साह था!
श्रीकान्त स्वामी जी भी इस निकुंज  के दूसरे  फ्लोर पे रहते थे उनकी बहू का पहला करवा चौथ था इसलिए उनकी दादी माँ कल्याणी देवी   विशेष रूप से गाँव से आयीं थीं , वह भी इस बदलते स्वरुप को एक कुर्सी पर  बैठी देख रहीं थीं !हैरान भी थी कि किसी भी घर से पकवान मठरी की खुशबू नहीं आ रही थी, सभी के पैकेट कैटरर ने बना दिए थे, कोई प्यासी नहीं थीं, सब कॉफ़ी कोक की चुस्कियां ले रहीं थीं ,अब पति कैसे पानी पिला के व्रत खोलेगे, कल्याणी देवी कुछ कुछ समझ नहीं पा  रहीं थीं ,लेकिन वे मुस्करा रहीं थीं ,उन्हें अपना गाँव भी याद आ रहा था ,जहाँ के हर घर से मठरी पूवे   की खुशबू आ रही होगी और वह हैरान सी सोच रहीं थीं  कि इस अवसर पर तो बादल इतने नहीं होते थे! प्रकृति ने भी रूप बदला है! तभी दूरदर्शन पर न्यूज़ रीडर ने  घोषणा की कि चाँद निकल आया है लेकिन बादलों के कारण बहुत से प्रदेशों में नज़र नहीं आएगा, आप चाहें तो हमारे मॉनिटर पर चाँद देख कर व्रत खोल सकतें  हैं ! फिर क्या था सभी ने टी॰वी॰ के चाँद को अर्क देकर सभी औपचारिकताए पूरी कर लीं थी , जिनके पति बाहर थे उन्होने लैपटाप पर फ़ेस टाइम कर लिया था और व्रत खोल लिया था .... इस बीच डीजे  के स्वर तेज हो गए थे  .. हंसी मज़ाक के साथ .खाने पीने का दौर चल रहा था ,सभी केटरर  के खाने का लुत्फ उठा रहे थे, श्री कान्त स्वामीजी  की दादी माँ कल्याणी देवी   का चाँद पर अभी नहीं निकला था, उनके पति  झाईं गाँव में सरपंच थे, किसी विशेष कार्य के कारण आ नहीं पाये थे  ,कल्याणी देवी को उनकी बहुत याद आ रही थी ,वो अपने पति की तस्वीर के सामने बैठी पूरी रात खिड़की के पास खड़ी अपने गाँव वहाँ की परम्पराएँ पुए- पूड़ी कि खुशबू के बारे में सोचती रहीं थीं और आकाश पर दिखने वाले चौथ के चाँद का इंतज़ार करती रहीं थीं ! 
डॉ सरस्वती माथुर
ए  -2 ,सिविल लाइंस
जयपुर -6
023EAD87-3826-449C-B318-571F4948B850 सरस्वती माथुर 

ए-2 ,सिविल लाइंस ...जयपुर-6 

संक्षिप्त परिचय
नाम : डॉ सरस्वती माथुर
 :शिक्षाविद , कवयित्री,लेखिका सोशल एक्टिविस्ट
 शिक्षा : एम.एस .सी (प्राणिशास्त्र ) पीएच .डी
,पी. जी .डिप्लोमा इन जर्नालिस्म ( गोल्ड मेडलिस्ट )
प्रकाशन
कृतियाँ :
काव्य संग्रह : एक यात्रा के बाद
                     मेरी अभिव्यक्तियाँ
,
साझा संकलन में कहानी कवितायें ,लघुकथाएँ व हाइकु  शामिल

मोनोग्राम : राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी : मोनोग्राम हरिदेव जोशी
विज्ञान :
 जैवप्रोधोयोगिकी 
( Biotechnology पुरस्कार /सम्मान :
प्राप्त पुरस्कार / सम्मान: दिल्ली प्रेस द्वारा १९७० में कहानी " बुढ़ापा "पुरस्कृत एवं अन्य पुरस्कार

भारतीय साहित्य संस्थान म.प्र .द्वारा काव्य में बेस्ट कविता के लिये
Felicitation & अवार्ड given by Association ऑफ़ : डिस्ट्रिक्ट झालावाड द्वारा साहित्य में योगदान के लिये ! जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल 13 में कवितानामा  सत्र में  भागीदारी

विगत कई वर्षों से निरंतर लेखन। कविता,कहानी,हाइकु ,सेदोका ,तांका ,माहिया ,आदि विधाओं   में लेखन  पत्रकारिता, समीक्षा, फ़ीचर लेखन के साथ-साथ समाज साहित्य एवं संस्कृति पर देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं धर्मयुग ,साप्ताहिक हिन्दुस्तान्न ,कादंबिनी ,अहा जिंदगी ,मेरी सहेली ,वामा , मधुमती जैसी पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ! राजस्थान पत्रिका ,नवभारत टाइम्स ,दैनिक भास्कर ,हिंदुस्तान ,डैली न्यूज़ दैनिक नवज्योति  ,जनसत्ता आदि आदि स्तरीय न्यूज़पेपर में कवितायें ,कहानियाँ ,व आलेखो का निरंतर प्रकाशन !
शिक्षा व सामाजिक सरोकारों में योगदान, साहित्यिक गोष्ठियों व सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी, विभिन्न साहित्यिक एवं शिक्षा संस्थाओं से संबद्ध, ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया राजस्थान चैप्टर की सदस्य व पूर्व उपाध्यक्ष , गिल्ड ऑफ वुमेन अचिवमेंट की राजस्थान की प्रतिनिधि l इनर व्हील ,लायनेस क्लूब की पूर्व सचिव व रोटरी क्लब जयपुर सेंट्रल की पत्रिका की संपादिका व रोटरी क्लब डिस्ट्रिक्ट 305 की पत्रिका जीएमएल की  पूर्व वाइस चेयरमैंन पब्लिकेशन  
दूरदर्शन व आकाशवाणी  से निरंतर रचनाओं का प्रसारण  व सक्रिय भागीदारी
विभिन्न देशों  यू एस ए ,कनाडा ,लंदन ,केमेन आईलेंड में संस्कृति के  अध्ययन के लिए  अनेक बार भ्रमण !

संपर्क:
नाम : डॉ सरस्वती माथुर
ए---२ , हवा सड़क ,सिविल लाइन ,जयपुर-६
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.नाम : डॉ सरस्वती माथुर
प्राचार्य
ऍम .एस.सी ,पी .एच. डी)
जन्मतिथि: 5 अगस्त
शिक्षाविद एवम सोशल एक्टिविस्ट
साहित्य :देश की साहित्यिक पत्रिकाओं में कवितायेँ ,कहानियां ,आलेख एवम नये नारी सरोकारों पर प्रकाशन
प्रकाशन ४ कृतियाँ प्रकाशित
संपर्क :ए -२ ,सिविल लाइन
जयपुर विगत कई वर्षों से निरंतर लेखन। कविता, कहानी, पत्रकारिता, समीक्षा, फ़ीचर लेखन के साथ-साथ समाज साहित्य एवं संस्कृति पर देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
शिक्षा व सामाजिक सरोकारों में योगदान, साहित्यिक गोष्ठियों व सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी, विभिन्न साहित्यिक एवं शिक्षा संस्थाओं से संबद्ध, ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया राजस्थान चैप्टर की सदस्य।

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