हमारी भारतीयसंस्कृति सम्पूर्ण जीव जंतुओं -पशु पक्षियों और वृक्षों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण
घटक मानती है l उनमें से भी कुछ पशु और पक्षी ऐसे हैं जिनके नहीं होने से मानव अस्तित्व भी संकट में आ सकता है !भारत के सांस्कृतिक जीवन में पशु पक्षी प्राचीन काल से ही प्रासंगिक रहे हैंl रामायण व महाभारत काल में तो इन पशु पक्षियों ने हमारे अवतारों और देवताओं के साथ सामाजिक सरोकारों में भी अपनी भूमिका समय समय पर निभाई है lयही कारण है कि हुमारे धार्मिक ,सामाजिक व सांस्कृतिक साहित्य में जीव -जन्तु स्वेच्छा से तएहलते नज़र आते हैं ! वैदिक साहित्य तक में जंतुओं ,पौधों ,तथा तथा प्राकृतिक घटनाओं का वर्णन है !वेद ,रामायण ,महाभारत ,उपनिषद तथा अर्थशास्त्र (350 बी॰ सी )आदि भारतीय ग्रन्थों से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को भी जीव विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था lहमारे साहित्यकारोंऔर हाइकुकारों ने भी विशेष रूप से अपनी रचनाओं में जीव जंतुओं कीट पतंगों व पक्षियों का परिवेश और ऋतु के अनुसार विशेष रूप से उल्लेख किया है और उनके महत्व को दर्शाया है !
हाइकु विधा का सौंद्रर्य ही यह है कि वह अत्यंत संक्षिप्त ,सीधी ,सादी ,सुकुमार और शुद्ध होती है l17 पंक्तियों में 5+7+5 के शैली क्रम में पशु पक्षियों ,जीव जंतुओं का बिम्ब विधान ,भावों और अनुभूतियों के चित्र व कथ्य के रूप में दिखाने में हाइकुकार पूर्ण सफल रहें हैं lइसलिये साहित्य में अन्य विधाओं के साथ हाइकु का विशेष स्थान है lजीव जंतुओं और पशु पक्षियों को लेकर कई हाइकुकारों ने सुंदर हाइकु लिख कर प्रकृति और परिवेश के यथार्थ परक प्रतिकात्मक चित्र उकेरे हैं lउदाहरण स्वरूप कतिपय हाइकुओं को देखा जा सकता है -
1॰काठ के घोड़े /चलता तन कर /माटी सवार ---सुधा गुप्ता
2.मेघों के हाथी /चिंघाड़ टकराए /अंबर कांपे ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
3.बांध के बोरे /लाता है धो कर /हवा का घोडा ---जगदीश व्योम
4॰मन दहाड़ा /जंगल के शेर सा /गूंज के लौटा ---डॉ सरस्वती माथुर
जैसा युग है /गधे निकल भागे /घोड़ों से आगे ---डॉ सुधेश
*हाइकुकारों ने जलचर ,थलचर ,व नभचर पशु पक्षियों -जीव जंतुओं का विषाद एवं प्रासंगिक वर्णन अपने हाइकुओं में किया है lकुछ उदाहरण यहाँ प्रासंगिक होंगें-
गंदला पानी /रो रही मछलियाँ /जाएँ कहाँ ---हरदीप संधू
किसी की याद /फिर फड़फड़ाई /छाती में फाख्ता ---सुधा गुप्ता
चौराहों पर /घूमता सांड जैसा /बेखौफ डर ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
डर के कांपे / जंगल की आग में /घिरा शावक ---भावना कुँवर
उछल रहेबादल खरगोशआसमान में---डॉ सतीश दुबे
वोट जाल में /मछ्ली सी जनता /सदा फंसी ---सुभाष नीरव
ये तमाम हाइकु परिपक्वता और अग्रगामी दृष्टि की कसौटी पर खरे उतरते हैं l
कुछ और उदाहरण देखें ---
कुतर रहे हैं /संविधान /संसदी चूहे ---डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नीला कालीन /चर गए शशक /दूब के धोके---डॉ सुधा गुप्ता
दौड़ लगाए /धूप के खरगोश /हाथ न आयें ---भावना कुँवर
सूर्यके घोड़े /घाम के विरोध में /अड के खड़े /---उमेश महादोषी
जूठी पतल /कुतों को भगाता रे /बाल- कंकाल ---आदित्य प्रसाद
उन का गोला/ जागा ,भगा सहसा /अरे शशक---आदित्य प्रसाद सिंह
उछल रहे/बादल खरगोश/आसमान में---डॉ सतीश दुबे
खटका द्वार / थरथराता पिल्ला / माँगता ताप ... पुष्पा मेहरा
यदि हम प्राचीन काल में झाँकें तो एक तस्वीर की तरह हमारीआँखों में निर्भीक विचरण करते वन प्राणी उतर आते हैं lजंगल में किलोलें करती चिड़ियायेँ ,गिलहरियाँ ,दौड़ लगाते शावक -खरगोश ,शशक ,बादलों को निहारते नाचते मयूर व ,चौकड़ियाँ भरते मृग ,हिरण ,कस्तूरी मृग ,रात में उडते चमकीले जुगुनू ,पतंगे व उल्लू ,विभिन्न प्रकार के पंछी ।परिंदे ,रंग बीरेंगी चिडियाएँ,तोते व मैना चहकती बुलबुल ,फाख्ता ,पीक व पपीहे व मीठे स्वर में कूकती कोयल कोकिला , बाग बगीचों में मँडराते भोंरे -तितलियाँ व मधमाखियाँ,आस पास उड़ती मच्छर -मख्खी आदि जीव जन्तु प्रकृति के आँचल में स्वछन्द घूमते नज़र आते हैं lइन सभी जीव जंतुओं को हाइकुकारों ने बहुत सुंदर भावों से चित्रित किया है lविशेष रूप से चिड़िया ,पंछी -परिंदे,बुलबुल,फाख्ता व गौरैया के विभिन्न रूपों में
बड़े ही रसमय तरीके से उकेर कर हाइकुकारों ने अपनी कल्पना का तथ्यात्मक सा परिचय दिया है जो जीवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है l
यह जिंदगी /पंखनुची चिड़िया /फडफड़ाती ...डॉ सावित्री डागा
गुलाब खिला /चहकी बुलबुल/नशे ने छुआ ---डॉ सुधा गुप्ता
पपीहा दिन /और चकवी रातें /काटे न काटें ---डॉ सुधा गुप्ता
शेफाली हंसी/ बगिया जो महकी/ सी/मैना चहकी ---डॉ सुधा गुप्ता
शब्द बुनती /पहाड़ी बुलबुल/गीतकार सी ---डॉ सरस्वती माथुर
सुनाती -गान /गा रही बुलबुल /कहे श्री प्रभु ---पुष्पा मेहरा
आँख बाज़ की /झपट है चील की /कौन बचेगा ?...डॉ सुधेश
*बसंत ऋतु के समय आम की अमराईयों में तथा अन्यत्र वृक्षों पर बैठी कोयल अपनी मीठी कूकसे सबका ध्यान आकर्षित कर लेती है ! वह पौ फटते ही गाने लगती है तब प्रभात बहुत सुहावना लगता है !कोयल अपनी मीठी बोली से सबको आकर्षित कर लेती है !इसमें कोयल की मीठी बोली के माध्यम से सदा मीठे वचन बोलने पर भी बल दिया गया है lवहीं कौओं को भी वैज्ञानिक एक विस्मयकारक पक्षी मानते हैं । इनमें इतनी विविधता पाई जाती है कि इस पर एक 'कागशास्त्र' की भी रचना की गई है। योग वशिष्ठ में काक भुसुंडी की चर्चा है, रामायण में भी सीता के पांव पर कौवे के चोंच मारने का प्रसंग आया है।कौवे अपनी चतुराई दिखाने में लाजवाब होते हैं।कोयल की मीठी तो काक की कर्कश ध्वनि होती है वह 'काँव-काँव' करता है।पूर्वी एशिया में कौवों को किस्मत से जोड़ा जाता है तो अपने यहाँ मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है। भारत में हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। कौए व कोयल के प्रति सहज लगाव को हाइकुकारों ने अपने शब्दों से निखारा है और मनोरम छवि शब्द उकेरे हैं उनकी कल्पना के बिम्ब यहाँ देखें --
कोयल कूके /अमराई हुलसे /आया है कंत---पुष्पा मेहरा
सिमटे वन /बांझ अमराईयाँ/कोकिल मौन सुनीता अग्रवाल
अहो बसंत अमराई में गूँजे कोकिला स्वर ---सुनीता अग्रवाल
कोयल गाये/ घायल मन मेरा/ सुन न पाये ---चंद्रबली शर्मा
कौयल बोली /यादों के देवदार/ हिले न डुले ---चंद्रबलीशर्मा मोर नाचते /
कोयल है बाँचती /रची मेहंदी शशांक मिश्र भारती खुशबू फैली /
बही बौरीली हवा कोयल कूकू ---सुदर्शन रत्नाकर
बंजारे कागा /नीड़ बुनूँ प्यार के/ छोड़ो बैराग ---डॉ नूतन गैरोला
लगती प्यारी/ कौवे की कांव -कांव/बोले अटारी रेखा रोहतगी
*मोर भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखते हैं।यह एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षी पंख फैला कर नाचता है तो ऐसा लगता मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हुई हो। इसीलिए इसे पक्षियों का राजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही प्रकृति ने इसके सिर पर ताज जैसी कलंगी लगाई है। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही-इसे राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा दिया गया है !संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है। मोर भारत तथा श्रीलंका में बहुतायत में पाया जाता है। मोर मूलतः वन्य पक्षी है, लेकिन भोजन की तलाश इसे कई बार मानव-आबादी तक ले आती है।मोर प्रारंभ से ही मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहा है। अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। महाकवि कालिदास ने महाकाव्य ‘मेघदूत’ में मोर को राष्ट्रीय पक्षी से भी अधिक ऊँचा स्थान दिया है। राजा-महाराजाओं को भी मोर बहुत पसंद रहा है। मेघों को देख कर मयूर के पैरों में स्वाभाविक थिरकन आ जाती है और इनके कोलाहल से दिशाएँ मुखरित हो जाती हैं ! मोर मोरनी का नृत्य आनंदित कर देता है
फूले बादाम /हरे तोतों के दल /भूले आराम ---डॉ कुँवर दिनेश सिंह
बड़े सवेरे /उठ जाती चिड़िया /कौन जगाता ---रमाकांत श्रीवास्तव
भाई अंगना /बहन चुगे दाना /बन गौरैया ...रचना श्रीवास्तव
धूप चिड़िया /सिमट कर बैठी /ठंड जो आई ---रचना श्रीवास्तव
पेटू चिड़िया /कुतर के ले गयी/ नन्ही कलियाँ ---भावना कुँवर
पपीहारा गा /और और बना रे /एकाकी मुझे ---आदित्य प्रसाद
चिड़िया तोते /ओटे छिपी मूरत /चहकी यादें ---चन्द्रबली शर्मा
हौंसला जिंदा /समंदर को लांघे /नन्हा परिंदा ---कृष्ण वर्मा
उजाला हुआ /चहकती चिड़िया /बजे संगीत ---ज्योत्सना शर्मा
हंसों की पांत/उड़ रही आकाश/मौसम साफ---डॉ सतीश दुबे
अकेला हंस /उड़ चला आकाश/दुनिया छोड़ ...डॉ सतीश दुबे
ऊंचा आकाश /तैरती है चील-सी /कल्पना मेरी ---डॉ रंजना भालचंदर अरगड़े
पीकर विष/ही बनाता है कोई /नीलकंठ सा ---रूपचंद उपाध्याय
दुनिया छोड़ । /उड़ान परी ---डॉ सुधा गुप्ता
जुगनू जो रात में सितारों की तरह टिमटिमाते हैं। रात के समय जुगनू लगातार नहीं चमकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल पर कुछ समय के लिए चमकते और बुझते रहते हैं। इसी रोशनी का इस्तेमाल ये अपना भोजन तलाशने में भी करते हैं। इनमें खास बात ये है कि मादा जुगनू के पंख नहीं होते, इसलिए वह एक जगह बैठी ही चमकती है, जबकि नर जुगनू उड़ते हुए भी चमकते हैं। यही एक कारण है, जिससे इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।
पावस रात /पिकनिक मनाते /नाचे जुगनू ---डॉ भगवत शरण अग्रवाल
मिलके जले /जलके मिटा देंगे /सारा अंधेरा ---शोभा रस्तोगी 'शोभा '
स्मृतियाँ मेरी /विरह- रजनी में /जुगनू बनी ---शोभा रस्तोगी 'शोभा '
प्रेम -जुगुनू /भावों की बाती जला /रोशन हुआ ---डॉ सरस्वती माथुर
राह दिखाओ /अरे ओ जुगनुओं /रात है काली ---डॉ सुषमा सिंह
जुगनू दीप /टिमटिम करते /स्वप्न सज़े हैं ---भावना सक्सेना
रिश्तों की संध्या /जुगनू सी चमकी /रही दमकी ---कुमुद बंसल
रंग बिरंगे फूलों के साथ रहने वाली तितलियाँ भी बहुत सुंदर होती है तितलियाँ कई
तरह की और कई आकार की होती हैं रंगीन तितलियाँ सूर्य के आगमन से पलायन तक निरंतर
फूलों पर मंडराती है ,इन्हे और रंगीन बनाती है lप्रकृति के सारे रंगों की तितलियाँ
जाने कहाँ से सँजो कर लाती हैं किइंद्रधनुष भी फीका पड़ता है lअलग अलग रंग लिए कहीं
पलाश के जैसे रंग की लाली ,कहीं अंबर सी नीली ,कहीं सरसों सी पीली ,फूलों को
चूमती ,डाल डाल पर उड़ती,इठला कर झूमती हाइकुकारों को मोह लेती हैं l
फूल- पंखुरी /तितली के पंख सी /नाज़ुक दोस्ती ---हरदीप कौर सिंधु
अनूठे रंग /तितलियाँ उड़ती /हवा के संग ---डॉ सुधा गुप्ता
तितली-दल/कपोल चूम /दग्ध पलाश ---पुष्पा मेहरा
तितली उडी /चुराये जो पराग/बिखेरे कहाँ ---श्याम खरे
तितली दल/ खोल डाले किसने रंगों के नल ---डॉ भावना कुँअर
नन्ही तितली /खेले आँख मिचौली /कमाल संग ---डॉ भावना कुँअर
नन्ही तितली /बुरी फंसीजाल में /नोंच ली गयी ---डॉ भावना कुँअर
सुंदर स्वप्न /तितली बन उड़े /मधुबन में---शशि पुरवार
भँवरे काले रंग का उड़नेवाला एक पतंगा जो फूलों पर मँडराता और उसका रस चूसता है। इसके छः पैर, दो पर और दो मूँछें होती हैं।
खिले पलाश /तितली ओ भँवरे /मन उल्लास ---हरकीरत हीर
हाइकु कारो ने जुगनुओं के मनोरम दृश्य चित्रित किए हैं ॥
*सच कहते हैं कि हाइकु सृष्टि सौंदर्य का अनुभव कराती है lहाइकु का क्षेत्र असीम है lहाइकुकार किसी भी दृश्य या सरोकार पर हाइकु रच सकता है l धरती का विशाल आँगन हो ,प्रकृति का विस्तृतरूप हो ,चंद को एकटक निहारता चकोर हो ,वर्षा मे पातों पे रेंगती मखमली वीरबहूटी हो,झींगुर की आवाज़ हो या टर्र टर्र करता दादुर - मेंढ़क - मछलियाँ या जलपाखी हों या सागर किनारे की रेत पर बिखरे सीपी शंख हों 1 कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं--
ख्वाब उगा है /आँखों के नभ पर /नींद चकोर ---डॉ सरस्वती माथुर
कुशल पूछे/ वीर बहूटी भेज/ मेघ धरा की --डॉ दया कृष्ण विजयवेर्गीय 'विजय'
बरखा- रानी ले आई नव आस/ दादुर राग --डॉ क्रांति कुमार
दादुर तेरा /बरसी जो बदली /मन मयूरा ---डॉ ज्योत्सना शर्मा
वर्षा की साँझ /बजाते शहनाई /छिपे झींगुर ---रमाकान्त श्रीवास्तव
मौसम आया / मेंढक की छुपी ने /अर्थ बताया ---डॉ सरस्वती माथुर
सीपी में मोती वस्तुत: मोलस्क जाति के एक प्राणी द्वारा क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनता है।
हाइकुकारों ने उन्हे भी शब्दों में बांधा है ...कतिपय उदाहरण प्रासंगिक होंगे ---
यादों के मोती /समेत न सका /सीप दिल ल सावित्री चंद्र
1
*ज्योतिष शास्त्र कि बारह राशियाँ आज भी पशुओं के नाम पर हैं तो सूअर की पृथ्वी की रक्षा के लिए वराह अवतार के रूप में मान्यता है lइसके अलावा श्राद्ध पक्ष में कौवेऔर चीलों को भोजन करवाना ,कुत्ते को रोटी डालना ,कबूतर को दाना डालना ,बंदरों को गुड चना खिलाना ,चिड़िया के लिए परिंड़ा बनाना ,तोते पालना और चींटी को चुगगा आटा डालना ,वन सोमवार मनाना आदि परम्पराएँ हमारे पशु प्रेम को दर्शाती हैं l
*भारतीय पुराणो में सर्प को एक लाभप्रद जीव माना गया है जो अपना फन फैला कर जैविकसुरक्षा प्रदान करता और नागपंचमी पर पूजा जाता है हमारे यहाँ तो बाकायदा मेलों में पशु मेला लगाए जाने की परंपरा भी है !ऊंट घोडा ,गधे ,बकरी आदि सभी लोकजीवन में महत्व रखते हैं lवैज्ञानिक रूप से भी देखें तो इन जीव जंतुओं की प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में विशेष भूमिका है यही कारण है कि इनके संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ गयी है lयह जीव जन्तु रहेंगे तो हमारी लोकसंस्कृति रहेगी और यदि संस्कृति को जीवित रखना है तो वन्य जीवों के संरक्षण को हमनें अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बनाना होगा lयदि हमने जीव जंतुओं की सुरक्षा नहीं की तो हम प्रकृति की अमूल्य धरोवर से सदेव के लिए वंचित रेह जाएँगे !
डॉ सरस्वती माथुर
1
पुष्पा मेहरा
सुहानी भोर
सुनीता अग्रवाल
हमारी भारतीयसंस्कृति सम्पूर्ण जीव जंतुओं -पशु पक्षियों और वृक्षों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण
नीड़ मुखर /किलक रहे चूज़े /बहा निर्झर ---रामेश्वर कंबोज'हिमांशु '
कोयल गाये /महके कचनार/झूमें बयार -डॉ -भावना कुँवर
टिहुक लाल / फूले पलाश पर /कौओं के झुंड.... डॉ सुधा गुप्ता
शाम की बेला /चिड़ियों के झुंड का /र्रेलमपेला ...डॉ दिनेश सिंह
फुदके पक्षी /हरी हुई शाखाएँ /वर्षा जो आई ---सुदर्शन रत्नाकर
उमंग भरी/शाखों पे अकेला हंस उड़/ चला आकाश... डॉ सतीश दुबे
रंग बिरंगे फूलों के साथ रहने वाली तितलियाँ भी बहुत सुंदर होती है तितलियाँ कई
तरह की और कई आकार की होती हैं रंगीन तितलियाँ सूर्य के आगमन से पलायन तक निरंतर
फूलों पर मंडराती है ,इन्हे और रंगीन बनाती है lप्रकृति के सारे रंगों की तितलियाँ
जाने कहाँ से सँजो कर लाती हैं किइंद्रधनुष भी फीका पड़ता है lअलग अलग रंग लिए कहीं
पलाश के जैसे रंग की लाली ,कहीं अंबर सी नीली ,कहीं सरसों सी पीली ,फूलों को
चूमती ,डाल डाल पर उड़ती,इठला कर झूमती हाइकुकारों को मोह लेती हैं l
हाइकु कारो ने जुगनुओं के मनोरम दृश्य चित्रित किए हैं ॥
*भारतीय इतिहास में दर्शन और भोजन दोनों दृष्टि से शुभ और श्रेष्ठ मानी जाने
वाली मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित है तथा जलीय पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली
की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कथन अपने में पर्याप्त बल रखता है जिस पानी
में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है।
वैज्ञानिकों द्वारा मछली को बायोइंडीकेटर माना गया है। विभिन्न जलस्रोतों में चाहे
तीव्र अथवा मन्द गति से प्रवाहित होने वाली नदियां हो, चाहे प्राकृतिक झीलें, तालाब
अथवा मानव-निर्मित बड़े या मध्यम आकार के जलाशय, सभी के पर्यावरण का यदि सूक्ष्म
अध्ययन किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि पानी और मछली दोनों एक दूसरे से काफी
जुड़े हुए हैं। पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की विशेष उपयोगिता है।कुछ हाइकु
देखें --
*हम सभी ने देखा है किअनेक पर्व त्योहारों पर पशु पक्षियों कि पूजा करना हमारी
परम्पराओं का हिस्सा है बैल (नंदी )का शिव के साथ ,लक्ष्मी का
हाथी के साथ चूहे का गणेश जी के, दुर्गा का सिंह
सरस्वती का मोर ,हिरण का ब्रह्म के साथव कृष्ण जी का गाय के साथ
पौराणिक संबंध देखा जा सकता है l
सुनीता अग्रवाल
हमारी भारतीयसंस्कृति सम्पूर्ण जीव जंतुओं -पशु पक्षियों और वृक्षों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण
नीड़ मुखर /किलक रहे चूज़े /बहा निर्झर ---रामेश्वर कंबोज'हिमांशु '
कोयल गाये /महके कचनार/झूमें बयार -डॉ -भावना कुँवर
टिहुक लाल / फूले पलाश पर /कौओं के झुंड.... डॉ सुधा गुप्ता
शाम की बेला /चिड़ियों के झुंड का /र्रेलमपेला ...डॉ दिनेश सिंह
फुदके पक्षी /हरी हुई शाखाएँ /वर्षा जो आई ---सुदर्शन रत्नाकर
उमंग भरी/शाखों पे अकेला हंस उड़/ चला आकाश... डॉ सतीश दुबे
रंग बिरंगे फूलों के साथ रहने वाली तितलियाँ भी बहुत सुंदर होती है तितलियाँ कई
तरह की और कई आकार की होती हैं रंगीन तितलियाँ सूर्य के आगमन से पलायन तक निरंतर
फूलों पर मंडराती है ,इन्हे और रंगीन बनाती है lप्रकृति के सारे रंगों की तितलियाँ
जाने कहाँ से सँजो कर लाती हैं किइंद्रधनुष भी फीका पड़ता है lअलग अलग रंग लिए कहीं
पलाश के जैसे रंग की लाली ,कहीं अंबर सी नीली ,कहीं सरसों सी पीली ,फूलों को
चूमती ,डाल डाल पर उड़ती,इठला कर झूमती हाइकुकारों को मोह लेती हैं l
हाइकु कारो ने जुगनुओं के मनोरम दृश्य चित्रित किए हैं ॥
*भारतीय इतिहास में दर्शन और भोजन दोनों दृष्टि से शुभ और श्रेष्ठ मानी जाने
वाली मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित है तथा जलीय पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली
की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कथन अपने में पर्याप्त बल रखता है जिस पानी
में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है।
वैज्ञानिकों द्वारा मछली को बायोइंडीकेटर माना गया है। विभिन्न जलस्रोतों में चाहे
तीव्र अथवा मन्द गति से प्रवाहित होने वाली नदियां हो, चाहे प्राकृतिक झीलें, तालाब
अथवा मानव-निर्मित बड़े या मध्यम आकार के जलाशय, सभी के पर्यावरण का यदि सूक्ष्म
अध्ययन किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि पानी और मछली दोनों एक दूसरे से काफी
जुड़े हुए हैं। पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की विशेष उपयोगिता है।कुछ हाइकु
देखें --
*हम सभी ने देखा है किअनेक पर्व त्योहारों पर पशु पक्षियों कि पूजा करना हमारी
परम्पराओं का हिस्सा है बैल (नंदी )का शिव के साथ ,लक्ष्मी का
हाथी के साथ चूहे का गणेश जी के, दुर्गा का सिंह
सरस्वती का मोर ,हिरण का ब्रह्म के साथव कृष्ण जी का गाय के साथ
पौराणिक संबंध देखा जा सकता है l
सुनीता अग्रवाल
1
घटक मानती है l उनमें से भी कुछ पशु और पक्षी ऐसे हैं जिनके नहीं होने से मानव अस्तित्व भी संकट में आ सकता है !भारत के सांस्कृतिक जीवन में पशु पक्षी प्राचीन काल से ही प्रासंगिक रहे हैंl रामायण व महाभारत काल में तो इन पशु पक्षियों ने हमारे अवतारों और देवताओं के साथ सामाजिक सरोकारों में भी अपनी भूमिका समय समय पर निभाई है lयही कारण है कि हुमारे धार्मिक ,सामाजिक व सांस्कृतिक साहित्य में जीव -जन्तु स्वेच्छा से तएहलते नज़र आते हैं ! वैदिक साहित्य तक में जंतुओं ,पौधों ,तथा तथा प्राकृतिक घटनाओं का वर्णन है !वेद ,रामायण ,महाभारत ,उपनिषद तथा अर्थशास्त्र (350 बी॰ सी )आदि भारतीय ग्रन्थों से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को भी जीव विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था lहमारे साहित्यकारोंऔर हाइकुकारों ने भी विशेष रूप से अपनी रचनाओं में जीव जंतुओं कीट पतंगों व पक्षियों का परिवेश और ऋतु के अनुसार विशेष रूप से उल्लेख किया है और उनके महत्व को दर्शाया है !
हाइकु विधा का सौंद्रर्य ही यह है कि वह अत्यंत संक्षिप्त ,सीधी ,सादी ,सुकुमार और शुद्ध होती है l17 पंक्तियों में 5+7+5 के शैली क्रम में पशु पक्षियों ,जीव जंतुओं का बिम्ब विधान ,भावों और अनुभूतियों के चित्र व कथ्य के रूप में दिखाने में हाइकुकार पूर्ण सफल रहें हैं lइसलिये साहित्य में अन्य विधाओं के साथ हाइकु का विशेष स्थान है lजीव जंतुओं और पशु पक्षियों को लेकर कई हाइकुकारों ने सुंदर हाइकु लिख कर प्रकृति और परिवेश के यथार्थ परक प्रतिकात्मक चित्र उकेरे हैं lउदाहरण स्वरूप कतिपय हाइकुओं को देखा जा सकता है -
1॰काठ के घोड़े /चलता तन कर /माटी सवार ---सुधा गुप्ता
2.मेघों के हाथी /चिंघाड़ टकराए /अंबर कांपे ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
3.बांध के बोरे /लाता है धो कर /हवा का घोडा ---जगदीश व्योम
4॰मन दहाड़ा /जंगल के शेर सा /गूंज के लौटा ---डॉ सरस्वती माथुर
जैसा युग है /गधे निकल भागे /घोड़ों से आगे ---डॉ सुधेश
*हाइकुकारों ने जलचर ,थलचर ,व नभचर पशु पक्षियों -जीव जंतुओं का विषाद एवं प्रासंगिक वर्णन अपने हाइकुओं में किया है lकुछ उदाहरण यहाँ प्रासंगिक होंगें-
गंदला पानी /रो रही मछलियाँ /जाएँ कहाँ ---हरदीप संधू
किसी की याद /फिर फड़फड़ाई /छाती में फाख्ता ---सुधा गुप्ता
चौराहों पर /घूमता सांड जैसा /बेखौफ डर ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
डर के कांपे / जंगल की आग में /घिरा शावक ---भावना कुँवर
उछल रहेबादल खरगोशआसमान में---डॉ सतीश दुबे
वोट जाल में /मछ्ली सी जनता /सदा फंसी ---सुभाष नीरव
ये तमाम हाइकु परिपक्वता और अग्रगामी दृष्टि की कसौटी पर खरे उतरते हैं l
कुछ और उदाहरण देखें ---
कुतर रहे हैं /संविधान /संसदी चूहे ---डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नीला कालीन /चर गए शशक /दूब के धोके---डॉ सुधा गुप्ता
दौड़ लगाए /धूप के खरगोश /हाथ न आयें ---भावना कुँवर
सूर्यके घोड़े /घाम के विरोध में /अड के खड़े /---उमेश महादोषी
जूठी पतल /कुतों को भगाता रे /बाल- कंकाल ---आदित्य प्रसाद
उन का गोला/ जागा ,भगा सहसा /अरे शशक---आदित्य प्रसाद सिंह
उछल रहे/बादल खरगोश/आसमान में---डॉ सतीश दुबे
खटका द्वार / थरथराता पिल्ला / माँगता ताप ... पुष्पा मेहरा
यदि हम प्राचीन काल में झाँकें तो एक तस्वीर की तरह हमारीआँखों में निर्भीक विचरण करते वन प्राणी उतर आते हैं lजंगल में किलोलें करती चिड़ियायेँ ,गिलहरियाँ ,दौड़ लगाते शावक -खरगोश ,शशक ,बादलों को निहारते नाचते मयूर व ,चौकड़ियाँ भरते मृग ,हिरण ,कस्तूरी मृग ,रात में उडते चमकीले जुगुनू ,पतंगे व उल्लू ,विभिन्न प्रकार के पंछी ।परिंदे ,रंग बीरेंगी चिडियाएँ,तोते व मैना चहकती बुलबुल ,फाख्ता ,पीक व पपीहे व मीठे स्वर में कूकती कोयल कोकिला , बाग बगीचों में मँडराते भोंरे -तितलियाँ व मधमाखियाँ,आस पास उड़ती मच्छर -मख्खी आदि जीव जन्तु प्रकृति के आँचल में स्वछन्द घूमते नज़र आते हैं lइन सभी जीव जंतुओं को हाइकुकारों ने बहुत सुंदर भावों से चित्रित किया है lविशेष रूप से चिड़िया ,पंछी -परिंदे,बुलबुल,फाख्ता व गौरैया के विभिन्न रूपों में
बड़े ही रसमय तरीके से उकेर कर हाइकुकारों ने अपनी कल्पना का तथ्यात्मक सा परिचय दिया है जो जीवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है l
यह जिंदगी /पंखनुची चिड़िया /फडफड़ाती ...डॉ सावित्री डागा
गुलाब खिला /चहकी बुलबुल/नशे ने छुआ ---डॉ सुधा गुप्ता
पपीहा दिन /और चकवी रातें /काटे न काटें ---डॉ सुधा गुप्ता
शेफाली हंसी/ बगिया जो महकी/ सी/मैना चहकी ---डॉ सुधा गुप्ता
yaadenyaadenpakheruडरें दुबके नीड़/ चुगते चैन ।बंदिनी मैना/सोने की सलाखों में /रूठें हैं गीत ---रामेशवर कंबोज 'हिमांशु'
नीड़ मुखर /किलक रहे चूज़े /बहा निर्झर ---रामेश्वर कंबोज'हिमांशु 'शब्द बुनती /पहाड़ी बुलबुल/गीतकार सी ---डॉ सरस्वती माथुर
सुनाती -गान /गा रही बुलबुल /कहे श्री प्रभु ---पुष्पा मेहरा
आँख बाज़ की /झपट है चील की /कौन बचेगा ?...डॉ सुधेश
*बसंत ऋतु के समय आम की अमराईयों में तथा अन्यत्र वृक्षों पर बैठी कोयल अपनी मीठी कूकसे सबका ध्यान आकर्षित कर लेती है ! वह पौ फटते ही गाने लगती है तब प्रभात बहुत सुहावना लगता है !कोयल अपनी मीठी बोली से सबको आकर्षित कर लेती है !इसमें कोयल की मीठी बोली के माध्यम से सदा मीठे वचन बोलने पर भी बल दिया गया है lवहीं कौओं को भी वैज्ञानिक एक विस्मयकारक पक्षी मानते हैं । इनमें इतनी विविधता पाई जाती है कि इस पर एक 'कागशास्त्र' की भी रचना की गई है। योग वशिष्ठ में काक भुसुंडी की चर्चा है, रामायण में भी सीता के पांव पर कौवे के चोंच मारने का प्रसंग आया है।कौवे अपनी चतुराई दिखाने में लाजवाब होते हैं।कोयल की मीठी तो काक की कर्कश ध्वनि होती है वह 'काँव-काँव' करता है।पूर्वी एशिया में कौवों को किस्मत से जोड़ा जाता है तो अपने यहाँ मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है। भारत में हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। कौए व कोयल के प्रति सहज लगाव को हाइकुकारों ने अपने शब्दों से निखारा है और मनोरम छवि शब्द उकेरे हैं उनकी कल्पना के बिम्ब यहाँ देखें --
कोकिल -पीर/चुभें यादों के तीर/बरसे नीर ।रामेश्वर कंबोज "हिमांशु"
कोयल गाये /महके कचनार/झूमें बयार -डॉ -भावना कुँवरकोयल कूके /अमराई हुलसे /आया है कंत---पुष्पा मेहरा
सिमटे वन /बांझ अमराईयाँ/कोकिल मौन सुनीता अग्रवाल
अहो बसंत अमराई में गूँजे कोकिला स्वर ---सुनीता अग्रवाल
कोयल गाये/ घायल मन मेरा/ सुन न पाये ---चंद्रबली शर्मा
कौयल बोली /यादों के देवदार/ हिले न डुले ---चंद्रबलीशर्मा मोर नाचते /
कोयल है बाँचती /रची मेहंदी शशांक मिश्र भारती खुशबू फैली /
बही बौरीली हवा कोयल कूकू ---सुदर्शन रत्नाकर
गाए मल्हार /कोयल की जो कूकें ,/वरसें मेघा अमिता कौंडल
टिहुक लाल / फूले पलाश पर /कौओं के झुंड.... डॉ सुधा गुप्ता
बंजारे कागा /नीड़ बुनूँ प्यार के/ छोड़ो बैराग ---डॉ नूतन गैरोला
लगती प्यारी/ कौवे की कांव -कांव/बोले अटारी रेखा रोहतगी
*मोर भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखते हैं।यह एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षी पंख फैला कर नाचता है तो ऐसा लगता मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हुई हो। इसीलिए इसे पक्षियों का राजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही प्रकृति ने इसके सिर पर ताज जैसी कलंगी लगाई है। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही-इसे राष्ट्रीय पक्षी का दर्जा दिया गया है !संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है। मोर भारत तथा श्रीलंका में बहुतायत में पाया जाता है। मोर मूलतः वन्य पक्षी है, लेकिन भोजन की तलाश इसे कई बार मानव-आबादी तक ले आती है।मोर प्रारंभ से ही मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहा है। अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। महाकवि कालिदास ने महाकाव्य ‘मेघदूत’ में मोर को राष्ट्रीय पक्षी से भी अधिक ऊँचा स्थान दिया है। राजा-महाराजाओं को भी मोर बहुत पसंद रहा है। मेघों को देख कर मयूर के पैरों में स्वाभाविक थिरकन आ जाती है और इनके कोलाहल से दिशाएँ मुखरित हो जाती हैं ! मोर मोरनी का नृत्य आनंदित कर देता है
टहुके मोर/याद आ गया कौन/इतनी भोर ?डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नाचे मयूर/झूम उठा सावन/चंचल बूँदे ।---शशि पुरवार
मन मयूर/ रिमझिम के संग/ नाचे मगन...डॉ नूतन डिमरी गैरौला नाचे मयूर/झूम उठा सावन/चंचल बूँदे ।---शशि पुरवार
नाचे मयूर /बादलों के संतूर/ सुन -सुन के |...ज्योत्सना प्रदीप
* मृग प्रकृति के सुन्दरतम जीवों में से एक है...
मचल रहा/ व्योम में मृगछौना/ इन्द्रधनुष । ---नलिनकान्त
नभ में ताके /प्यासी एक गौरैया
/सूखी तलैया ...डॉ सतीशराज पुष्करणा
शाम की बेला /चिड़ियों के झुंड का /र्रेलमपेला ...डॉ दिनेश सिंह
फूले बादाम /हरे तोतों के दल /भूले आराम ---डॉ कुँवर दिनेश सिंह
यादें पखेरू
यादें पखेरू डरें दुबके नीड़
चुगते चैन ।
फुदके पक्षी /हरी हुई शाखाएँ /वर्षा जो आई ---सुदर्शन रत्नाकर
बड़े सवेरे /उठ जाती चिड़िया /कौन जगाता ---रमाकांत श्रीवास्तव
भाई अंगना /बहन चुगे दाना /बन गौरैया ...रचना श्रीवास्तव
धूप चिड़िया /सिमट कर बैठी /ठंड जो आई ---रचना श्रीवास्तव
पेटू चिड़िया /कुतर के ले गयी/ नन्ही कलियाँ ---भावना कुँवर
पपीहारा गा /और और बना रे /एकाकी मुझे ---आदित्य प्रसाद
चिड़िया तोते /ओटे छिपी मूरत /चहकी यादें ---चन्द्रबली शर्मा
हौंसला जिंदा /समंदर को लांघे /नन्हा परिंदा ---कृष्ण वर्मा
उजाला हुआ /चहकती चिड़िया /बजे संगीत ---ज्योत्सना शर्मा
हंसों की पांत/उड़ रही आकाश/मौसम साफ---डॉ सतीश दुबे
अकेला हंस /उड़ चला आकाश/दुनिया छोड़ ...डॉ सतीश दुबे
ऊंचा आकाश /तैरती है चील-सी /कल्पना मेरी ---डॉ रंजना भालचंदर अरगड़े
पीकर विष/ही बनाता है कोई /नीलकंठ सा ---रूपचंद उपाध्याय
श्वेत- कपोत/ शांति से ओतप्रोत/हिंसा -विहीन |...ज्योत्सना प्रदीप
उमंग भरी/शाखों पे अकेला हंस उड़/ चला आकाश... डॉ सतीश दुबेदुनिया छोड़ । /उड़ान परी ---डॉ सुधा गुप्ता
जुगनू जो रात में सितारों की तरह टिमटिमाते हैं। रात के समय जुगनू लगातार नहीं चमकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल पर कुछ समय के लिए चमकते और बुझते रहते हैं। इसी रोशनी का इस्तेमाल ये अपना भोजन तलाशने में भी करते हैं। इनमें खास बात ये है कि मादा जुगनू के पंख नहीं होते, इसलिए वह एक जगह बैठी ही चमकती है, जबकि नर जुगनू उड़ते हुए भी चमकते हैं। यही एक कारण है, जिससे इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।
पावस रात /पिकनिक मनाते /नाचे जुगनू ---डॉ भगवत शरण अग्रवाल
मिलके जले /जलके मिटा देंगे /सारा अंधेरा ---शोभा रस्तोगी 'शोभा '
स्मृतियाँ मेरी /विरह- रजनी में /जुगनू बनी ---शोभा रस्तोगी 'शोभा '
प्रेम -जुगुनू /भावों की बाती जला /रोशन हुआ ---डॉ सरस्वती माथुर
राह दिखाओ /अरे ओ जुगनुओं /रात है काली ---डॉ सुषमा सिंह
जुगनू दीप /टिमटिम करते /स्वप्न सज़े हैं ---भावना सक्सेना
रिश्तों की संध्या /जुगनू सी चमकी /रही दमकी ---कुमुद बंसल
फूल- पंखुरी /तितली के पंख सी /नाज़ुक दोस्ती ---हरदीप कौर सिंधु
अनूठे रंग /तितलियाँ उड़ती /हवा के संग ---डॉ सुधा गुप्ता
तितली-दल/कपोल चूम /दग्ध पलाश ---पुष्पा मेहरा
तितली उडी /चुराये जो पराग/बिखेरे कहाँ ---श्याम खरे
तितली दल/ खोल डाले किसने रंगों के नल ---डॉ भावना कुँअर
नन्ही तितली /खेले आँख मिचौली /कमाल संग ---डॉ भावना कुँअर
नन्ही तितली /बुरी फंसीजाल में /नोंच ली गयी ---डॉ भावना कुँअर
सुंदर स्वप्न /तितली बन उड़े /मधुबन में---शशि पुरवार
भँवरे काले रंग का उड़नेवाला एक पतंगा जो फूलों पर मँडराता और उसका रस चूसता है। इसके छः पैर, दो पर और दो मूँछें होती हैं।
खिले पलाश /तितली ओ भँवरे /मन उल्लास ---हरकीरत हीर
*सच कहते हैं कि हाइकु सृष्टि सौंदर्य का अनुभव कराती है lहाइकु का क्षेत्र असीम है lहाइकुकार किसी भी दृश्य या सरोकार पर हाइकु रच सकता है l धरती का विशाल आँगन हो ,प्रकृति का विस्तृतरूप हो ,चंद को एकटक निहारता चकोर हो ,वर्षा मे पातों पे रेंगती मखमली वीरबहूटी हो,झींगुर की आवाज़ हो या टर्र टर्र करता दादुर - मेंढ़क - मछलियाँ या जलपाखी हों या सागर किनारे की रेत पर बिखरे सीपी शंख हों 1 कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं--
ख्वाब उगा है /आँखों के नभ पर /नींद चकोर ---डॉ सरस्वती माथुर
कुशल पूछे/ वीर बहूटी भेज/ मेघ धरा की --डॉ दया कृष्ण विजयवेर्गीय 'विजय'
बरखा- रानी ले आई नव आस/ दादुर राग --डॉ क्रांति कुमार
दादुर तेरा /बरसी जो बदली /मन मयूरा ---डॉ ज्योत्सना शर्मा
वर्षा की साँझ /बजाते शहनाई /छिपे झींगुर ---रमाकान्त श्रीवास्तव
मौसम आया / मेंढक की छुपी ने /अर्थ बताया ---डॉ सरस्वती माथुर
चातक मन/तृप्ति चाहे सजन/तुम बरसो । डॉ नूतन
मच्छर मक्खी केंचुआ,दीमक ,चींटी बिच्छू,मकड़ी सभी जीवों पर हाइकुकारों ने अपनी लेखनी चलाई है कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं ...
गर्मी में साथी –मच्छर से बचना / ध्यान रखना---डॉ नूतन
*भारतीय इतिहास में दर्शन और भोजन दोनों दृष्टि से शुभ और श्रेष्ठ मानी जाने वाली मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित है तथा जलीय पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कथन अपने में पर्याप्त बल रखता है जिस पानी में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है। वैज्ञानिकों द्वारा मछली को बायोइंडीकेटर माना गया है। विभिन्न जलस्रोतों में चाहे तीव्र अथवा मन्द गति से प्रवाहित होने वाली नदियां हो, चाहे प्राकृतिक झीलें, तालाब अथवा मानव-निर्मित बड़े या मध्यम आकार के जलाशय, सभी के पर्यावरण का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि पानी और मछली दोनों एक दूसरे से काफी जुड़े हुए हैं। पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की विशेष उपयोगिता है।कुछ हाइकु देखें --मन मीन -सा/आकुल रहता है/लिये पिपासा ।अनुपमा त्रिपाठी
सीपी में मोती वस्तुत: मोलस्क जाति के एक प्राणी द्वारा क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनता है।
हाइकुकारों ने उन्हे भी शब्दों में बांधा है ...कतिपय उदाहरण प्रासंगिक होंगे ---
यादों के मोती /समेत न सका /सीप दिल ल सावित्री चंद्र
बूँद है प्यासी/सीप में उतर के/मोती होने को । डॉ नूतन
*हम सभी ने देखा है किअनेक पर्व त्योहारों पर पशु पक्षियों कि पूजा करना हमारी परम्पराओं का हिस्सा है बैल (नंदी )का शिव के साथ ,लक्ष्मी का हाथी के साथ चूहे का गणेश जी के, दुर्गा का सिंह सरस्वती का मोर ,हिरण का ब्रह्म के साथव कृष्ण जी का गाय के साथ पौराणिक संबंध देखा जा सकता है l
1
*ज्योतिष शास्त्र कि बारह राशियाँ आज भी पशुओं के नाम पर हैं तो सूअर की पृथ्वी की रक्षा के लिए वराह अवतार के रूप में मान्यता है lइसके अलावा श्राद्ध पक्ष में कौवेऔर चीलों को भोजन करवाना ,कुत्ते को रोटी डालना ,कबूतर को दाना डालना ,बंदरों को गुड चना खिलाना ,चिड़िया के लिए परिंड़ा बनाना ,तोते पालना और चींटी को चुगगा आटा डालना ,वन सोमवार मनाना आदि परम्पराएँ हमारे पशु प्रेम को दर्शाती हैं l
*भारतीय पुराणो में सर्प को एक लाभप्रद जीव माना गया है जो अपना फन फैला कर जैविकसुरक्षा प्रदान करता और नागपंचमी पर पूजा जाता है हमारे यहाँ तो बाकायदा मेलों में पशु मेला लगाए जाने की परंपरा भी है !ऊंट घोडा ,गधे ,बकरी आदि सभी लोकजीवन में महत्व रखते हैं lवैज्ञानिक रूप से भी देखें तो इन जीव जंतुओं की प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में विशेष भूमिका है यही कारण है कि इनके संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ गयी है lयह जीव जन्तु रहेंगे तो हमारी लोकसंस्कृति रहेगी और यदि संस्कृति को जीवित रखना है तो वन्य जीवों के संरक्षण को हमनें अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बनाना होगा lयदि हमने जीव जंतुओं की सुरक्षा नहीं की तो हम प्रकृति की अमूल्य धरोवर से सदेव के लिए वंचित रेह जाएँगे !
डॉ सरस्वती माथुर
1
पुष्पा मेहरा
सुहानी भोर
खुले गगन तले
पाखी चहके ।
यादें पखेरू
डरें दुबके नीड़
चुगते चैन ।
मंजु गुप्ता
फूला पलाश
अलि- पिक की
गूँजे
धरती झूमी ।
डॉ सरस्वती माथुर
गुंजन अग्रवाल भौरें की
धुन
सुन कली महकी
फगुआ गाती ।
सुनीता अग्रवाल
सिमटे वन
बाँझ अमराइयाँ
कोकिल मौन ।
4
अहो वसंत !
अमराई में गूंजे
कोकिला स्वर
5
खिले पुहुप
गुनगुनाया भौरा
राग बसंत ।
अनुपमा त्रिपाठी
अमुआ डार
कोयलिया पुकारे
साँझ सकारे ।
बावरी भई
कूकत कोयलिया
रागिनी नई ।
5
पेंजी खिली है ,
ज्यों तितली उड़ता
मन आँगन
.........
खो गए पंछी / कोहरे के पथ में / ढूँढ़ते नीड़ । शशि पाधा
संवेदना की पराकाष्ठा यहाँ देखिए –
याद चिड़िया / मन की अटारी पर / तिनके जोड़े । (डॉ• सुधा गुप्ता)
डॉ. नूतन डिमरी गैरोला
पीत पुष्प पे
श्याम भ्रमर डोले
तितली हँसी।
टेसू हैं लाल
श्याम कुक्कू वाचाल
कुहुक गाएँ ।
हमारी भारतीयसंस्कृति सम्पूर्ण जीव जंतुओं -पशु पक्षियों और वृक्षों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण
घटक मानती है l उनमें से भी कुछ पशु और पक्षी ऐसे हैं जिनके नहीं होने से मानव
अस्तित्व भी संकट में आ सकता है !भारत के सांस्कृतिक जीवन में पशु पक्षी प्राचीन
काल से ही प्रासंगिक रहे हैंl रामायण व महाभारत काल में तो इन पशु पक्षियों ने
हमारे अवतारों और देवताओं के साथ सामाजिक सरोकारों में भी अपनी भूमिका समय समय पर
निभाई है lयही कारण है कि हुमारे धार्मिक ,सामाजिक व सांस्कृतिक साहित्य में जीव
-जन्तु स्वेच्छा से तएहलते नज़र आते हैं ! वैदिक साहित्य तक में जंतुओं ,पौधों ,तथा
तथा प्राकृतिक घटनाओं का वर्णन है !वेद ,रामायण ,महाभारत ,उपनिषद तथा अर्थशास्त्र
(350 बी॰ सी )आदि भारतीय ग्रन्थों से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को भी जीव
विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था lहमारे साहित्यकारोंऔर हाइकुकारों ने भी विशेष रूप से
अपनी रचनाओं में जीव जंतुओं कीट पतंगों व पक्षियों का परिवेश और ऋतु के अनुसार
विशेष रूप से उल्लेख किया है और उनके महत्व को दर्शाया है !
हाइकु विधा का सौंद्रर्य ही यह है कि वह अत्यंत संक्षिप्त ,सीधी ,सादी ,सुकुमार
और शुद्ध होती है l17 पंक्तियों में 5+7+5 के शैली क्रम में पशु पक्षियों ,जीव
जंतुओं का बिम्ब विधान ,भावों और अनुभूतियों के चित्र व कथ्य के रूप में दिखाने में
हाइकुकार पूर्ण सफल रहें हैं lइसलिये साहित्य में अन्य विधाओं के साथ हाइकु का
विशेष स्थान है lजीव जंतुओं और पशु पक्षियों को लेकर कई हाइकुकारों ने सुंदर हाइकु
लिख कर प्रकृति और परिवेश के यथार्थ परक प्रतिकात्मक चित्र उकेरे हैं lउदाहरण
स्वरूप कतिपय हाइकुओं को देखा जा सकता है -
1॰काठ के घोड़े /चलता तन कर /माटी सवार ---सुधा गुप्ता
2.मेघों के हाथी /चिंघाड़ टकराए /अंबर कांपे ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
3.बांध के बोरे /लाता है धो कर /हवा का घोडा ---जगदीश व्योम
4॰मन दहाड़ा /जंगल के शेर सा /गूंज के लौटा ---डॉ सरस्वती माथुर
जैसा युग है /गधे निकल भागे /घोड़ों से आगे ---डॉ सुधेश
*हाइकुकारों ने जलचर ,थलचर ,व नभचर पशु पक्षियों -जीव जंतुओं का विषाद एवं
प्रासंगिक वर्णन अपने हाइकुओं में किया है lकुछ उदाहरण यहाँ प्रासंगिक होंगें-
गंदला पानी /रो रही मछलियाँ /जाएँ कहाँ ---हरदीप संधू
किसी की याद /फिर फड़फड़ाई /छाती में फाख्ता ---सुधा गुप्ता
चौराहों पर /घूमता सांड जैसा /बेखौफ डर ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
डर के कांपे / जंगल की आग में /घिरा शावक ---भावना कुँवर
उछल रहेबादल खरगोशआसमान में---डॉ सतीश दुबे
वोट जाल में /मछ्ली सी जनता /सदा फंसी ---सुभाष नीरव
ये तमाम हाइकु परिपक्वता और अग्रगामी दृष्टि की कसौटी पर खरे उतरते हैं l
कुछ और उदाहरण देखें ---
कुतर रहे हैं /संविधान /संसदी चूहे ---डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नीला कालीन /चर गए शशक /दूब के धोके---डॉ सुधा गुप्ता
दौड़ लगाए /धूप के खरगोश /हाथ न आयें ---भावना कुँवर
सूर्यके घोड़े /घाम के विरोध में /अड के खड़े /---उमेश महादोषी
जूठी पतल /कुतों को भगाता रे /बाल- कंकाल ---आदित्य प्रसाद
उन का गोला/ जागा ,भगा सहसा /अरे शशक---आदित्य प्रसाद सिंह
उछल रहे/बादल
खरगोश/आसमान में---डॉ सतीश दुबे
खटका द्वार / थरथराता पिल्ला / माँगता ताप ... पुष्पा
मेहरा
यदि हम प्राचीन काल में झाँकें तो एक तस्वीर की तरह हमारीआँखों में
निर्भीक विचरण करते वन प्राणी उतर आते हैं lजंगल में किलोलें करती चिड़ियायेँ
,गिलहरियाँ ,दौड़ लगाते शावक -खरगोश ,शशक ,बादलों को निहारते नाचते मयूर व
,चौकड़ियाँ भरते मृग ,हिरण ,कस्तूरी मृग ,रात में उडते चमकीले जुगुनू ,पतंगे व उल्लू
,विभिन्न प्रकार के पंछी ।परिंदे ,रंग बीरेंगी चिडियाएँ,तोते व मैना चहकती बुलबुल
,फाख्ता ,पीक व पपीहे व मीठे स्वर में कूकती कोयल कोकिला , बाग बगीचों में मँडराते
भोंरे -तितलियाँ व मधमाखियाँ,आस पास उड़ती मच्छर -मख्खी आदि जीव जन्तु प्रकृति के
आँचल में स्वछन्द घूमते नज़र आते हैं lइन सभी जीव जंतुओं को हाइकुकारों ने बहुत
सुंदर भावों से चित्रित किया है lविशेष रूप से चिड़िया ,पंछी -परिंदे,बुलबुल,फाख्ता
व गौरैया के विभिन्न रूपों में
बड़े ही रसमय तरीके से उकेर कर हाइकुकारों ने अपनी कल्पना का तथ्यात्मक सा
परिचय दिया है जो जीवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है l
यह जिंदगी /पंखनुची चिड़िया /फडफड़ाती ...डॉ सावित्री डागा
गुलाब खिला /चहकी बुलबुल/नशे ने छुआ ---डॉ सुधा गुप्ता
पपीहा दिन /और चकवी रातें /काटे न काटें ---डॉ सुधा गुप्ता
शेफाली हंसी/ बगिया जो महकी/ सी/मैना चहकी ---डॉ सुधा गुप्ता
yaadenyaadenpakheruडरें दुबके नीड़/ चुगते चैन ।बंदिनी मैना/सोने की सलाखों में /रूठें हैं गीत ---रामेशवर कंबोज 'हिमांशु'
नीड़ मुखर /किलक रहे चूज़े /बहा निर्झर ---रामेश्वर कंबोज'हिमांशु '
शब्द बुनती /पहाड़ी बुलबुल/गीतकार सी ---डॉ सरस्वती माथुर
सुनाती -गान /गा रही बुलबुल /कहे श्री प्रभु ---पुष्पा मेहरा
आँख बाज़ की /झपट है चील की /कौन बचेगा ?...डॉ सुधेश
*बसंत ऋतु के समय आम की अमराईयों में तथा अन्यत्र वृक्षों पर बैठी कोयल अपनी
मीठी कूकसे सबका ध्यान आकर्षित कर लेती है ! वह पौ फटते ही गाने लगती है तब प्रभात
बहुत सुहावना लगता है !कोयल अपनी मीठी बोली से सबको आकर्षित कर लेती है !इसमें कोयल
की मीठी बोली के माध्यम से सदा मीठे वचन बोलने पर भी बल दिया गया है lवहीं कौओं को
भी वैज्ञानिक एक विस्मयकारक पक्षी मानते हैं । इनमें इतनी विविधता पाई जाती है
कि इस पर एक 'कागशास्त्र' की भी रचना की गई है। योग वशिष्ठ में काक भुसुंडी की
चर्चा है, रामायण
में भी सीता
के पांव पर कौवे के चोंच मारने का प्रसंग आया है।कौवे अपनी चतुराई दिखाने में
लाजवाब होते हैं।कोयल की मीठी तो काक की कर्कश ध्वनि होती है वह 'काँव-काँव' करता
है।पूर्वी एशिया में कौवों को किस्मत से जोड़ा जाता है तो अपने यहाँ मुंडेर पर
बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है। भारत
में हिन्दू
धर्म में श्राद्ध
पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को
खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। कौए व कोयल के प्रति
सहज लगाव को हाइकुकारों ने अपने शब्दों से निखारा है और मनोरम छवि शब्द उकेरे हैं
उनकी कल्पना के बिम्ब यहाँ देखें --
कोकिल -पीर/चुभें यादों के तीर/बरसे नीर ।रामेश्वर कंबोज "हिमांशु"
कोयल गाये /महके कचनार/झूमें बयार -डॉ -भावना कुँवर
कोयल कूके /अमराई हुलसे /आया है कंत---पुष्पा मेहरा
सिमटे वन /बांझ अमराईयाँ/कोकिल मौन सुनीता अग्रवाल
अहो बसंत अमराई में गूँजे कोकिला स्वर ---सुनीता अग्रवाल
कोयल गाये/ घायल मन मेरा/ सुन न पाये ---चंद्रबली शर्मा
कौयल बोली /यादों के देवदार/ हिले न डुले ---चंद्रबलीशर्मा मोर नाचते /
कोयल है बाँचती /रची मेहंदी शशांक मिश्र भारती खुशबू फैली /
बही बौरीली हवा कोयल कूकू ---सुदर्शन रत्नाकर
गाए मल्हार /कोयल की जो कूकें ,/वरसें मेघा अमिता कौंडल
टिहुक लाल / फूले पलाश पर /कौओं के झुंड.... डॉ सुधा गुप्ता
बंजारे कागा /नीड़ बुनूँ प्यार के/ छोड़ो बैराग ---डॉ नूतन गैरोला
लगती प्यारी/ कौवे की कांव -कांव/बोले अटारी रेखा रोहतगी
*मोर भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखते हैं।यह एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक
तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षी पंख फैला
कर नाचता है तो ऐसा लगता मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हुई हो। इसीलिए इसे
पक्षियों का राजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही प्रकृति ने इसके
सिर पर ताज जैसी कलंगी लगाई है। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही-इसे राष्ट्रीय
पक्षी का दर्जा दिया गया है !संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है। मोर
भारत तथा श्रीलंका में बहुतायत में पाया जाता है। मोर मूलतः वन्य पक्षी है, लेकिन
भोजन की तलाश इसे कई बार मानव-आबादी तक ले आती है।मोर प्रारंभ से ही मनुष्य के
आकर्षण का केंद्र रहा है। अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया
है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। भगवान कृष्ण के मुकुट
में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। महाकवि कालिदास ने महाकाव्य
‘मेघदूत’ में मोर को राष्ट्रीय पक्षी से भी अधिक ऊँचा स्थान दिया है।
राजा-महाराजाओं को भी मोर बहुत पसंद रहा है। मेघों को देख कर मयूर के पैरों में
स्वाभाविक थिरकन आ जाती है और इनके कोलाहल से दिशाएँ मुखरित हो जाती हैं ! मोर
मोरनी का नृत्य आनंदित कर देता है
टहुके मोर/याद आ गया कौन/इतनी भोर ?डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नाचे मयूर/झूम उठा सावन/चंचल बूँदे ।---शशि पुरवार
मन मयूर/ रिमझिम के संग/ नाचे मगन...डॉ नूतन डिमरी गैरौला
नाचे मयूर/झूम उठा सावन/चंचल बूँदे ।---शशि पुरवार
नाचे मयूर /बादलों के संतूर/ सुन -सुन के |...ज्योत्सना प्रदीप
* मृग प्रकृति के सुन्दरतम जीवों में से एक है...
मचल रहा/ व्योम में मृगछौना/ इन्द्रधनुष । ---नलिनकान्त
नभ में ताके /प्यासी एक गौरैया
/सूखी तलैया ...डॉ सतीशराज पुष्करणा
शाम की बेला /चिड़ियों के झुंड का /र्रेलमपेला ...डॉ दिनेश सिंह
फूले बादाम /हरे तोतों के दल /भूले आराम ---डॉ कुँवर दिनेश सिंह
यादें पखेरू
यादें पखेरू डरें दुबके नीड़
चुगते चैन ।
फुदके पक्षी /हरी हुई शाखाएँ /वर्षा जो आई ---सुदर्शन रत्नाकर
बड़े सवेरे /उठ जाती चिड़िया /कौन जगाता ---रमाकांत श्रीवास्तव
भाई अंगना /बहन चुगे दाना /बन गौरैया ...रचना श्रीवास्तव
धूप चिड़िया /सिमट कर बैठी /ठंड जो आई ---रचना श्रीवास्तव
पेटू चिड़िया /कुतर के ले गयी/ नन्ही कलियाँ ---भावना कुँवर
पपीहारा गा /और और बना रे /एकाकी मुझे ---आदित्य प्रसाद
चिड़िया तोते /ओटे छिपी मूरत /चहकी यादें ---चन्द्रबली शर्मा
हौंसला जिंदा /समंदर को लांघे /नन्हा परिंदा ---कृष्ण वर्मा
उजाला हुआ /चहकती चिड़िया /बजे संगीत ---ज्योत्सना शर्मा
हंसों की पांत/उड़ रही
आकाश/मौसम साफ---डॉ सतीश दुबे
अकेला हंस
/उड़ चला
आकाश/दुनिया छोड़ ...डॉ
सतीश दुबे
ऊंचा आकाश /तैरती है चील-सी /कल्पना मेरी ---डॉ रंजना
भालचंदर अरगड़े
पीकर विष/ही बनाता है कोई /नीलकंठ सा ---रूपचंद उपाध्याय
श्वेत- कपोत/ शांति से ओतप्रोत/हिंसा -विहीन |...ज्योत्सना प्रदीप
उमंग भरी/शाखों पे अकेला हंस उड़/ चला आकाश... डॉ सतीश दुबे
दुनिया छोड़
। /उड़ान परी ---डॉ सुधा गुप्ता
जुगनू जो रात में सितारों की तरह टिमटिमाते हैं। रात के समय जुगनू लगातार नहीं
चमकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल पर कुछ समय के लिए चमकते और बुझते रहते हैं। इसी
रोशनी का इस्तेमाल ये अपना भोजन तलाशने में भी करते हैं। इनमें खास बात ये है कि
मादा जुगनू के पंख नहीं होते, इसलिए वह एक जगह बैठी ही चमकती है, जबकि नर जुगनू
उड़ते हुए भी चमकते हैं। यही एक कारण है, जिससे इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता
है।
पावस रात /पिकनिक मनाते /नाचे जुगनू ---डॉ भगवत शरण अग्रवाल
मिलके जले /जलके मिटा देंगे /सारा अंधेरा ---शोभा रस्तोगी 'शोभा '
स्मृतियाँ मेरी /विरह- रजनी में /जुगनू बनी ---शोभा रस्तोगी 'शोभा '
प्रेम -जुगुनू /भावों की बाती जला /रोशन हुआ ---डॉ सरस्वती माथुर
राह दिखाओ /अरे ओ जुगनुओं /रात है काली ---डॉ सुषमा सिंह
जुगनू दीप /टिमटिम करते /स्वप्न सज़े हैं ---भावना सक्सेना
रिश्तों की संध्या /जुगनू सी चमकी /रही दमकी ---कुमुद बंसल
रंग बिरंगे फूलों के साथ रहने वाली तितलियाँ भी बहुत सुंदर होती है तितलियाँ कई
तरह की और कई आकार की होती हैं रंगीन तितलियाँ सूर्य के आगमन से पलायन तक निरंतर
फूलों पर मंडराती है ,इन्हे और रंगीन बनाती है lप्रकृति के सारे रंगों की तितलियाँ
जाने कहाँ से सँजो कर लाती हैं किइंद्रधनुष भी फीका पड़ता है lअलग अलग रंग लिए कहीं
पलाश के जैसे रंग की लाली ,कहीं अंबर सी नीली ,कहीं सरसों सी पीली ,फूलों को
चूमती ,डाल डाल पर उड़ती,इठला कर झूमती हाइकुकारों को मोह लेती हैं l
फूल- पंखुरी /तितली के पंख सी /नाज़ुक दोस्ती ---हरदीप कौर सिंधु
अनूठे रंग /तितलियाँ उड़ती /हवा के संग ---डॉ सुधा गुप्ता
तितली-दल/कपोल चूम /दग्ध पलाश ---पुष्पा मेहरा
तितली उडी /चुराये जो पराग/बिखेरे कहाँ ---श्याम खरे
तितली दल/ खोल डाले किसने रंगों के नल ---डॉ भावना कुँअर
नन्ही तितली /खेले आँख मिचौली /कमाल संग ---डॉ भावना कुँअर
नन्ही तितली /बुरी फंसीजाल में /नोंच ली गयी ---डॉ भावना कुँअर
सुंदर स्वप्न /तितली बन उड़े /मधुबन में---शशि पुरवार
भँवरे काले रंग का उड़नेवाला एक पतंगा जो फूलों पर मँडराता और
उसका रस चूसता है। इसके छः पैर, दो पर और दो मूँछें होती हैं।
खिले पलाश /तितली ओ भँवरे /मन उल्लास ---हरकीरत हीर
हाइकु कारो ने जुगनुओं के मनोरम दृश्य चित्रित किए हैं ॥
*सच कहते हैं कि हाइकु सृष्टि सौंदर्य का अनुभव कराती है lहाइकु का क्षेत्र असीम
है lहाइकुकार किसी भी दृश्य या सरोकार पर हाइकु रच सकता है l धरती का विशाल आँगन
हो ,प्रकृति का विस्तृतरूप हो ,चंद को एकटक निहारता चकोर हो ,वर्षा मे पातों पे
रेंगती मखमली वीरबहूटी हो,झींगुर की आवाज़ हो या टर्र टर्र करता दादुर - मेंढ़क -
मछलियाँ या जलपाखी हों या सागर किनारे की रेत पर बिखरे सीपी शंख हों 1 कुछ उदाहरण
यहाँ प्रस्तुत हैं--
ख्वाब उगा है /आँखों के नभ पर /नींद चकोर ---डॉ सरस्वती माथुर
कुशल पूछे/ वीर बहूटी भेज/ मेघ धरा की --डॉ दया कृष्ण विजयवेर्गीय 'विजय'
बरखा- रानी ले आई नव आस/ दादुर राग --डॉ क्रांति कुमार
दादुर तेरा /बरसी जो बदली /मन मयूरा ---डॉ ज्योत्सना शर्मा
वर्षा की साँझ /बजाते शहनाई /छिपे झींगुर ---रमाकान्त श्रीवास्तव
मौसम आया / मेंढक की छुपी ने /अर्थ बताया ---डॉ सरस्वती माथुर
चातक मन/तृप्ति चाहे सजन/तुम बरसो । डॉ नूतन
मच्छर मक्खी केंचुआ,दीमक ,चींटी बिच्छू,मकड़ी सभी जीवों पर हाइकुकारों ने अपनी लेखनी चलाई है कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं ...
गर्मी में साथी –मच्छर से बचना / ध्यान रखना---डॉ नूतन
*भारतीय इतिहास में दर्शन और भोजन दोनों दृष्टि से शुभ और श्रेष्ठ मानी जाने
वाली मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित है तथा जलीय पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली
की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह कथन अपने में पर्याप्त बल रखता है जिस पानी
में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है।
वैज्ञानिकों द्वारा मछली को बायोइंडीकेटर माना गया है। विभिन्न जलस्रोतों में चाहे
तीव्र अथवा मन्द गति से प्रवाहित होने वाली नदियां हो, चाहे प्राकृतिक झीलें, तालाब
अथवा मानव-निर्मित बड़े या मध्यम आकार के जलाशय, सभी के पर्यावरण का यदि सूक्ष्म
अध्ययन किया जाय तो निष्कर्ष निकलता है कि पानी और मछली दोनों एक दूसरे से काफी
जुड़े हुए हैं। पर्यावरण को संतुलित रखने में मछली की विशेष उपयोगिता है।कुछ हाइकु
देखें --
मन मीन -सा/आकुल रहता है/लिये पिपासा ।अनुपमा त्रिपाठी
सीपी में मोती वस्तुत: मोलस्क जाति के एक प्राणी
द्वारा क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनता है।
हाइकुकारों ने
उन्हे भी शब्दों में बांधा है ...कतिपय उदाहरण प्रासंगिक होंगे ---
यादों के मोती /समेत न सका /सीप दिल ल सावित्री चंद्र
बूँद है प्यासी/सीप में उतर के/मोती होने को । डॉ नूतन
*हम सभी ने देखा है किअनेक पर्व त्योहारों पर पशु पक्षियों कि पूजा करना हमारी
परम्पराओं का हिस्सा है बैल (नंदी )का शिव के साथ ,लक्ष्मी का
हाथी के साथ चूहे का गणेश जी के, दुर्गा का सिंह
सरस्वती का मोर ,हिरण का ब्रह्म के साथव कृष्ण जी का गाय के साथ
पौराणिक संबंध देखा जा सकता है l
1
*ज्योतिष शास्त्र कि बारह राशियाँ आज भी पशुओं के नाम पर हैं तो सूअर की पृथ्वी
की रक्षा के लिए वराह अवतार के रूप में मान्यता है lइसके अलावा श्राद्ध पक्ष में
कौवेऔर चीलों को भोजन करवाना ,कुत्ते को रोटी डालना ,कबूतर को दाना डालना ,बंदरों
को गुड चना खिलाना ,चिड़िया के लिए परिंड़ा बनाना ,तोते पालना और चींटी को चुगगा आटा
डालना ,वन सोमवार मनाना आदि परम्पराएँ हमारे पशु प्रेम को दर्शाती हैं l
*भारतीय पुराणो में सर्प को एक लाभप्रद जीव माना गया है जो अपना फन फैला कर
जैविकसुरक्षा प्रदान करता और नागपंचमी पर पूजा जाता है हमारे यहाँ तो बाकायदा
मेलों में पशु मेला लगाए जाने की परंपरा भी है !ऊंट घोडा ,गधे ,बकरी आदि सभी
लोकजीवन में महत्व रखते हैं lवैज्ञानिक रूप से भी देखें तो इन जीव जंतुओं की
प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में विशेष भूमिका है यही कारण है कि इनके संरक्षण के
प्रति जागरूकता बढ़ गयी है lयह जीव जन्तु रहेंगे तो हमारी लोकसंस्कृति रहेगी और यदि
संस्कृति को जीवित रखना है तो वन्य जीवों के संरक्षण को हमनें अपनी दिनचर्या का
अभिन्न अंग बनाना होगा lयदि हमने जीव जंतुओं की सुरक्षा नहीं की तो हम प्रकृति की
अमूल्य धरोवर से सदेव के लिए वंचित रेह जाएँगे !
डॉ सरस्वती माथुर
1
पुष्पा मेहरा
सुहानी भोर
खुले गगन तले
पाखी चहके ।
यादें पखेरू
डरें दुबके नीड़
चुगते चैन ।
मंजु गुप्ता
फूला पलाश
अलि- पिक की
गूँजे
धरती झूमी ।
डॉ सरस्वती माथुर
गुंजन अग्रवाल भौरें की
धुन
सुन कली महकी
फगुआ गाती ।
सुनीता अग्रवाल
सिमटे वन
बाँझ अमराइयाँ
कोकिल मौन ।
4
अहो वसंत !
अमराई में गूंजे
कोकिला स्वर
5
खिले पुहुप
गुनगुनाया भौरा
राग बसंत ।
अनुपमा त्रिपाठी
अमुआ डार
कोयलिया पुकारे
साँझ सकारे ।
बावरी भई
कूकत कोयलिया
रागिनी नई ।
5
पेंजी खिली है ,
ज्यों तितली उड़ता
मन आँगन
.........
खो गए पंछी / कोहरे के पथ में / ढूँढ़ते नीड़ । शशि पाधा
संवेदना की पराकाष्ठा यहाँ देखिए –
याद चिड़िया / मन की अटारी पर / तिनके जोड़े । (डॉ• सुधा गुप्ता)
डॉ. नूतन डिमरी गैरोला
पीत पुष्प पे
श्याम भ्रमर डोले
तितली हँसी।
टेसू हैं लाल
श्याम कुक्कू वाचाल
कुहुक गाएँ ।
1
हमारी भारतीयसंस्कृति सम्पूर्ण जीव जंतुओं -पशु पक्षियों और वृक्षों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण
घटक मानती है l उनमें से भी कुछ पशु और पक्षी ऐसे हैं जिनके नहीं होने से मानव
अस्तित्व भी संकट में आ सकता है !भारत के सांस्कृतिक जीवन में पशु पक्षी प्राचीन
काल से ही प्रासंगिक रहे हैंl रामायण व महाभारत काल में तो इन पशु पक्षियों ने
हमारे अवतारों और देवताओं के साथ सामाजिक सरोकारों में भी अपनी भूमिका समय समय पर
निभाई है lयही कारण है कि हुमारे धार्मिक ,सामाजिक व सांस्कृतिक साहित्य में जीव
-जन्तु स्वेच्छा से तएहलते नज़र आते हैं ! वैदिक साहित्य तक में जंतुओं ,पौधों ,तथा
तथा प्राकृतिक घटनाओं का वर्णन है !वेद ,रामायण ,महाभारत ,उपनिषद तथा अर्थशास्त्र
(350 बी॰ सी )आदि भारतीय ग्रन्थों से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों को भी जीव
विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था lहमारे साहित्यकारोंऔर हाइकुकारों ने भी विशेष रूप से
अपनी रचनाओं में जीव जंतुओं कीट पतंगों व पक्षियों का परिवेश और ऋतु के अनुसार
विशेष रूप से उल्लेख किया है और उनके महत्व को दर्शाया है !
हाइकु विधा का सौंद्रर्य ही यह है कि वह अत्यंत संक्षिप्त ,सीधी ,सादी ,सुकुमार
और शुद्ध होती है l17 पंक्तियों में 5+7+5 के शैली क्रम में पशु पक्षियों ,जीव
जंतुओं का बिम्ब विधान ,भावों और अनुभूतियों के चित्र व कथ्य के रूप में दिखाने में
हाइकुकार पूर्ण सफल रहें हैं lइसलिये साहित्य में अन्य विधाओं के साथ हाइकु का
विशेष स्थान है lजीव जंतुओं और पशु पक्षियों को लेकर कई हाइकुकारों ने सुंदर हाइकु
लिख कर प्रकृति और परिवेश के यथार्थ परक प्रतिकात्मक चित्र उकेरे हैं lउदाहरण
स्वरूप कतिपय हाइकुओं को देखा जा सकता है -
1॰काठ के घोड़े /चलता तन कर /माटी सवार ---सुधा गुप्ता
2.मेघों के हाथी /चिंघाड़ टकराए /अंबर कांपे ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
3.बांध के बोरे /लाता है धो कर /हवा का घोडा ---जगदीश व्योम
4॰मन दहाड़ा /जंगल के शेर सा /गूंज के लौटा ---डॉ सरस्वती माथुर
जैसा युग है /गधे निकल भागे /घोड़ों से आगे ---डॉ सुधेश
*हाइकुकारों ने जलचर ,थलचर ,व नभचर पशु पक्षियों -जीव जंतुओं का विषाद एवं
प्रासंगिक वर्णन अपने हाइकुओं में किया है lकुछ उदाहरण यहाँ प्रासंगिक होंगें-
गंदला पानी /रो रही मछलियाँ /जाएँ कहाँ ---हरदीप संधू
किसी की याद /फिर फड़फड़ाई /छाती में फाख्ता ---सुधा गुप्ता
चौराहों पर /घूमता सांड जैसा /बेखौफ डर ---रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु '
डर के कांपे / जंगल की आग में /घिरा शावक ---भावना कुँवर
उछल रहेबादल खरगोशआसमान में---डॉ सतीश दुबे
वोट जाल में /मछ्ली सी जनता /सदा फंसी ---सुभाष नीरव
ये तमाम हाइकु परिपक्वता और अग्रगामी दृष्टि की कसौटी पर खरे उतरते हैं l
कुछ और उदाहरण देखें ---
कुतर रहे हैं /संविधान /संसदी चूहे ---डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नीला कालीन /चर गए शशक /दूब के धोके---डॉ सुधा गुप्ता
दौड़ लगाए /धूप के खरगोश /हाथ न आयें ---भावना कुँवर
सूर्यके घोड़े /घाम के विरोध में /अड के खड़े /---उमेश महादोषी
जूठी पतल /कुतों को भगाता रे /बाल- कंकाल ---आदित्य प्रसाद
उन का गोला/ जागा ,भगा सहसा /अरे शशक---आदित्य प्रसाद सिंह
उछल रहे/बादल
खरगोश/आसमान में---डॉ सतीश दुबे
खटका द्वार / थरथराता पिल्ला / माँगता ताप ... पुष्पा
मेहरा
यदि हम प्राचीन काल में झाँकें तो एक तस्वीर की तरह हमारीआँखों में
निर्भीक विचरण करते वन प्राणी उतर आते हैं lजंगल में किलोलें करती चिड़ियायेँ
,गिलहरियाँ ,दौड़ लगाते शावक -खरगोश ,शशक ,बादलों को निहारते नाचते मयूर व
,चौकड़ियाँ भरते मृग ,हिरण ,कस्तूरी मृग ,रात में उडते चमकीले जुगुनू ,पतंगे व उल्लू
,विभिन्न प्रकार के पंछी ।परिंदे ,रंग बीरेंगी चिडियाएँ,तोते व मैना चहकती बुलबुल
,फाख्ता ,पीक व पपीहे व मीठे स्वर में कूकती कोयल कोकिला , बाग बगीचों में मँडराते
भोंरे -तितलियाँ व मधमाखियाँ,आस पास उड़ती मच्छर -मख्खी आदि जीव जन्तु प्रकृति के
आँचल में स्वछन्द घूमते नज़र आते हैं lइन सभी जीव जंतुओं को हाइकुकारों ने बहुत
सुंदर भावों से चित्रित किया है lविशेष रूप से चिड़िया ,पंछी -परिंदे,बुलबुल,फाख्ता
व गौरैया के विभिन्न रूपों में
बड़े ही रसमय तरीके से उकेर कर हाइकुकारों ने अपनी कल्पना का तथ्यात्मक सा
परिचय दिया है जो जीवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है l
यह जिंदगी /पंखनुची चिड़िया /फडफड़ाती ...डॉ सावित्री डागा
गुलाब खिला /चहकी बुलबुल/नशे ने छुआ ---डॉ सुधा गुप्ता
पपीहा दिन /और चकवी रातें /काटे न काटें ---डॉ सुधा गुप्ता
शेफाली हंसी/ बगिया जो महकी/ सी/मैना चहकी ---डॉ सुधा गुप्ता
yaadenyaadenpakheruडरें दुबके नीड़/ चुगते चैन ।बंदिनी मैना/सोने की सलाखों में /रूठें हैं गीत ---रामेशवर कंबोज 'हिमांशु'
नीड़ मुखर /किलक रहे चूज़े /बहा निर्झर ---रामेश्वर कंबोज'हिमांशु '
शब्द बुनती /पहाड़ी बुलबुल/गीतकार सी ---डॉ सरस्वती माथुर
सुनाती -गान /गा रही बुलबुल /कहे श्री प्रभु ---पुष्पा मेहरा
आँख बाज़ की /झपट है चील की /कौन बचेगा ?...डॉ सुधेश
*बसंत ऋतु के समय आम की अमराईयों में तथा अन्यत्र वृक्षों पर बैठी कोयल अपनी
मीठी कूकसे सबका ध्यान आकर्षित कर लेती है ! वह पौ फटते ही गाने लगती है तब प्रभात
बहुत सुहावना लगता है !कोयल अपनी मीठी बोली से सबको आकर्षित कर लेती है !इसमें कोयल
की मीठी बोली के माध्यम से सदा मीठे वचन बोलने पर भी बल दिया गया है lवहीं कौओं को
भी वैज्ञानिक एक विस्मयकारक पक्षी मानते हैं । इनमें इतनी विविधता पाई जाती है
कि इस पर एक 'कागशास्त्र' की भी रचना की गई है। योग वशिष्ठ में काक भुसुंडी की
चर्चा है, रामायण
में भी सीता
के पांव पर कौवे के चोंच मारने का प्रसंग आया है।कौवे अपनी चतुराई दिखाने में
लाजवाब होते हैं।कोयल की मीठी तो काक की कर्कश ध्वनि होती है वह 'काँव-काँव' करता
है।पूर्वी एशिया में कौवों को किस्मत से जोड़ा जाता है तो अपने यहाँ मुंडेर पर
बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है। भारत
में हिन्दू
धर्म में श्राद्ध
पक्ष के समय कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को
खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। कौए व कोयल के प्रति
सहज लगाव को हाइकुकारों ने अपने शब्दों से निखारा है और मनोरम छवि शब्द उकेरे हैं
उनकी कल्पना के बिम्ब यहाँ देखें --
कोकिल -पीर/चुभें यादों के तीर/बरसे नीर ।रामेश्वर कंबोज "हिमांशु"
कोयल गाये /महके कचनार/झूमें बयार -डॉ -भावना कुँवर
कोयल कूके /अमराई हुलसे /आया है कंत---पुष्पा मेहरा
सिमटे वन /बांझ अमराईयाँ/कोकिल मौन सुनीता अग्रवाल
अहो बसंत अमराई में गूँजे कोकिला स्वर ---सुनीता अग्रवाल
कोयल गाये/ घायल मन मेरा/ सुन न पाये ---चंद्रबली शर्मा
कौयल बोली /यादों के देवदार/ हिले न डुले ---चंद्रबलीशर्मा मोर नाचते /
कोयल है बाँचती /रची मेहंदी शशांक मिश्र भारती खुशबू फैली /
बही बौरीली हवा कोयल कूकू ---सुदर्शन रत्नाकर
गाए मल्हार /कोयल की जो कूकें ,/वरसें मेघा अमिता कौंडल
टिहुक लाल / फूले पलाश पर /कौओं के झुंड.... डॉ सुधा गुप्ता
बंजारे कागा /नीड़ बुनूँ प्यार के/ छोड़ो बैराग ---डॉ नूतन गैरोला
लगती प्यारी/ कौवे की कांव -कांव/बोले अटारी रेखा रोहतगी
*मोर भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखते हैं।यह एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक
तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षी पंख फैला
कर नाचता है तो ऐसा लगता मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हुई हो। इसीलिए इसे
पक्षियों का राजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही प्रकृति ने इसके
सिर पर ताज जैसी कलंगी लगाई है। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही-इसे राष्ट्रीय
पक्षी का दर्जा दिया गया है !संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है। मोर
भारत तथा श्रीलंका में बहुतायत में पाया जाता है। मोर मूलतः वन्य पक्षी है, लेकिन
भोजन की तलाश इसे कई बार मानव-आबादी तक ले आती है।मोर प्रारंभ से ही मनुष्य के
आकर्षण का केंद्र रहा है। अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया
है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। भगवान कृष्ण के मुकुट
में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। महाकवि कालिदास ने महाकाव्य
‘मेघदूत’ में मोर को राष्ट्रीय पक्षी से भी अधिक ऊँचा स्थान दिया है।
राजा-महाराजाओं को भी मोर बहुत पसंद रहा है। मेघों को देख कर मयूर के पैरों में
स्वाभाविक थिरकन आ जाती है और इनके कोलाहल से दिशाएँ मुखरित हो जाती हैं ! मोर
मोरनी का नृत्य आनंदित कर देता है
टहुके मोर/याद आ गया कौन/इतनी भोर ?डॉ भगवतशरण अग्रवाल
नाचे मयूर/झूम उठा सावन/चंचल बूँदे ।---शशि पुरवार
मन मयूर/ रिमझिम के संग/ नाचे मगन...डॉ नूतन डिमरी गैरौला
नाचे मयूर/झूम उठा सावन/चंचल बूँदे ।---शशि पुरवार
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