1
हरियाये बाँस का आमंत्रण ....
विनायक एयरपोर्ट से सीधे टैक्सी लेकर अपने गाँव पहुँचा तो हैरान रह गया! मनफूल काकी आज भी अपनी कुटिया को बाँस की बातियों से छवा रही थी l उन्ही की बगल में घीसू काका सा ॰ बांस की खप्पचियों से कच्ची झोंपड़ी की दीवारों को मूँज की रसियों से बांध रहे थे lविनायक ने इतनी सुंदर कारीगरी पहले कभी नहीं देखी थीl करीब तीस साल बाद वो अपने गाँव आया था l उसके ताऊ रूप लाल सा॰ जी का देहावसान हो गया था इसलिए आना भी जरूरी था l टैक्सी जैसे ही दालान में रूकी वहां कंचे खेल रहे घर के छोटे बच्चे खुशी से उसके इर्द गिर्द घूमर करने लगेl दरअसल यह गाँव नहीं था बल्कि एक दूरस्थ बसी कच्ची ढ़ाणी थीl बरसों पहले विनायक के पिता नौकरी की तलाश में यहाँ से एक व्यापारी सेठ के साथ शहर चले गए थे, कभी कभार ही आते थे l फिर सेठ की कंपनी के साथ अमरीका जाना पड़ा फ़िर वहीं बस गए !विनायक तब छोटा ही था पर जेहन में इस ढ़ाणी की धुंधली सी यादें जरूर थी l वो हरियाये बांस के झुरमुट में दोस्तों के साथ छुपन छुपाई खेला करता था ,उसे याद आ रहा था कि उन दिनों उनकी दादीसा .बांस की तकली से सूत कातती थी lगांवों में खुले आम ढ़ोर ढंकर घूमा करते थे ,उन्हे तालाबों में नहलाने लेके जाया जाता था lवो दृश्य भी विनायक कों याद था जब दादा सा॰ रंग बिरंगे कागजों को बांस की खप्पचियों पर चिपका कर पतंग बनाते थे । दादा सा बच्चों की फटी पतंगों पर भी आटे कि लेई से जगह जगह कागज के पेबन्द चिपका कर दालान में बांस की चटाई पर सुखाते भी थे lतभी विनायक की तंद्रा टूटी जब उसे को देख कर मनफूल काकी सा॰ने हाथों की छत्तरी बना कर पहचाना और गदगदाई आवाज़ में स्वागत करते हुए बोली --"अररे वीनू बचुवा. आई गवा तू । बबुवा तेरे ताऊ सा ,तो धोका दे गए रे ....आ लल्ला आ .... कहती हाथ का काम छोड़ उसको बांह से पकड़ खींचती सी विनायक को झोंपड़ी के पिछवारे ले गयी जहां छप्परों वाला छोटा सा गोबर से लिपा पुता सा रसोई घर था l वहा झाझन का टाट लगा था lजमीन पर चूल्हे के पास घीसू काका सा की विधवा बहू बैठी थी l॰विनायक को देख उसने हाथ जोड़ दिये और घूँघट जरा और खींचकर छुई मुई सी और सिमट गयी l विनायक ने वहीं कोने में रखी बाल्टी में लोटा डूबा हाथ मुंह धोये और घीसू काका सा ॰व मनफूल काकी सा॰से बोलता बतियाता रहा l ढाक की पतल में भात परोसा गया ,पीतल की कटोरी में अरहर की शोरबे वाली दाल ,कद्दू मिर्ची की तरकारी ,छाछ ,लापसी( मीठा गुड का दलिया) और साबुत छोटा सा कांदा ...विनायक को एक पल को भी हिचकिचाहट नहीं हुई ,खाना इतना स्वादिष्ट था कि आनंद आ गया उसने चटकारे ले ले कर खाया ,अमेरिका में जो खाया जाता है उसकी तो इस भोजन से कोई तुलना ही नहीं थी ...यह तो जैसे ईश्वर का प्रसाद था l संध्या को बाँस की खपरैल से घिरे छोटे से दालान में तीये की बैठक हुई । हंसली की शक्ल में लोग बैठे । बैठक ख़त्म हुई तो गाँव के बहुत से रिश्तेदार विनायक के इर्द गिर्द मधुमक्खियों से मँडराते रहे । कुछ रिश्तेदारों को विनायक पहचान पा रहा था , बाक़ी घीसू काका सा॰ परिचय दे रहे थे। विनायक काफी थक गया था, रात को निपट अंधेरा था पर चौकी पर लालटेन की ढिबरी उस अंधेरे को दूर कर रही थी । कुटिया के कोने में रखी चटाई पर विनायक लेट गया , जाने कब आँख लग गई कब भोर हो गयी उसे पता ही नहीं चला । इतनी सुकून भरी नींद बरसों बाद नसीब हुई थी।अब लौटने का वक़्त हो गया था । मनफूल काकी सा, की आँखों में आंसूं छलक आये थे। रूँधे गले से बोलीं __"बबुआ आते रहिब !" विनायक ने तुरन्त कहा- "ज़रूर काकी सा ,अब तो हर बरस चक्कर लगाउँगा. मेरा वादा रहा काकी सा.और हाँ आप भी अपना और काका सा का ध्यान रखना।" घीसू काका सा ने भी अँगोछे से आँसू पोंछे । सारे रिश्तेदार कार को घेर कर खड़े थे। विनायक के माथे पर तिलक लगा कर उसके मुँह में गुड की डली देती घीसू काका की बेटी आचुकी जीजी भी रो रही थी । विनायक ने सब बड़ों के पैर छुए और जाने क्यों फूट फूट कर रो पड़ा ।शायद उसका मन इस छोटी सी ठाणी की रस भरी आत्मीयता में डूब गया थाl गाँव की मीठी बासंती हवायें खेतों खलिहानो की ठंडी हवाओं में घुल कर विनायक को मानो कह रहीं थी कि यहाँ का जीवन आज भी व्यावहारिक है शहरों की तरह औपचारिक और यांत्रिक नहीं है ।गाँवों ढाणियो में आज भी बाँस की खोखल से तराशी बांसुरी की मधुर रागिनी मन मोह लेती है। टैक्सी गाँव की कच्ची पगडंडी पर धूल उड़ाती दौड़ रही थी और ढाणी में हवाओं के साथ हरियाये बाँस की डालियाँ हिल हिल कर नत मस्तक होकर विनायक को जल्दी वापस आने का स्नेह भरा आमन्त्रण दे रही थी । डाँ सरस्वती माथुर
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...."आ री कनेरी चिड़िया!
मीठी मात्र आठ साल की थी जब घर के अहाते के एकदम बाहर बरवाड़ा हाउस सोसाइटी ने पीले कनेर के 10 पेड़ रोपे थे !अभी भी याद है गायत्री देवी को जब गर्मियों में गरम हवाओं के झोंके तन को गरम कर देते थे तो कनेर की नूकीली पंखियाँ चँवर सी झूल कर मौसम को खुशनुमा बना देती थी !शुरू शुरू के वो दिन गायत्री देवी की यादों में आज भी ताजा हैं ,,,,बरवाड़ा सोसायटी का यह अहाता तब बच्चों के क्रिकेट का मैदान था ,गर्मी की लू से बेपरवाह रहते हुए दिन भर धमाचौकड़ी होती थी! वहाँ खेल कूद करते बच्चे कनेर के इस पेड़ के नीचे बैठ कर थकान मिटाते थे ,इसके पीले पीले फूल जब डाल से छूट कर बच्चों के उपर आ गिरते थे तो मौसम में बसंत छा जाता था l उन फूलों को एक दूसरे पर उछाल कर सभी मिल कर एक स्वर में गाते थे ----"आ री कनेरी चिड़िया ...गा री कनेरी चिड़िया ....शिवजी के मंदिर में फूलों को जाकर चढ़ा री कनेरी चिड़िया .....आ री कनेरी चिड़िया ...!" यह किसी प्रदेश का लोकगीत था जो भोलू ने अपनी दादी से सीखा था और सब की जबान पर चढ़ गया था !
गायत्री देवी जब तक बरवाड़ा हाउस के इस अहाते में रहीं पूजा में कनेर के फूलों को नियमित चढाती रहीं lफिर वह अपने छोटे बेटे के पास विदेश चली गईं lबड़ा बेटा अभी भी बरवाड़ा हाउस ही में रहता है ,वे आती जाती रहती हैं !इस बार का आना विशेष मायने रखता है ,वह मीठी की शादी में पूरे परिवार के साथ शामिल होने आई हैं !मीठी जो उनकी लाड़ली पोती है ,ला की पढ़ाई खत्म करके अब प्रैक्टिस कर रहीं हैं ! चोबीस वर्ष की हो चुकी हैं मीठी !गायत्री देवी इस बार भारत लगभग पाँच वर्ष बाद आईं हैं ! इस बार विशेष रूप से यहाँ की संरचना में उन्हे बड़ा बदलाव लगा, वह हैरान भी थीं और दुखी भी कि गगनचुंबी इमारतें बनाने के चक्कर में बरवाड़ा हाउस ही नहीं पूरे शहर की काया पलट के फलस्वरूप यहाँ की सुंदरता भी तहस नहस हो गयी हैl कल की सी बात लगती है जब अहाते के आस पास का सौंदर्य अप्रतिम था ...वह कैसे भूल सकतीं हैं कि भोर होते ही यहाँ चिड़ियाएं नए नए राग छेड कर सभी को जगाती थी और अब देखो तो जगह जगह से डालें काट दी गईं हैं ...कनेर जो हर रंग में अपनी आभा बिखेर के मन मोह लेते थे उदास खड़े हैं ,कनेर जो मंदिर का दर्शन थे ,जो हवाओं की आहटों के साथ थिरकते थे ,मौन खड़े हैं, कनेर जो मंदिर का दर्शन हैं ,विष पीते हुए मंदिरों में अमृत बरसाते हैं ,शिव जी पर चढाये जाते हैं ,वहाँ की रचना का दर्शन हैं ...वहाँ की अभिव्यक्तियों का जीवन मकरंद हैं ...जो हवाओं की दस्तकों के साथ घण्टियों की तरह बजते से लगते हैं, सद्भाव आस्था का भाव जगाते हैं ,आज चीख चीख कर कह रहें हैं कि हमे न काटो, हमें बचाओ ,हम तो इन आहतों की देहरी के रखवाले हैं, प्रहरी हैं ,पर्यावरण के रक्षक हैं l
गायत्री देवी उन्हे बड़े दार्शनिक मनोभाव से एकटक जब निहार रहीं थीं तो मीठी उनके पास आ खड़ी हुईं ---"प्रणाम दादी, आपका जेट लेग पूरा हुआ या नहीं ?"
-"अरी कहाँ बिटिया, देख न नींद ही उड गयी है मेरी तो, देख न मीठी कितनी बेदर्दी से नोचा है इन कनेर की डालियों को , बांसुरी सी लहराती थी कभी ,जगह जगह से काट दी गयी हैं अभी....चिड़ियों का बसेरा तक नहीं दिख रहा Iगायत्री देवी की आवाज़ में भी दर्द था जिसे मीठी ने भी महसूस किया!
"अरे दादी जान सोसाइटी वालों ने तो इसे काटने के आदेश तक दे दिये थे वो तो मैंने सभी सदस्योंI के हस्ताक्षर ले कर नोटिस देकर इन्हे रोका है स्पष्ट निर्देश निकलवाये हैं कि इन्हे न काटा जाये बल्कि इमारत जो बन रही है उसकी बनावट में इन पेड़ों की परिधि छोडी जाये।इन ओरर्ननामेंटल पेड़ो की सीमा रेखा छोड़ते हुए ही नक्शा पास करवाया जाये,स्टे ले लिया है, केस चल रहा है अभी॥"
गायत्री देवी ने स्नेह से मीठी की आँखों में देखा,सोचा सच कितनी समझदार होगयी है मीठी... यह बच्ची ,पर्यावरण का संरक्षण ही नहीं कर रही है बल्कि हरियाली जो प्रकृति का अनुपम शृंगार होती
उसे भी बचाने के जीवट संघर्ष मेँ जुटी है ...तभी तेज हवा का झोंका आया तो साथ में हवाओं की बौछार के साथ पीले कनेर के बहुत से फूल गायत्री देवी के इर्द गिर्द बिखर कर वातावरण को मनमोहक सुगंध से भर गये, तन के साथ साथ मन को भी सुवासित कर गये! देर तक गायत्री देवी के कानो में गूँजते रहे यह मधुर स्वर....".आ री कनेरी चिड़िया ...गा री कनेरी चिड़िया........!
डॉ सरस्वती माथुर
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लघु कथा
. ईंट की दीवार ...
गुलमोहर कॉलोनी में रहने वाले हरिहर बाबू और अलीखान बचपन के दोस्त थे lदोनों ने साथ जमीन खरीदी और साथ ही यहाँ मकान बनवाया l ईद हो होली या -दीवाली दोनों परिवार साथ मनाते थे l कॉलोनी वाले उनकी दोस्ती की मिसाल देते नहीं थकते थे l समय गुजरता गया बच्चों की शादियाँ हो गयी ,पोते पोतियों से दौनो के घर आँगन भर गये lफिर जाने क्या हुआ बच्चों के आपसी मतभेदो के कारण दोनों दोस्तों की दूरियाँ भी बढ़ती गयी l प्यार वह अब भी करते थे पर अहम की दीवार बढ़ती ही गयी l
घर बनाते समय दोनों परिवारों के घरों के बीच की बाउंडरी वाल पर दीवार नहीं खींची गयी थी , एक दिन कॉलोनी वालों ने देखा कि दोनों के घरों के बीच ईंटों की दीवार पाटी जा रही हैl उस दिन न हरिहर बाबू ने न अलीखान जी ने खाना खाया ! हरिहर बाबू तो सो भी नहीं पा रहे थे l अपने घर के बरामदे में बैठे थे ,बस एकटक खींची दीवार को देखते जा रहे थे, बाहर बज़ रही चौकीदार की लाठी की ठकठक से टूटते सन्नाटे में कभी कभी उनकी सिसकियाँ भी शामिल हो जाती थी !
कल होली है पर इस बार की होली दोनों घरों के लिए बेरंग थी l यह पहली ऐसी होली होगी जब दोनों दोस्तों के दिलों में और घरों में सन्नटा पसरा था वरना तो सुबह से ही रंगों की बौछारों और ढ़ोल- चंगों की आवाज़ों से दोनों घरों में उत्सव शुरू हो जाता था l
होली दहन के दिन रात के करीब दो बजे हरिहर जी जब अपने कमरे में बैठे थे तो उन्हे ज़ोर से चीखने की आवाज़ सुनाई दी ,श्रीमती अली की आवाज़ वे खूब पहचानते थे ,वे फुर्ती से उठे ,देखा मेंन गेट पर ताला लगा है ,उन्होने आव देखा न ताव फावड़ा उठाया और ईंट की आज ही बनी गीली दीवार पे ठोंकना शुरू कर दिया ! सीमेंट अभी गीला था इसलिये कुछ ईंटें तोड़ कर खिड़की सी बनाई और अलीखान के घर में प्रवेश किया l घर का दरवाजा खुला था ,अलीखान आँगन में गिरे पड़े थे l श्रीमती अलीखान पानी के छींटे देकर उन्हे होश में लाने की कोशिश कर रहीं थी ,हरिहर जी को देखते ही बोलीं-'देखों न भाईसाहब ,खान साहब को क्या हुआ है , अभी तो बाहर चहल चहलकदमी कर रहे थे ,फिर कुर्सी पर बैठ गए थे ,शायद नींद नहीं आ रही थी l "
हरिहर बाबू ने कहा --"चिंता मत करो भाभी जान अभी जगाता हूँ ,ओए नाटककार अली ,उठ देख दीवार गिर गयी है ,उठ जा यार ,कसंम खुदा की अब यह दीवार कभी नहीं उठने दूँगा "
अली खान ने भीगी पलकें उठा कर हरिहर बाबू को देखा और फफक पड़े फिर दोनों ने एक दूसरे को बाहों में भर कर प्यार की झप्पी ली l घरवालों ने उन्हे देर तक गले लग कर रोने दिया !
अगले दिन कॉलोनी में जब ढ़ोल च्ंग और रंग के साथ होली का हुड़दंग मचाती टोलियाँ एक दूसरे पर रंग फ़ैकती घूम रही थी तब सबने देखा कि दोनों घरों के बीच की ईंट की दीवार ढहा दी गयी थी l
डॉ सरस्वती माथुर
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लघुकथा :
"गांधीजी के तीन बंदर !"
मुरली बाबू आज मुंह अंधेरे पार्क में घूमने चले गए थे ,पार्क सुनसान था ,बस एक कुत्ता कछुए की तरह अपने पाँव समेटे एक बैंच के नीचे सो रहा था ,एक लंबा चक्कर लगा कर वह भी कुछ देर एक बैंच पर सुस्ताने बैठ गये ,तभी पार्क के बीचों बीच लगे गांधी जी के तीन बंदरों पर उनकी निगाह गई ,अरे ये क्या तीनों बंदरों के हाव भाव कौन बदल गया ,उन्होने चश्मा नाक पर ठीक करके पास जाकर देखा तीनों बंदरों के नीचे लगी एक पट्टी पर मुद्रा को संदर्भित करता कथन भी लिखा हुआ था, अरसे से यूँ ही बैठे तीनों बंदरों की मुद्राएँ कुछ यूँ थी -
पहला बंदर -अंधा हूँ पर आजकल ऑपरेशन करा लिया है,बस रात में देखता हूँ और भृष्टाचार से मिले नोट गिनता हूँ !
दूसरा बंदर -समय बदल गया है तो मैं क्यूँ न बदलूँ?कम बोलता हूँ , नेता हूं! संसद में विपक्ष पर छींटे कस मन हल्का कर लेता हूँ !
तीसरा बंदर -बिलकुल समय बदला है तकनीकी भी बदली है , सुन रहा हूँ कि गाहे बगाहे एक दूसरे के कैसे कान काटे जाते हैं, यह सब अब कान की मशीन लगा कर सुनता भी हूँ , एक दिन संसद में गया तो देखा कि अरे यहाँ तो शब्दों का पूरा ज्ञानकोश है और अब जरूरत क्या है कानो पर हाथ रखने की ?
मुरली बाबू ने ध्यान से बंदर के बदले हाव भाव देखे ,मुद्राएँ कुछ यूँ थीं -पहले बंदर की आँखों पर काला चश्मा था lदूसरे बंदर का मुंह खुला हुआ था ।तीसरे बंदर के दोनों कानो में हियरिंग ऐड लगी थीl तभी उन्हें उनकी बीबी ने गहरी नींद से जगाया -""अजी सुनते हो सैर पर नहीं जाना क्या ?
चौंक कर मुरली बाबू जागे -"अरी भाग्यवान थोड़ी देर तो सोने देती, सपना देख रहा था, सच बंसी की अम्मा गज़ब का सपना था ...समय बदला तो गांधी जी के तीनों बंदरों की मुद्राएँ भी बदली दिखीं !
डॉ सरस्वती माथुर
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"तुलसी
का बिरवा !"
डॉ
सरस्वती माथुर
रामबहादुर जी ने एक एजेंट के माध्यम से अपना पुश्तैनी मकान बेच कर अपने बेटों के पास अमेरिका जाने का निश्चय किया था तो आस पास के सभी लोगों को घर की चीज़ें बाँट गए थे ! अपने देश से दूर जाना उनकी मजबूरी थी क्यूंकी दोनों बेटे वहाँ जा बसे थे ! इस घर से उन्हे बहुत लगाव था पर क्या करते ,कैसे उसकी देखभाल करते विदेश से बार बार आना संभव नहीं था ! उनके इस पुश्तैनी घर के अहाते में उन्होने बहुत से फलों के पेड़ और फूलों के पौधे लगा रखे थे, दूर दूर से लोग उनका यह बगीचा देखने आते थे ! हमेशा घर आँगन फूलों की महक से भरा रहता था ! उस घर के एक कोने में एक तुलसी का सुंदर बिरवा भी था ! इस राम ओर श्याम तुलसी को उनकी दादीजी ने बरसों पहले रोपा था और उसकी शाखाएँ इतनी फ़ेल गईं थीं कि जब उस पर तुलसी मंजरी के दल लटकते थे तो डालें झुक सी जाती थी !
बड़ी धूमधाम से हर वर्ष कार्तिक माह में उनकी दादी तुलसी शालिग्राम का ब्याह रचा, सारी बिरादरी को खीर पूड़ी खिलाती थीं ! वो दिन आज भी राम बहादुर जी को याद आते हैं ! दादी के बाद उनकी माँ ने भी उस परंपरा का पूरा सम्मान रखा और खुशकिस्मती से पत्नी भी उन्हे ऐसे ही संस्कारों वाली मिलीं थीं जो परंपरा ओर आधुनिकता की कड़ी थी! नौकरी भी करतीथी और सभी परम्पराओं को वैज्ञानिक मान कर बदस्तूर निभाती भी थीं ! विशेष तौर पर इस तुलसी के बिरवे को तो वो नियम से सींचती थीं, साँझ को दिया जलाना तो वो कभी नहीं भूलीं ! कार्तिक में भी वह भी तुलसी ब्याह की परंपरा निभाती थीl अंतर बस इतना भर था कि वह वक्त के अभाव में पूरी बिरादरी नहीं न्योत पातीं थीं ,बस करीबी सगे संबंधियों के साथ पूज लेतीं थीं !
घर
बेचने के बाद काफी
सालों तक राम बहादुरजी का देश
में आना नहीं हुआ ! अमेरिका में उन्हे हर पल अपना देश ,शहर
,पुश्तैनी
घर ,
दोस्त
व
अपने परिवार वाले बहुत याद आते थे l
वह
मौका ढूंढ
ही
रहे थे कि
उन्हे अपने साले
की
लड़की की शादी का निमंत्रण-पत्र
मिला ,उनकी
खुशी का ठिकाना न रहा! बहुत उत्साह से
उन्होने
अमेरिका से सभी नाते रिशतेदारों के लिए ख़रीदारी करी और भारत के लिए
सपरिवार
चल
दिये!
सबसे
मिले जुले ,अनुभव
भी सुखद रहा ! देखते ही देखते वक्त प्रवासी
चिड़िया सा फुर्र हो गया ! जाने
का समय नजदीक आ गया !
समय
कम रह
गया था ,एक
दिन उन्होने
हिचकते हुए अपने बड़े बेटे से अपने
मन की ख्वाईश कह दी ...
“श्रीकांत, तू कहे तो
हम
जयपुर जा
आयें , रिश्तेदारों और दोस्तों से भी मिल आएंगे ,कुछ
पुरानी यादें ताजा कर आएंगे ,फ्लाइट
से दिल्ली से बीस मिनट ही
तो दूर है जयपुर,
क्या कहता है ? बेटा
मुस्कराया और उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए उनके जाने का इंतजाम भी कर दिया
l
कुछ
रिश्तेदार वहाँ थे ,
दोस्त
थे, सबसे मिल कर
दोनों
पति पत्नी आनंद से भर उठे !
लेकिन
यहाँ आने के बाद शहर में अपने पुश्तैनी घर
को
एक नज़र देखने का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रहे
थे रामबहादुर जी ! एक शाम पत्नी के साथ पहुँच
ही गए ! उन्होने देखा कि घर
पूरी
तरह से नयी शक्ल ले चुका था पर जमीन तो वही थी ...आसपास की खुशबू भी वैसी
ही थी, हाँ संदर्भ, परिवेश ओर कुछ लोग अलबत्ता बदल गए थे
l
राम बहादुर जी कुछ
पल घर के बाहर नि:शब्द खड़े रहे, फिर डरते डरते
घर
का द्वार खटखटाया ! द्वार
खुला तो देखा सामने
युगल दंपति खड़े थे ,रामबहादुर
जी ने अपना परिचय
दिया और अपनी भावनाये
बताई
तो बड़े सम्मान से युगल दंपति ने मुस्कराते
हुए खुले दिल से उनका स्वागत किया!
युगल
दंपति की बुजुर्ग अम्मा
व
,नन्हें
बच्चे भी उनके इर्द गिर्द आ खड़े हुए थे! यूं
बिलकुल नहीं लग रहा था कि सब पहली बार मिल रहें हैं !
खूब ढेरों बातें हुई ,चाय
पानी
के
बाद
वह
उठने ही वाले थे कि उनकी अम्मा ने कहा -- " रुको बेटा, साँझ हो गयी है,
मैं
तुलसी बिरवे पर दिया बाल
कर
अभी आई और हाँ तुम
अच्छे अवसर पर आए हो ,आज घर
में शालिग्राम जी की पूजा
रखी
थी
,उसका
प्रसाद भी लेते
जाना
!
रामबहादुर
जी ने भावाकुल
हो अपनी
पत्नी की
ओर देखा तो पाया उसकी
आँखें नम थी , रामबहादुर जी की पत्नी तभी कह
उठीं -"अम्मा
जी
, तुलसी बिरवा है अभी....क्या
हमारा बुजुर्गों का रोपा हुआ ... ?"
"हाँ
बिटिया
है न हमारे बाग में, हाँ अहाते में तो जरूर कुछ नए कमरे बन गए हैं
अब
, पर यह तुलसी
मैया
तो इतनी
फैलीं
हुईं थी कि इनकी जड़ें कैसे काटते
हम
,
मैंने
न हटाने दिया तुलसी मैया को, ... आर्र्कीटेक्ट भैया ने अहाते
में ही एक छोटा
सा
गार्डेन बना दिया
तो हमने आपके
द्वारा लगाई इस
पावन धरोहर को सहेज
लिया, अरे आओ
न तुम
भी दर्शन करो और
बहू आई ही हो
तो अपने हाथ से तुलसी बिरवे पर दीपक भी
तुम्ही बाल
दो ! "
रामबहादुर जी और उनकी
पत्नी
नि:शब्द
भावविभोर तुलसी बिरवे के पास खड़े थेl
दिया ज्योतित हो चुका था ! उन्हे
उसकी लौ में अपने बुजुर्ग दिखने का सा आभास हो रहा था ...
दूर से
आ
रही
मंदिर
की घंटियाँ की आवाज़ कानो में रस घोल रही थी! हवा के ठंडे झोंकों में बगिया से मोगरे
गुलाब की खुशबू वातावरण को महका रही थी lदोनों भाव
विभोर अभी भी तुलसी मैया के आगे हाथ जोड़े खड़े थे !
सच में उनका भारत आना सफल हो
गया
था और
मन
फूल सा हल्का था
! राम बहादुर जी मन
ही
मन सोच रहे थे कि
चाहे हम कितने ही आधुनिक हो
जाएँ
पर यदि अपनी विरासत में मिली परम्पराओं
को हम
दिल में सहेज
लेंते हैं तो सारा
परिवेश रसमय और पवित्र हो जाता है, जो आज के पर्यावरण के लिए जरूरी भी है
! पर्यावरण शुद्ध होगा तो प्रकृति
भी हमेशा महकेगी और
जीवन
में चिड़ियों की चहक सी
खुशियाँ भी हमेशा बनी
रहेगी !
डॉ सरस्वती माथुर
6
लघुकथा
" सपनों की गुलाल !"
आज घर में चहल पहल थी ,शेखर विदेश से लौट जो रहा था l कुछ दिन बाद ही होली भी आ रही है l माँ बसंती देवी ने बेटे की पसंद की केसरिया खीर ,दही बड़े ,गुझिया और ठंडाई बनाई और बेचैनी से इंतज़ार करने लगी ,वह बहुत बड़ा आँखों का डॉक्टर बन कर जो आ रहा था ! उसके पिता बंसी लाल जी की भी बस एक ही आरजू थी कि बेटा डॉक्टर बन कर गरीबों की सेवा करे विशेष तौर पर दूर के उन गांवों मे जहां डॉक्टर नहीं जा पाते हैं !और आज वह दिन आ गया था ! बेटे के स्वागत में सारा परिवार एक ही आँगन में आ जुटा था !
घर के आँगन में महिलाएं उत्साह से ढोलक पर फाग गा रहीं थीं --"-होलिया में उड़े रे गुलाल, खेले रे मंगेतर से ...!" पूरी कॉलोनी में हवा के साथ उस घर की खुशियों भरी बासन्ती बयार भी बह रही थी l
शेखर एयरपोर्ट से घर पहुंचा तो सभी ने उसे फूल मालाओं से लाद दिया था ! सभी बहन बेटियाँ नेक मांग कर छेड रहीं थी ..." अरे शेखर भैया अपना सूटकेस तो खोल कर दिखाओ कहीं इसमें गौरी बहुरिया मेम तो नहीं भर लाये हो विदेश से ? " घर के बच्चों के लिए तो मानो कोई उत्सव सा था ,अपने ही रंग में डूबे पिचकारी में पानी भर भर कर एक दूसरे पर फैंक रहे थे l सारा आँगन रंग रंगीला हो गया था !इसी ऊहापोह में पूरा दिन भी हंसी खुशी से गुजर गया था l अगले दिन से ही शेखर को एक चैरिटी अस्पताल में नौकरी शुरू करनी थीl विदेश से ही सारी औपचारिकताएं पूरी करके ही लौटा था !
अस्पताल का पहला दिन भी होली के त्यौहार सा मदमस्त था, क्युंकी अस्पताल के परिसर में ही रोटरी क्लब की तरफ से एक चिकित्सा शिविर का आयोजन था ! संस्थान की तरफ से ही गांवों ढाणियों से बसों में बैठ कर मरीज आए थे, मोतियाबंद आपरेशन व सलाह मशविरा के लिए डॉक्टर शेखर देख रहा था कि शिविर में आए लोग कितनी आशायेँ लेकर आते हैं ,उसे अपने पिता के शब्द याद आए कि बेटा डॉक्टर बन कर लोगों के जीवन में रंग घोलेगा l सच में जिनकी आँखें नहीं हैं उनके लिए काला रंग ही उनका संसार है ,उनकी पूरी दुनिया है l इस दुनिया को रंगीन बनाना ही अब उसका मकसद होगा l
शेखर ने घर लौट कर अपनी माँ बसन्ती देवी को पहले दिन का पूरा आँखों देखा हाल बताया तो वो भावुक हो गईं यह सुन कर कि दुनिया में कितने ही नेत्रहीन भी हैं जिनकी दुनिया में उजाला नहीं है , बहुत देर तक वो कुछ सोचती रहीं ,फिर संजीदा होकर बेटे से बोलीं ---"बेटा मैं तो अस्सी वर्ष के करीब पहुँचने वाली हूँ, अब कितनी जिंदगी शेष बची हैl एक काम करना न, कल मेरे को नेत्र दान का फार्म ला देना ताकि मैं मृत्यु के बाद आँखें दान देकर किसी के जीवंन में रोशनी भर सकूँl "
शेखर अपनी माँ की इस परोपकारी भावना को देख कर गर्व से भर गया ,सोचने लगा सच यदि हम अपने घर से ही ऐसी सेवाभावी जरूरत की योजना की पहल करें तो ना जाने कितने लोगों को रंगों की दुनिया से जोड़ सकेंगे ! इसी के साथ उसे एहसास हुआ कि इस बार की होली कुछ अनूठी है, जिसमे च्ंग ,मृदंग ,टेसू रंग के साथ इस घर के आँगन में कुछ लोगों के सपनों की गुलाल भी उड कर वातावरण को आशाओं की खुशबू से महका रही है !
डॉ सरस्वती माथुर7
लघु कथा
" मकर सक्रांति !"
आज मूलचंद बाबू जब घर लौटे तो बहुत उदास थे ,हाथ मे उनके एक लिफाफा था और माथे पर चिंता की लकीरें थी ! उनकी पत्नी शरबती उस समय रसोई में बैठी लहसुन छील रही थी और घर की
मिसरानी सिलबट्टे पर पोदीने की चटनी पीस रही थी ! मूलचंद जी को चिंतित देख सभी के चेहरे पर एक प्रश्न चिन्ह टंक गया --"क्या हुआ साहिब जी ,किसका खत है ?:
"तुम्हारे बबुआ का !" मूलचंद जी रसोई में ही पत्नी के पास रखी चटाई पर बैठ गए "अरे वाह क्या लिखा है ,वो आ रहा है न ऑफिस के काम से ? " शर्बती की आवाज़ में उत्साह था हाँ भाग्यवान आ रहा है बबुआ लेकिन अकेला न है अपनी अंग्रेज़ बहू को भी साथ ला रहा है ,लिखा है कभी भी पहुँच कर सरप्राइज़ देगा !" "ओह हो, पर साहिब जी हम तो कह दिये थे बबुआ को कि अंग्रेज़ से ब्याह कर लिया है तो हमारे घर की देहरी पर उसे लेकर पैर न धरियो ..अब देखो दो बरस हो गए हैं ,कलेजे पर पत्थर रख लिये है ,कभी याद किए ओको ?"
जान दो बीबी जी , गाहे बगाहे रोती तो रहती हो छुप छुपके ,बात करती हो, हम से का ये बात छुपी है ...मिसरानी ने हंस कर कहा तो शरबती ने मुंह बना कर कहा ..".हम मियां बीबी के बीच तू क्यूँ बोलती है जासूसनी ? चलो जो है बबुआ को कह देंगे कि उसे कहीं होटल में ठहराने का बंदोबस्त कर ले ! मिसरानी बबुआ का कमरा संवार दीजों!" कह कर शरबती अपने पलंग पर जा लेटी! सोचने लगी यह विदेशी हवा इंसान का कितना कुछ छीन लेती है !यह सोचती शरबती की जाने कब आँख लग गयी ! तभी मिसरानी ने झँझोड़ा तो वो चौंक कर जागी ,तभी देखा बबुआ पैरों के पास खड़ा है और एक गोरी सी महिला साड़ी में लिपटी उसके पास खड़ी है !वह भौचकी सी उन्हे देख रही थी तभी वह गौरी सी महिला उनके पैरों पर झुक कर बोली --"प्रणाम माँ !" उनके बिलकुल पीछे मूलचंद जी खड़े मुस्कराते हुए बोले -" शरबती, तेरी बहू हिन्दी भी बोलती है और बड़े संस्कार वाली है ,अरी देख साड़ी भी डाली है ""हाँ साहबजी देखा मैंने! " शरबती ने सारे शिकवे गिले भूल बहू को गले लगाया तो जाने क्यूँ मूलचंद जी की आँखें नम हो गयीं और वे सोचने लगे कि देश हो या विदेश बस परम्पराएँ जरूर अलग होती हैं पर भावनाएं तो वही होती हैं ! तभी मौहल्ले के बच्चों का शोर गूँजा... "वो काटा ! "
विभिन्न रंगों की पतंगे आकाश में उड रहीं थी ,कौन सी कट कर किसके आँगन में गिरेगी किसे मालूम होता है कि वो किस जाति के हाथों से उड़ी है ,किस व्यक्ति की है इससे किसी को इससे सरोकार नहीं होता क्यूंकी ईश्वर का बनाया आकाश सब का होता है और डोर से बंधी जमीन से उड आसमान में लहराती अलग- अलग रंगो की पतंगों का भी कोई मजहब नहीं होता है बल्कि सभी रंग एक दूसरे से मिल कर आकाश को सतरंगी आभा से सरोबार कर देते हैं !
,पतंगों का मनभावन मौसम था और मकर सक्रांति का अवसर ! फिर बेटा बहू दो साल बाद मिले थे ,इस अहसास को महसूस कर शरबती ने मिसरानी को बोला --"जा री पूजा का थाल ला आज मेरी बहू पहली बार घर आयी है, स्वागत तो करूंगी न ?"
और हाँ माँ तिल के लड्डू और पपड़ी भी बनाना सिखाइयेगा ,बायना भी निकालना होगा न आज ,आपके बेटे ने यहाँ के हर रीति रिवाज से मुझे अवगत करा दिया है ,माँ हमारे यहाँ थैंक्स गिविंग होता है, क्रिसमस होता है, यहाँ भी वही सामूहिक भावना होती है ,बस नाम बदल जाते हैं ! देखिये दो साल में मैंने हिन्दी भी सीख ली ? गौरी महिला ने माँ का हाथ पकड़ कर कहा तो घर में उत्साह की लहर दौड़ गयी और शरबती को भी अहसास हुआ कि क्या हुआ बहू पश्चिम की है , मैं अवश्य उसे पूरब के रंग में ढाल लूँगी ! मकर सक्रांति में सूरज दक्षिण से उत्तरायन की तरफ आ जाता है जो ऋतु चक्र है। बदलाव का संकेत और आज मेरे घर का जीवन चक्र भी बदला है परिवर्तन की व पलटते युग की बदलती मान्यता की मांग है ....पश्चिम का यह सूरज पूरब की दिशा में आया है तो चलो इस उत्सव का स्वागत पूरी बिरादरी को को बुला कर किया जाये, एक अच्छी पार्टी दूँगी ! इस बदलाव का दिल से स्वागत करूंगी ! और शरबती की इस सोच के साथ ही मूलचंद जी के घर में ही नहीं आज पूरे मौहल्ले में चहल पहल का वातावरण बन गया सच में इस बार की मकर सक्रांति उत्साह, बदलाव और प्रेम लेकर जो आई थी !
डॉ सरस्वती माथुर
8
लघुकथा
"सोने की चिड़िया...मेरा देश !"
वो जहां तहां सो जाता था अपनी उधड़ी चटाई बिछा कर जब काम पर जाने से कुछ देर पहले मैं उसे जगाती थी तो वो मुस्करा कर मेरी ओर देखता था- "अरे बुद्धा ,
सूरज चढ़ गया है ,अब तो जागो -अब तक सोये हो ? गलत बात हैl", वो मुस्कराया बोला-" न न दीदी, सोया कहाँ था, बस सपना देख रहा था "!
"अरे पगले ,सोयी आँखों का सपना कोई रंग लाता है भला? देखना हो तो जाग कर देखोl"
" वो कैसे दीदी "-,मेरे माली के तेरह साल के बेटे बुद्धा ने उत्सुकता से पूछा तो उसकी आँखों के चाँद भी चमक उठे !
"पहले बताओ तुम अभी बंद आँखों से क्या सपना देख रहे थे?"
मैं देख रहा था कि मेरा देश एक परिवार की तरह अब साथ रह रहा है और हैरान था देख कर कि देश के सारे घर खुले हैं ,किसी भी घर में ताला नहीं है ,सब प्रेम की भाषा में एक दूसरे से बातकर रहें हैं कोई भी किसी को अपशब्द नहीं क्रह रहा है और मेरा देश अब सोने की चिड़िया कहलाता है सिर्फ शांति के गीत गाता है वो गीत सुन रहा था कि तभी आपने जगा दिया!
"अब आप बताओ न दीदी कि जाग कर भी देख सकता हूँ क्या ऐसा सुंदर ख्वाब ?"अब मैं निरुतर थी, बस इतना कह कर चल पडी कि -" हाँ बुद्धा अब आँख मूँद कर यह देखना कि इस सपने को पूरा करने के लिए क्या क्या प्रयास करने चाहिए?,शेष फिर बताऊँगी"
और उस दिन से मेरी आँख में भी यह सपना लगातार मंडरा रहा है !
डॉ सरस्वती माथुर
9
लघुकथा
"हिंदी दिवस पर थैंक यू !"
एक बार हिंदी दिवस समारोह में एक प्रतिष्ठित कवि को अध्यक्ष की हैसियत से आमंत्रित किया गया l समारोह धूमधाम से संपन्न हुआ l इस समारोह में हिंदी की महत्ता पर विशेष जोर दिया गया , बार बार दोहराया गया कि हिंदी हमारी मातृभाषा है ,हमे हिंदी का प्रयोग ही करना चाहिए l अंत में अध्यक्ष महोदय ने भी हिंदी कितनी सार्थक राष्ट्रीय भाषा है ...इस पर जोर देते हुए अपना अध्यक्षीय भाषण समाप्त किया l
समारोह में अध्यक्ष महोदय का दस वर्षीय बेटा भी मौजूद था l उस पर भी हिंदी भाषा के प्रयोग का खूब प्रभाव पड़ा ! कार में बैठते समय बड़ी विनम्रता से अयोज़कों के एक मुख्य सदस्य को उनके बेटे ने बड़ी विनम्रता से कहा --"धन्यवाद, अंकल जी , सच आज मुझे बहुत अच्छा लगा l "
अध्यक्ष महोदय ने बेटे को चिकौटी काटते हुए समझाया ,"थैंक यू बोलतें हैं बेटे ...!"
डॉ सरस्वती माथुर
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लघुकथा :
" मान सम्मान का नया रसरंग !
पिछले एक हफ्ते से मोना बुजुर्गों का मान सम्मान विषय पर हो रहे एक सेमीनार में अपने शहर आई हुई हैl अपने शहर यानि अपना मायका, जहाँ जीवन के २५ वर्ष उसने गुजारे थेl हमेशा इस शहर में आने के मौके वो तलाशती रहती है !इस बार माँ के गुजरने के बाद पहली बार आई है l खुशबू की तरह हर कोने में माँ की यादें बसी हैं , वैसे भी होली आने के दस दिन पहले से ही मोना के मायके में सफाई का अभियान शुरू हो जाता था l पुरानी किताबें, अखबार और खाली डिब्बों का आँगन में अम्बार लग जाता था !उसके बाद पकवान गुजियाँ का दौर शुरू होता था lकांजी डाली जाती थी ! नवीन उत्साह से घर में रंग रोगन के बाद रंगोली बनाई जाती थीl पिताजी की तस्वीर पर नयी माला चढती थी l पिताजी एक जाने माने लेखक थे ,माँ बड़ा गर्व करती थी l पिताजी की एक एक किताब को वो छाड़ कर वापस पुस्तकालय में जमा कर धूप बत्ती दिखा देती थी l मोना को याद है माँ हमेशा कहती थी, इन किताबों को मैं लायब्रेरी में भी दान नहीं दे सकती क्यूंकि मुझे लगता है तेरे पिता इनमे आज भी जिन्दा हैं, गाहे बगाहे इन किताबों से बाहर आकर ,घर भर में घूमते रहते हैं l मोना का दिल भर आया था l
आज भी घर में सफाई अभियान चल रहा था l घर का पुराना नौकर रामू तहखाने से बोरा भर कर लाया और आँगन में उलट दिया ! मोना ने देखा माँ की संगृहीत पुस्तकें ,गीता ,रामायण और भी बहुत सी धार्मिक किताबों के साथ पिता जी की लिखी किताबों का ढेर भी वहां उलट दिया था , रद्दी वाला उन्हें तौलने को तैयार था l भाई वहां आराम कुर्सी पर बैठे थे l उनके आदेश पर रामू रद्दी ला रहा था l तभी रसोई घर में से धोती से हाथ पोंछती भाभी आँगन में आयीं और कुछ देर मौन खड़ी उन किताबों को देखती रहीं !फिर भैया से बोलीं -"आप इन्हें निकाल रहे हैं?"
"हाँ शांता ,क्या करेंगे, देखो सब पर दीमक लग गये हैं l" भैया ने एक किताब पर बने दीमक के घर को दिखाया !
भाभी ने तपाक से जवाब दिया -" जी नहीं यह रद्दी नहीं है l यह मेरी सास और ससुर की जमा पूँजी है lअपने जीते जी मैं इन्हें नहीं बेचने दूंगी !" मैं अम्मा की तरह ही हर साल इन्हें सहेजऊँगी!" वह प्रणाम की मुद्रा में झुकी और पिताजी की लिखी किताब को माथे से लगा बोलीं -"रामू सबको झाड कर वापस पुस्कालय में ज़माना है ,चल वापस बाँध !"
तभी बाहर चंग डफ के साथ फाग के गीतों से लिपटी बयार ने घर आँगन में मान सम्मान का नया रसरंग घोल दिया था ,यूं लगा माँ पिताजी होली का आशीर्वाद देने हवा की पालकी पर बैठ कर आए हैं !मोना ने कृतज्ञता से भाभी की ओर देखा! उनकी आँखें नम थीl भैया अवाक् से उन्हें देख रहे थे ! रद्दी वाले की तराजू अभी भी हवा में लटकी थी !
माँ की आँखें
डॉ सरस्वती माथुर
किस कद्र राघव की यादें पीछे दौड़ रही थीं.उस रेलगाड़ी से भी तेज जिसकी खिड़की पर बैठा वो पेड़ पर्वत ,खेत ,खलिहान ,झोंपड़ियाँ और आकाश को पीछे छूटते देख रहा था ...भागती ट्रेन के साथ उसके हाथ में दबा ख़त भी हवा की तरह सरसरा जाता थाl अब कैसे अपने से आँख मिलाये वो ? माँ की सखी जिसे वो डॉ मौसी कहता था उस ख़त के पीले पन्नों से बोल रही थीं "रघु बेटा, माँ नहीं रहीं ,तुम फ़ौरन आ जाओl "आज एक सच का भी सामना तुम्हे करना होगा ... माँ का वादा था कि तुम्हे उनके जीते जी यह सच न बताया जाये ..बात तब कि है जब तुम्हारे पिता का देहांत हो चुका था l उन्ही दिनों जब तुम मात्र तीन वर्ष के थे, एक बार तुम्हे तेज बुखार आया था और किसी संक्रमण के कारण तुम्हारी आँखों की रोशनी भी चली गयी थीl तब तुम्हारी माँ ने अपनी एक आँख तुम्हारे को दान कर दी थी, वो चाहती थी कि तुम हमेशा रोशन संसार देखो .तुम्हारी बायीं आँख कि रोशनी थोड़ी धुंधली थी ...दाहिनी आंख कि रोशनी पूरी तरह चली गयी थी l किसी और से तुम्हे सच्चाई पता न चले इसलिए माँ अपना शहर छोड़ कर मुंबई आ गयी थी l यहाँ आकर एक एन .जी . ओ .के साथ जुड़ गयीं l तुम्हे आँखे मिल गयीं, तुम देखने लगे ...पढ़ लिख गए, एक सफल कारोबारी हो गए l विदेश में भी अब तुम्हारा कारोबार फ़ैल गया l बेटा, तुम्हे आज भी याद होगा...जब मुंबई में तुम पढ़ते थे और जब स्कूल में तुम्हारी टीचर पैरेंट्स मीटिंग होती थी तो तुम माँ को कहा करते थे कि वो स्कूल न आये ,उनके दोस्त उन्हें चिढ़ायेंगे कि तुम्हारी माँ कानी है और तुम्हारी माँ मुझे तुम्हारा अभिभावक बना कर भेजती थी ताकि उसकी वज़ह से तुम्हे अपने सहपाठियों के सामने शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा और अंत में डॉ मासी ने लिखा था रघु बेटा अब तुम्हे कभी शर्मिंदा नहीं होना पड़ेगा ...मोहिता अब हमेशा के लिए जा चुकी हैl."
राघव की आंख के आंसू मानो पत्थर हो गए थे और दिमाग शून्य बस अगर याद था तो वो दृश्य जब एक बार राघव को खाना खाने बुलाने माँ पार्क में आई थी तो वह कितना नाराज हुआ था ,घर आकर उसने थाली फैंक दी थी -"तुम्हे कितनी बार कहा है माँ कि तुम मेरे दोस्तों के सामने मत आया करो तुम्हारी ख़राब आँख के कारण सब मेरी हंसी उड़ाते हैं ...तुम औरों कि माँ जैसी क्यूँ नहीं हो ?"राघव को अपने कहे यह शब्द तीर से चुभने लगे l
" आगे से धयान रखूंगी मेरे लाल, ले खाना खा ले और कान पर हाथ लगा कर सौरी बोला था माँ ने ... !"सोच कर एक राघव घायल पाखी सा तड़प उठा , अपने आप से घृणा सी हो आई उसे l
भागते दृश्यों के साथ वह जोर से चिल्लाना चाहता था------ "माँ , मुझे माफ़ कर दो ,मेरे जीवन में रोशनी भर कर तुम अंधेर में गुम नहीं हो सकतीं ,लौट आओ माँ ...मैं माफ़ी मांगने के काबिल तो नहीं पर एक बार तो मुझे मौका दो कि मैं तुम्हारे इस त्याग का मोल चूका सकूँ .. मुझे माफ़ कर दो माँ ....l" उसकी बायीं आँख की कोर पर आंसू के सैलाब अटक गएl एक कोमल सा गीला सा स्पर्श उसे अपनी गाल पर महसूस हुआ ... जाने क्यूँ उसे लगा वह आंसू की बूंदों को सहलाता स्पर्श नहीं मानो माँ का हाथ है , जो उसे सहला रहा है.. उसे माँ अपने बहुत करीब महसूस हुई lट्रेन अब एक लम्बी अँधेरी सुरंग से शोर मचाते हुए गुजर रही थी और वह फूट फूट कर रोने लगा !
डॉ सरस्वती माथुर
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लघुकथा : " लक्ष्मी का दीया !"
आज फिर दीवाली का त्यौहार है ,बच्चे पटाखे फुलझडियाँ छुडा रहे हैंl दादी माँ भी गाँव से यहाँ इस अवसर पर आ गयीं थींl
बच्चों ने दादी माँ के लिए बरामदे में कुर्सी लगा दी थी ताकि वह भी देख सकें शहर की दीवाली की रंगीनियाँ lअस्सी साल की दादी माँ पोते पोतियों को देख रहीं थीं ,पास ही बहुएँ लैपटॉप खोले बैठी थीं ,छोटी बहू ने तुरंत ऑनलाइन एक डिस्काउंट
वाला होटल खोज लिया था और अब फो...
न पर बुकिंग कर रहीं थीं l
पूजा हो चुकी थी, एक थाली में बाज़ार से लायी मिठाई ,नमकीन और फल चढ़ा कर मंदिर को छोटे लट्टुओं से सजा दिया था! बाहर मुंडेर पर भी छोटे छोटे रंगीन बल्बों की लडियां लटकीं थींl सब खुश थे बस दादी माँ सोच रही थीं ,कहाँ खो गए वो माटी के दिए ,खील बताशे ,लक्ष्मी माँ की पन्नियाँ , रसोई घर से उठी पूरे घर आँगन को महकाती पकवान की लार टपकाती खुशबू !सभी तैयार थे रेस्तरां जाने को lबहुओं ने लाइफ स्टाइल से सेल में खरीदीं नए जींस और टॉपर अमेरिकन ज्वेलरी के साथ पहन रखीं थीं l घर आँगन में रौनक थी पर न नाते रिश्तेदार थे न पहले सा अपनापन, बाहर पटाखों का कानफोडू शोर था, रेस्तरां में भी गजब की भीड़ थीl सभी खुश थे दादी माँ भी सर पर पल्लू लिए बैठीं थीं, भौंचकी सी इधर उधर देख रहीं थीं l सब चटकारे ले लेकर पिज़्ज़ा ,नूडल्स ,और सिजलर खा रहे थेl बच्चों के साथ थी दादी माँ पर न जाने क्यों मन वहां से दूर गाँव में था और वह सोच रहीं थी कि पड़ोस की नारंगी काकी ने लक्ष्मी की पूजा करके खीर पूड़ी का भोग लगा कर उनके आवाहन के लिए रात भर जलने वाला दिया अब तक जरुर जला दिया होगा!
डॉ सरस्वती माथुर
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"करवा चौथ का चाँद !"
करवा चौथ का दिन था! चारों तरफ चहल पहल थी , आकाश बादलों से घिरा था ,चाँद निकलने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे ,आज सुबह से ही बूँदा बाँदी हो रही थी! कृष्ण निकुंज का दालानहर साल की तरह इस वर्ष भी इस पर्व का आयोजन कर रहा था! इस निकुंज में दस फ्लैट थे,जिनमे सभी भारतीय परिवार के लोग थे ! बड़ा उल्लसित करने वाला नजारा रहता था सजी धजी महिलाओं के समवेत स्वर और खिलखिलाहट से दालान गुंजायमान हो उठता था ! करवे और थाल से सजी थालियाँ लिए महिलाए बार बार आकाश को निहारतीं और उनके पति भी बैचैनी से इधर उधर डोलते रह रह कर घडी देखते अखबार के अनुसार इस ८.१० पर चाँद निकलने की संभावना थी ! डीजे पे चल रहा था..." आज है करवा चोथ सखी री... "ठुमके पे
थिरक रही महिलाओं में गज़ब का उत्साह था!
श्रीकान्त स्वामी जी भी इस निकुंज के दूसरे फ्लोर पे रहते थे उनकी बहू का पहला करवा चौथ था इसलिए उनकी दादी माँ कल्याणी जी विशेष रूप से गाँव से आयीं थीं , वह भी इस बदलते स्वरुप को एक कुर्सी पर बैठी देख रहीं थीं !हैरान भी थी कि किसी भी घर से पकवान मठरी की खुशबू नहीं आ रही थी, सभी के पैकेट कैटरर ने बना दिए थे, कोई प्यासी नहीं थीं, सब कॉफ़ी कोक की चुस्कियां ले रहीं थीं ,अब पति कैसे पानी पिला के व्रत खोलेगे, कल्याणी देवी कुछ कुछ समझ नहीं पा रहीं थीं ,लेकिन वे मुस्करा रहीं थीं ,उन्हें अपना गाँव भी याद आ रहा था ,जहाँ के हर घर से मठरी पूवे की खुशबू आ रही होगी और वह हैरान सी सोच रहीं थीं कि इस अवसर पर तो बादल इतने नहीं होते थे! प्रकृति ने भी रूप बदला है! तभी दूरदर्शन पर न्यूज़ रीडर ने घोषणा की कि चाँद निकल आया है लेकिन बादलों के कारण बहुत से प्रदेशों में नज़र नहीं आएगा, आप चाहें तो हमारे मॉनिटर पर चाँद देख कर व्रत खोल सकतें हैं ! फिर क्या था सभी ने टी॰वी॰ के चाँद को अर्क देकर सभी औपचारिकताए पूरी कर लीं थी , जिनके पति बाहर थे उन्होने लैपटाप पर फ़ेस टाइम कर लिया था और व्रत खोल लिया था .... इस बीच डीजे के स्वर तेज हो गए थे .. हंसी मज़ाक के साथ .खाने पीने का दौर चल रहा था ,सभी केटरर के खाने का लुत्फ उठा रहे थे, श्री कान्त स्वामीजी की दादी माँ का चाँद पर अभी नहीं निकला था, उनके पति झाईं गाँव में सरपंच थे, किसी विशेष कार्य के कारण आ नहीं पाये थे ,कल्याणी देवी को उनकी बहुत याद आ रही थी ,वो अपने पति की तस्वीर के सामने बैठी पूरी रात खिड़की के पास खड़ी अपने गाँव वहाँ की परम्पराएँ पुए- पूड़ी और चाँद का इंतज़ार करती रहीं थीं !
डॉ सरस्वती माथुर
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लघुकथा :
पिताजी की पूँजी
पिछले एक हफ्ते से मोना बुजुर्गों का मान सम्मान विषय पर हो रहे एक सेमीनार में अपने शहर आई हुई हैl अपने शहर यानि अपना मायका, जहाँ जीवन के २५ वर्ष उसने गुजारे थेl हमेशा इस शहर में आने के मौके वो तलाशती रहती है !इस बार माँ के गुजरने के बाद पहली बार आई है l खुशबू की तरह हर कोने में माँ की यादें बसी हैं , वैसे भी होली आने के दस दिन पहले से ही मोना के मायके में सफाई का अभियान शुरू हो जाता था l पुरानी किताबें, अखबार और खाली डिब्बों का आँगन में अम्बार लग जाता था !उसके बाद पकवान गुजियाँ का दौर शुरू होता था lकांजी डाली जाती थी ! नवीन उत्साह से घर में रंग रोगन के बाद रंगोली बनाई जाती थीl पिताजी की तस्वीर पर नयी माला चढती थी l पिताजी एक जाने माने लेखक थे ,माँ बड़ा गर्व करती थी l पिताजी की एक एक किताब को वो छाड़ कर वापस पुस्तकालय में जमा कर धूप बत्ती दिखा देती थी l मोना को याद है माँ हमेशा कहती थी, इन किताबों को मैं लायब्रेरी में भी दान नहीं दे सकती क्यूंकि मुझे लगता है तेरे पिता इनमे आज भी जिन्दा हैं, गाहे बगाहे इन किताबों से बाहर आकर ,घर भर में घूमते रहते हैं l मोना का दिल भर आया था l
घर का पुराना नौकर रामू तहखाने से बोरा भर कर लाया और आँगन में उलट दिया ! मोना ने देखा माँ की संगृहीत पुस्तकें ,गीता ,रामायण और भी बहुत सी धार्मिक किताबों के साथ पिता जी की लिखी किताबों का ढेर भी वहां उलट दिया था , रद्दी वाला उन्हें तौलने को तैयार था l भाई वहां आराम कुर्सी पर बैठे थे l उनके आदेश पर रामू रद्दी ला रहा था l तभी रसोई घर में से धोती से हाथ पोंछती भाभी आँगन में आयीं और कुछ देर मौन खड़ी उन किताबों को देखती रहीं !फिर भैया से बोलीं -"आप इन्हें निकाल रहे हैं?"
हाँ शांता ,क्या करेंगे, देखो सब पर दीमक लग गये हैं l" भैया ने एक किताब पर बने दीमक के घर को दिखाया !
भाभी ने तपाक से जवाब दिया -" जी नहीं यह रद्दी नहीं है l यह मेरी सास और ससुर की जमा पूँजी है lअपने जीते जी मैं इन्हें नहीं बेचने दूंगी !" मैं अम्मा की तरह ही हर साल इन्हें सहेजऊँगी!" वह प्रणाम की मुद्रा में झुकी और पिताजी की लिखी किताब को माथे से लगा बोलीं -"रामू सबको झाड कर वापस पुस्कालय में ज़माना है ,चल वापस बाँध !"
मोना ने कृतज्ञता से भाभी की ओर देखा! उनकी आँखें नम थीl भैया अवाक् से उन्हें देख रहे थे ! रद्दी वाले की तराजू अभी भी हवा में लटकी थी !
डॉ सरस्वती माथुर
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लघुकथा : बालदिवस
सुबह से ही स्नेह आश्रम में हलचल थीl बाहर लॉन में दरी बिछा दी गयी थी और सभी अनाथ बालिकाओं को पंक्तिबद्ध बिठा दिया गया था l राजरानी देवी की तरफ से बच्चों के लिए बाल दिवस के उपलक्ष्य में नाश्ता पानी का आयोजन था l उनकी तरफ से एक लम्बी मेज पर कलफ लगी चमचमाती सफ़ेद चादर पर खाने पीने की सामग्री सजा दी गयी थीl मिठाई के रंग बिरंगे डिब्बे ,फल समोसे ,नमकीन ,पीने के लिए जूस और एक एक जोड़ी परिधान वहां गुलदस्ते में सजे फूलों से शोभा बढा रहे थे !
करीब नौ बजे चमचमाती टोयोटा कार आकर बाहर रुकी l कांजीवरम की साडी ,आँखों पर मैला काला चश्मा पहने राजरानी जी जब उतरीं तो बालिकाओं की आँखों में चमक आ गयी l सुबह से वो भूखीं थीं ,पेट में चूहे दौड़ रहे थे l आश्रम की बड़ी दीदी और सहयोगियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया l लॉन में लगी छतरी के नीचे उनकी कुर्सी लगा दी गईं थी l वे देर तक आश्रम की जानकारी लेती रहीं, बीच बीच में साफ़ धुले वस्त्रों में बैठी बालिकाएं बड़े प्यार से उन्हें निहार रहीं थींl घडी की सुईयाँ टिक टिक करती आगे बढ़ रहीं थी l अब धूप लॉन की दिवार फांद बालिकाओं के ऊपर चमक रहीं थी l उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि माज़रा क्या है lसुबह छह बजे उन्हें उठा कर तैयार कर दिया गया था कि आठ बजे गरमागरम नाश्ता मिलेगा l तभी लालबत्ती वाली एक गाडी हॉर्न बजा भीड़ को हटाती आश्रम के बाहर रुकी और उनके पीछे था कैमरों के साथ मीडिया का उमड़ता सैलाब , आधे घंटे के स्वागत समारोह में बाल दिवस की महत्ता के भाषण के बाद जब राजरानी देवी मंत्री जी के साथ कैमरे के साथ विभिन्न फोटो खिंचवाती नाश्ता बाँट रहीं थी तो दो चार बालिकाएं तो बेहोश होने जैसी स्थिति में पहुँच चुकी थी l कुछ बालिकाओं की आँखों में एक प्रश्न जरुर चमक रहा था कि यह कैसा बाल दिवस है?अब आश्रम की किसी भी बालिका की आँखों में उत्साह और जोश की चमक नहीं दिख रही थी !
डॉ सरस्वती माथुर 16
"सोने की नसरनी!"
"अरे कलमुही बेटा जनती तो हम भी सोने की नसरनी चढ़ते" ( बेटा होने पर घर के बुजुर्गों को एक सीढ़ीनुमा सोने की सीढ़ी पर अंगूठा छुआ कर आदर देने का फंक्शन कि वंश बढ़ा!)प्रसव के बाद लौटी बहू को ताना देते हुए पड़दादी ने कहा तो उसकी आँखें भर आई ! पास ही खड़ी दादी ने मालिश करने आई दाई माँ को सुनाते हुए कहा --"अरी भंवरी, सवा महीने की पूजन के साथ एक फंक्शन और रखा है पूरे मोहल्ले को न्योता देना है, आ लिस्ट बना लें !"" कैसा फंक्शन बीबीजी?" हथेली पर तम्बाकू मसलती भँवरी ने पूछ" अरी तीसरी पीढ़ी का प्रतित्निधित्व कर रही है मेरी पोती, क्या मोहेल्ले को लड्डू नहीं खिलाऊंगी? बड़ी धाय को भी तो सोने की नसरनी चढ़ा कर मान सम्मान दूँगी ना ! "बहू की आँखें फिर भर आयी, पर यह आंसूं ख़ुशी के थे, उन्होंने कृतज्ञता से सासू माँ की तरफ देखा, पड्दादी नि:शब्द रह अगले बगले झाँकने लगीं
17 "नशा !"
तुम रोज यूँही पीकर आओगे तो सच कहती हूँ मैं घर छोड़ कर चली जाऊँगी " श्यामली ने पति से कहा तो वह टहाका मार कर हंसा -
"कहाँ जायेगी पर ? रोटी कौन देगा ,तू तो दसवीं पास है ?"
"कहीं भी मजदूरी कर लूँगी पर तुम देख लो तुम्हें रोटी कौन देगा ?"
"हाँ हाँ ,जा.... कल की जाती , आज जा , रौब किसे दिखा रही है ?" वो पलंग पर धड़ाम से गिर कर सो गया
भोर हुई तो देखा दस बज़ गए हैं अब तक भी चाय नहीं मिली है ,वो चिल्लाया -"श्यामली चाय पिला न !"
पर कोई जवाब नहीं मिला ,अब उसका नशा पूरी तरह उड चुका था !
डॉ सरस्वती माथुर
18
" शिक्षा का चाँद !"
करवा चौथ का चाँद आकाश में मुस्करा रहा था! शराब पीकर लौटे पति को देख पत्नी ने चाँद को अर्क दिया और बिना खाये पिये पलंग पर जा लेटी ! आज पति ने उसे पीटा नहीं था! रात भर वे कुछ सोचती रही ! अगले दिन वे गाँव के आंगनबाड़ी की कक्षा में जा बैठी और अपना नाम दर्ज करवा लिया ! अब उसका मन हल्का था क्योंकि शिक्षा के द्वार के साथ उसकी चेतना के द्वार भी खुल गए थे ! अब बस उसे अपने वजूद की रक्षा करनी थी ! परम्पराएँ वो निभाएगी पर अन्याय नहीं सहेगी ! वर्षों बाद आज उसे अच्छी नींद आई थी ! लेकिन उसका पति जाने क्यूँ आज ठीक से सो नहीं रहा था !
19
"संस्कार अपना अपना !"
नदी की धारा ने पेड़ से कहा कि "तू मेरे रास्ते में मत आ तुझे उखाड़ दूँगी और आगे बढ़ जाऊँगी!"
पेड़ बोला ."मैं अपनी माटी नहीं छोड़ पाऊँगा, मेरी नियति में यदि उखड़ना लिखा है तो ठीक है l "
काल प्रवाहिनी की धारा बढ़ चली व् वृहद् भूखंड की और पेड़ को भी बहा ले गयी और पटक दिया एक छोर!सदियों बाद वही धारा रुक गयी थीl रेत बन कर सलिल को अनुपयोगी बना रही थी और पेड़ भूखंड पर उसी रेत से छ
rनकर पड़ा था ,नए व्यक्तित्व का आकार पाकर, पर कोयले से हीरा बना था !
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आम आदमीरमाकांत दस मिनट मिनट पहले ही दफ्तर से निकाला था पर वापस घर नहीं लौटा lसुबह वो जैसे ही दफ्तर के लिलिए निकलने लगा ,उसने देखा स्कूटर का टायर पंक्चर बनाने का टाइम नहीं था ,माँ दौड़ी दौड़ी बाहर घड़ी कलाई आई थी lउसे उसकी घड़ी पकड़ाने-" बिटिवा यह तो टेबल पर ही भूल गयाl " स्नेह से रमाकांत ने माँ को देखा lघड़ी कलाई में बांधी lदेखा सही नौ बज़ हैं lवो तेज तेज कदमों से मेट्रो की तरफ चल दिया l
मोबाइल पर बात करते करते लगभग भागते हुए मेट्रो में चढ़ा और यह अनहोनी हो गयी l
मेट्रो में ब्लास्ट हो गया lसारे टीवी चैनलो पर वही खबर चल रही थी lमाँ पथराई आँखों से देख रही थी lशाम को उसकी छितर lबितर लाश जब घर लाई गयी थी तो माँ ने देखा घड़ी कलाई में बंधी थी -उसकी निगाह डायल पर अटक गयी lनौ बज़ कर दस मिनट पर समय रुक गया था lमात्र दस मिनट में एक आदमी के घर में भी जीवन की गति रुक गयी थी lटाइम बम की टिकटिक ने जिंदगी को कितना सस्ता कर दिया है lघर में मातम पसरा था और पूरे देश भर के चैनल सक्रिय होकर विज्ञापनों के बीच बीच में आम आदमी की कहानी को चटकारे ले लेकर सुना रहे थे lवही कहानी टी॰ वी ॰पर दारू के पैग पीते हुए संवेदनहीन लुटेरे आतंकारी भी मुस्कराते हुए देख
रहे थे l
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