उड़ गये सारे पात
करूँ अब किससे बात
ना नीड़ बचा ना पाखी
निपाती डाली से कैसे
होगा अब संवाद ?
सोच हवा को भी आया
गुज़रा ज़माना याद
झंवर झुलाते पतों से
खेलती थी वो दिन रात
अनवरत यात्रा में भी
मौसम देता था साथ
उदास तरू थरथराते हुए
पतझड़ को है कहता
जा रे निरमोही
जा अब नहीं करना
कोई प्रतिवाद
पात और पाखी तो
होते हैं
प्रकृति की अनमोल सौग़ात
डाँ सरस्वती माथुर
करूँ अब किससे बात
ना नीड़ बचा ना पाखी
निपाती डाली से कैसे
होगा अब संवाद ?
सोच हवा को भी आया
गुज़रा ज़माना याद
झंवर झुलाते पतों से
खेलती थी वो दिन रात
अनवरत यात्रा में भी
मौसम देता था साथ
उदास तरू थरथराते हुए
पतझड़ को है कहता
जा रे निरमोही
जा अब नहीं करना
कोई प्रतिवाद
पात और पाखी तो
होते हैं
प्रकृति की अनमोल सौग़ात
डाँ सरस्वती माथुर
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