बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

उदास तरू

उड़ गये सारे पात
करूँ अब किससे बात
ना नीड़ बचा ना पाखी
निपाती डाली से कैसे
होगा अब संवाद ?

सोच हवा को भी आया
गुज़रा ज़माना याद
झंवर झुलाते पतों से
खेलती थी वो दिन रात
अनवरत यात्रा में भी
मौसम देता था साथ

उदास तरू थरथराते हुए
पतझड़ को है कहता
जा रे निरमोही
 जा अब नहीं करना
कोई प्रतिवाद
पात और पाखी तो
होते  हैं
प्रकृति  की अनमोल  सौग़ात
डाँ सरस्वती माथुर



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