शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

......"आवाज़ दो कहाँ हो !".....

1.
"आवाज़ दो कहाँ हो ?"
पाखी है यादों का
मौसम है वादों का
सूखी पतियों सी
बिखरी है
भूली बिसरी यादें
उड़ती रेशमी हवाओं में
अमावास की
काली रातें हैं
और चकोरी आकुल हो
पूछ रही है तारों से
मेरे आँखों के ख्वाब लेकर
कहाँ छिपा है मेरा चंदा
तुम्ही आवाज़ दो ना
ओ रेशमी हवाओं
वो जहाँ है उसी दिशा में
मैं भी निगाहों की
मखमली आशाएं
बिछा दूं और दर्द की
इस काली रात में
पीती रहूँ
प्रीत की हाला
मौसम भी मेरे
चारों तरफ
घूम रहा है
हो हरियाला
हर आहट पे
उठती है
मन में लहरें और
बुनने लगती है
भावों की नदिया
बहते सुनहरे सपनो की
पर बन जाती है
यादों की मधुशाला !
2.
"आवाज़ दो कहाँ हो !"
फिर हुई आह्ट
पुरवाई थी
आवाज़ दे कहाँ है के सुर में
मौसम को बुलाती
,मौसम एक चिड़िया सा
वहीँ उड़ रहा था
हमेशा की तरह
उसके आसपास भी
उड़ रही थी कुछ
सूखी पत्तियाँ गुब्बारों सी
मौसम खुश था
यह सोच कर कि
दरख्त, फूल ,धरती- आकाश
सब उसे पहचानते हैं
जानते हैं, मानते हैं
स्वागत में धार लेते हैं
नए नए परिधान
रखने को अतिथि की तरह
मौसम का मान
वैसे तो ज्यादातर
हरियाले कपडे पहनते हैं
पर जब बसंत में आता हूँ तो
पीले परिधान पहन स्वागत करते हैं
रंग बिरंगे फूलों का
सौंप गुलदस्ता और पतझड़ में
भूरे पत्तों में
नृत्य दिखाते हैं
हवा के साजों संग
बारिश में पाखियों संग
चहचहाते हैं और
गर्मी में अमलताश -पलाश के
कालीन बिछाते हैं हर आगमन पर
पलक पांवड़े बिछाते हैं और
इन्हें देख मौसम भी तो
एक तितली सा हो जाता है और
फूल फूल पर उडता है
बस उडता है इनके प्यार की
सुगंध बटोरता !
डॉ सरस्वती माथुर

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