सोमवार, 1 सितंबर 2014

माहिया : "धूप छाँह सा मन !"




 
धूप छाँह सा मन 

धूप छाँव- सा मन है
घर के आँगन में
कितना अपनापन है

जीवन की बही लहर
धार -धार चलती
सुख -दुख से भरी डगर

जूही-सा नाज़ुक मन
ओढ़ उदासी को
बैठा सूने आँगन

ले आ डोली कहार
दूर चले जाना
घर में बचे दिन चार
 ५
चरखा है यादों का
आँखों में काता
सपना बस वादों काl

 डॉ सरस्वती माथुर

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