"सूरज के चरखे !"
सर्दी का उपहार
शीत सरसे ठंड बरसे
करो अलाव तैयार
सक्रांति त्योहार
...
सर्दी का उपहार
शीत सरसे ठंड बरसे
करो अलाव तैयार
सक्रांति त्योहार
...
'पाखी सा मन
पतंगों की बहार
मौसम में सनसन
उडे गगन के पार
सूरज के चरखे
प्रेम रस बुन कर
दिलों को परखें
जोड़ आस्था के तार
तिल गुड की मिठास
सद्भावी व्यवहार
सबको ले आए पास
यही त्योहार का सार
डॉ सरस्वती माथुर
पतंगों की बहार
मौसम में सनसन
उडे गगन के पार
सूरज के चरखे
प्रेम रस बुन कर
दिलों को परखें
जोड़ आस्था के तार
तिल गुड की मिठास
सद्भावी व्यवहार
सबको ले आए पास
यही त्योहार का सार
डॉ सरस्वती माथुर
"धूप शैफाली खिलती!"
ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती
धरा पर
झरझर झरती
धरा कलश में
स्वर्ण किरणें भरती
चाँदी की जाजम
मखमली लगती
ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती
कितना मोहक
धूप का रूप
तुम भी हो भास्कर
काम्य स्वरूप
संग तुम्हारे भिनसारे
रानी सी नख़राली चलती
ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती
नभ के वन से
धरा पर
हिरणी सी कूद के
चपला सी चलती
रंगरेज सी सिंधु रंग
साँझ में ढलती
ओ रे सूरज
धूप शैफाली खिलती !
डाँ सरस्वती माथुर
"दिवाकर अरुणाया!"
पर्व सक्रांति
गुड धानी ले कर
जन जन को भाया ...
रोशन किरणों का
जाल पिरो कर
धरती पर आया
पर्व सक्रांति
गुड धानी ले कर
जन जन को भाया ...
रोशन किरणों का
जाल पिरो कर
धरती पर आया
भिनसारे जब
पाखी थे जागे
बच्चे बूढ़े संग सब
बेदम छतों पे भागे
तिल गज़क खाया
धूप डोर बांध
सूर्य पतंग सा डोला
सक्रांति में प्रेम भर
जन मन को खोला
गगन में लहराया
शीत लहर के
तेवर तीखे थे
गुड तिल के व्यंजन
पर नहीं फीके थे
हो मीठा मधुराया
बदली दिशा
दिवाकर अरुणाया
सर्द पुरवा में जब
मौसम गरमाया
जाति पांति भूल पर्व
सक्रांति शांति लाया l
डॉ सरस्वती माथुर
"सूरज जलते रहना !"
ओ गगन के दीप
यूँ ही तुम जलते रहना ...
पाखी थे जागे
बच्चे बूढ़े संग सब
बेदम छतों पे भागे
तिल गज़क खाया
धूप डोर बांध
सूर्य पतंग सा डोला
सक्रांति में प्रेम भर
जन मन को खोला
गगन में लहराया
शीत लहर के
तेवर तीखे थे
गुड तिल के व्यंजन
पर नहीं फीके थे
हो मीठा मधुराया
बदली दिशा
दिवाकर अरुणाया
सर्द पुरवा में जब
मौसम गरमाया
जाति पांति भूल पर्व
सक्रांति शांति लाया l
डॉ सरस्वती माथुर
"सूरज जलते रहना !"
ओ गगन के दीप
यूँ ही तुम जलते रहना ...
तुम उत्तरायनण आते हो
थाम धूप का दोना
तुम उजास बहाते हो
चीर धुंध का सीना
ओ गगन के दीप
यूं ही तुम जलते रहना
तुम जीवन सरगम हो
अनिल सर्द हो तो भी
तुम साँसों की अगन हो
सुबह से शाम गलते हो
ओ गगन के दीप
तुम यूँ ही जलते रहना
अमृत कलश की धारा
ऊर्जा का ज्योति पिंड तुम
पीकर तिमिर तुम सारा
धरा में गति भरते हो
ओ गगन के दीप
यूँ तुम जलते रहना l
डॉ सरस्वती माथुर
थाम धूप का दोना
तुम उजास बहाते हो
चीर धुंध का सीना
ओ गगन के दीप
यूं ही तुम जलते रहना
तुम जीवन सरगम हो
अनिल सर्द हो तो भी
तुम साँसों की अगन हो
सुबह से शाम गलते हो
ओ गगन के दीप
तुम यूँ ही जलते रहना
अमृत कलश की धारा
ऊर्जा का ज्योति पिंड तुम
पीकर तिमिर तुम सारा
धरा में गति भरते हो
ओ गगन के दीप
यूँ तुम जलते रहना l
डॉ सरस्वती माथुर
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