मंगलवार, 13 मार्च 2018

गीत-नवगीत

'मौन बातूनी हो जाये'
देहरी पर
जब दीप जले
विश्वास पले
रात चाँदनी हो जाये

तटबंध तक जाते
साथ निभाते
बाती गले
मुलाक़ात सुहासिनी हो जाये

चाँद कटोरा लेके आये
धरा खड़ी मुस्काये
स्वप्न पले
बात रागिनी हो जाये

हवा हाँफती
फूलों पर उतरे
अमराई तले
उदिता मौन बातूनी हो जाये
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'एक अंजाना डर'
कहाँ खो गये
सुंदर साझा घर
चहुँ ओर पसरा है
एक अनजाना डर

मौन योगी सी
उतरती है सहर
एक रोगी सी
लगती है हर पहर

पीली धूप में
सूख रहे हैं तरूवर
प्रदूषित हवा के
हो गये हैं भारी स्वर

कोहसारी रातें
नींद की डगर
सपन पनीले भी
टूट कर गये बिखर
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'बंजारा सा मन '

आपाधापी -शोर शराबा
बंजारा सा मन
उजले दिन में भटक रहा
अँधियारा सा मन

हवा से पूछा
जब तुम बहती हो

लिपट तरूओं से

क्या कहती हो

सूने मौसम में रहता है
बौराया सा मन

धूप है गहरी
तपती राहें हैं
छांव  को ढूँढती
विकल  निगाहें हैं

चलते चलते रूके पाँव
घबराया सा मन !
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'अलग अलग घर'

दिन कितने अपने थे
मनभावन सपने थे  

हर गाँव हर शहर में
गली चौक अमराई में
रात और  सहर में
मस्ती भरे आलम थे
बस हम ही हम थे

अब ना गली चौबारा
ना कोयल के स्वर
अलग मसजिदें गुरुद्वारा
अलग अलग हैं घर
सबके पहले एक मन थे ।
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'कहाँ गये वो दिन?'
 किससे करें संवाद
डरा हुआ है मन
भूली बिसरी बातें
कहाँ गये वो दिन
साझा चूल्हा बुझ गया
हुआ सब छिन्न -भिन्न

दिन यूँही कट रहे हैं
जीवन में खटास
किसके द्वार खटखटायें
अपना ना कोई पास
खिड़कियाँ भी बंद हैं
आत्मीयता गयी है छिन्न

बढ़ रहीं हैं दूरियाँ
बदल रहे हैं दिल
चूहों जैसे हो गये हम
खोद रहे हैं बिल
कोई मुस्करा के बोल दे
तो कहते हैं-आमीन ।
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