बुधवार, 19 अगस्त 2015

हाइकु


निर्मोही मेघ
बिन बरसे गया
धरा अवाक  l

यादें  टेरती
सावनी बदरिया
जब घेरती l

मन की धरा
झरना बन जाती
 हिलोरें खाती l

चलो रे मन
चंचल हवाओं से
गति ले आयें l 

शोर उड़ाती
यादों की गौरैया तो
मन उडता l

धूप  का रथ
तप्त धरती पर
दौड़ लगाये l

 रात थी सोयी
भोर की कोयल ने
उसे उठाया l

चंचल मन
हवाओं के संग
रास्ता ही भूला l

इचक दाना
हवाएँ हैं गातीं
किसे बुलातीं l
१०
है ता ता थैया
करती नदिया
सागर देख l
डॉ सरस्वती माथुर